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समझदारी से करें चयन

मुद्दा
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आमतौर पर पंचायत में प्रत्याशी को, विधानसभा में प्रत्याशी और पार्टी को और लोकसभा चुनावों में पार्टी को अधिक तवज्जो दी जाती है।


चुनावों के दौरान हम लोग सोच रहे हैं कि किसे वोट देना चाहिए? यदि हम स्पष्ट हैं कि अपने वोट के बदले हम क्या अपेक्षा रखते हैं तो हम बेहतर निर्णय कर सकते हैं। लेकिन, उससे पहले हमें यह जानने की जरूरत है कि एक सांसद क्या काम करता है? वह लोकसभा में अपने निर्वाचन क्षेत्र के हितों का प्रतिनिधित्व करता है और संसद में नए कानूनों को पास करने के लिए वोट देता है। ऐसा करने के लिए वे संसद में भाग लेते हैं। बहस, सवाल और नए बिलों पर वोट देने के साथ प्राइवेट मेंबर के बिलों को भी पेश करते हैं। वास्तविकता में, पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उनके लिए निर्देश या ‘व्हिप’ जारी करता है और हमको ब्रिटिश अतीत से प्राप्त तंत्र के तहत उनको आदेश का पालन करते हुए वोट देना पड़ता है। अन्यथा, उनको पार्टी से निष्कासित किया जा सकता है। ऐसे में वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के वोटरों के साथ कैसे न्याय कर सकता है? ऐसे में उसको अपने निर्वाचन क्षेत्र की भावनाओं को नजरअंदाज करना पड़ता है।


सांसदों के औपचारिक कर्तव्यों के अलावा वोटरों की उनसे बहुत अपेक्षाएं होती हैं। अच्छा सांसद अपने क्षेत्र के विकास के लिए जिला प्रशासन को कार्यों को क्रियान्वित करने के लिए प्रभावित करने की कोशिश करता है। ऐसा प्रयास बुनियादी सुविधाओं पानी, स्कूल, स्वास्थ्य, सड़क, कचरे की सफाई, सिंचाई और कानून व्यवस्था समेत कई मसलों पर किया जा सकता है। लेकिन कुछ ही सांसद ऐसा करते हैं। ज्यादातर कुछ वोटरों को खुश करने के लिए शादियों, त्योहारों में शिरकत करने के अलावा अपने पोस्टर-होर्डिंग लगवाते हैं जिनमें बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं।


हमें सांसदों के साथ उनके राजनीतिक दलों के बारे में भी विचार करना चाहिए। आमतौर पर पंचायत चुनावों में प्रत्याशी को वोट दिया जाता है। राज्य विधानसभा चुनावों में प्रत्याशी और पार्टी को वोट दिया जाता है और लोकसभा चुनावों में पार्टी को अधिक तवज्जो दी जाती है। हमको पार्टी के घोषणापत्र पर विचार करने की जरूरत है। लेकिन वास्तव में पार्टी के प्रत्याशी और वोटर दोनों ही इसको खास अहमियत नहीं देते। वे देखते हैं कि सत्ताधारी दल ने बढ़िया काम किया है या नहीं। महंगाई जैसे मुद्दे वोटरों को प्रभावित करते हैं और इसके लिए उचित रूप से सरकार को दोषी ठहराया जाता है। यद्यपि हाल के विधानसभा चुनावों से एक नई प्रवृत्ति बढ़ती हुई दिख रही है कि वोटर कमजोर प्रदर्शन करने वाले सत्ताधारी दल को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं और बेहतर काम करने वाले दलों को चुन रहे हैं।


इन सबके अलावा देश के कई हिस्सों में एक समूह के तौर पर वोट देने के मसले पर परिवार या समुदाय तय करते हैं। यह कुछ उन पश्चिमी देशों से भिन्न है जहां लोग सामूहिक के बजाय निजी तौर पर निर्णय लेते हैं। मेरा वोट मेरा देश अभियान के तहत हालिया एक हमारे सर्वे में ढाई लाख वोटरों से पूछा गया कि क्या वे स्थानीय प्रत्याशी, पार्टी, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार, जाति या धर्म या प्रत्याशियों द्वारा दिए जाने वाले उपहार, धन, शराब, कपड़ा वगैरह के बदले वोट करते हैं। उनमें से अधिकांश का कहना था कि वे सबसे पहले प्रत्याशी को देखते हैं। उसके बाद पार्टी और सबसे अंत में प्रधानमंत्री उम्मीदवार को देखते हैं। कुछ लोगों ने यद्यपि स्वीकार किया कि वे जाति और धर्म या उपहार और पैसे के बदले वोट देते हैं। हालांकि इस सर्वे के आधार पर लोगों के वोट देने के संबंध में अनुमान लगा पाना कठिन है।


कुल मिलाकर इन सबसे भ्रम की स्थिति पैदा होती है। आमतौर पर हमको कोई भी यथोचित प्रत्याशी या पार्टी नहीं मिलती है। लेकिन फिर भी वोट करते समय हमको कुछ अपेक्षाएं होती हैं। आदर्श रूप से जागरूक स्व हितों को देखते हुए हमें वोट देने का निर्णय करना चाहिए। उससे पहले हमें खुद ही यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि क्या प्रत्याशी हमारी बेहतरी के लिए काम करेगा? इनसे भी आगे हमें यह बुनियादी सवाल पूछना चाहिए कि क्या उसकी मंशा जनता की भलाई के लिए काम करने की है?


हमें बड़े भाषणों,  घोषणाओं, उपहारों, जाति या धर्म के झांसे में नहीं आना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए हमें कुछ खास बातों पर ध्यान देना चाहिए। यदि कोई चुनाव में बहुत धन खर्च कर रहा है और उपहार बांट रहा तो उसको नजरअंदाज करना चाहिए। जिस पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हों, जब तक यह सुनिश्चित नहीं कर लें कि उसके खिलाफ चल रहे मामले झूठे हैं तब तक ऐसे व्यक्ति की भी उपेक्षा करनी चाहिए। प्रत्याशी को काबिल होने के साथ-साथ उसका इरादा भी ठीक होना चाहिए।


उसके बाद हमें पार्टी पर भी विचार करना चाहिए। पहले पार्टियों की विचारधारा होती थी लेकिन अब वे उसका अनुसरण नहीं करती बल्कि वोटों को पाने के लिए उसका उपयोग करती हैं। इसलिए यह भी देखना चाहिए कि उनकी मंशा जनता की भलाई है? क्या वे सिर्फ सत्ता चाहती हैं? बड़ी रैलियों, अखबार-टीवी के विज्ञापनों, होर्डिंगों और हेलीकॉप्टरों के लिए पैसा कहां से आ रहा है? क्या उनके पीछे बड़े उद्योगपति तो नहीं खड़े हैं? यदि ऐसा है तो स्पष्ट है कि उनको बहुत लाभ पहुंचाया जाएगा और जनता परेशान होगी। क्या उनके नेता सक्षम हैं? क्या वे आत्मकेंद्रित और अहंकारी हैं? सक्षम, अहंकारी, सत्तालोलुप नेता बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं। यदि हमको कोई समझ में नहीं आता है तो नोटा विकल्प का इस्तेमाल किया जा सकता है। आखिर किसी न किसी विकल्प को तो अपनाना ही होगा लेकिन उससे पहले सजग निर्णय लें।


इस आलेख के लेखक प्रो त्रिलोचन शास्त्री हैं (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के संस्थापक चेयरमैन )


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