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गठबंधन के बिना भी स्थिर रह सकती हैं सरकारें

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संसदीय लोकतंत्र में यह जरूरी नहीं होता कि जो सरकार बने उसे बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। जरूरी यह है कि बहुमत उसके विरुद्ध न हो।


अगर चुनाव पूर्व कुछ दलों के बीच चुनावी गठबंधन बनता है, तो सामाजिक और राजनीतिक, दोनों ही स्तरों पर इसका औचित्य नजर आता है। ऐसे हालात में सामान्यत: यह संदेश जाता है कि विभिन्न दल एक समान कार्यक्रम और समझ के साथ जनता के सामने जा रहे हैं। तब उन्हें इसी आधार पर जनाधार भी मिलता है, लेकिन जब यही दल, जो पहले अलग-अलग रहते हैं, चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक-दूसरे से भिड़ते हैं, आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करते हैं तो जनता फिर उस हिसाब से वोट देती है। ऐसे में अगर आप चुनाव के  बाद फिर उसी दल से समझौता कर लेते हैं जिसकी कल तक आलोचना और अवहेलना कर रहे थे तो इसका सीधा-सा अर्थ है कि आपने जनता को धोखा दिया है। चुनाव के बाद जो भी गठबंधन बनते हैं उसके पीछे उनका उद्देश्य देश या जनता की सेवा नहीं, बल्कि सत्ता-सुख बटोरना होता है।


विदेश में भी साझा सरकारें बनती रही हैं, अब भी बनती हैं और सफलता से चलती हैं। आखिर जब वहां पर ऐसी सरकारें सफल हैं तो फिर भारत में क्यों नहीं? दरअसल किसी देश की राजनीतिक व्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि  वहां की पृष्ठभूमि, आर्थिक-सामाजिक स्थितियां और आवश्यकताएं क्या हैं। पहले इसे समझना जरूरी है। यूरोप के कई देशों में साझा सरकारें हैं, लेकिन उनके यहां समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली है। अलग-अलग पार्टी के लोग चुन कर आते हैं और मिलकर सरकार बनाते हैं, लेकिन हमारे यहां संसदीय प्रणाली है। संसदीय लोकतंत्र में यह जरूरी नहीं होता कि जो सरकार बने उसे बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। जरूरी यह है कि बहुमत उसके विरुद्ध न हो। यही कारण है कि अपने यहां अल्पमत सरकारें वैध मानी जाती हैं और चलती हैं।  नरसिंह राव, देवगौड़ा, गुजराल की सरकारें अल्पमत की सरकार थीं और चलीं भी। चंद्रशेखर ने जब सरकार बनाई तो उनके पास केवल 54 लोग ही थे। कहने का मतलब यह है कि अगर आप अल्पमत में हैं और आप सरकार चलाने के योग्य हैं तो अल्पमत सरकार भी सफल होती है। ऐसे में चुनाव के बाद गठबंधन बनाना सिर्फ सत्तालोलुपता की निशानी है और जनता के साथ छलावा भी।


चुनाव बाद अगर किसी गठबंधन या राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिलता है तो मौजूदा प्रावधान के अनुसार राष्ट्रपति या राज्यपाल का काम महत्वपूर्ण हो जाता है। वह अपने विवेक पर अगला कदम उठाने को स्वतंत्र होता है। इसके तहत वह विभिन्न दलों के नेताओं की राय ले सकता है। सांसदों के समर्थन की सूची देख सकता है। उनकी परेड करा सकता है। तसल्ली होने पर वह किसी दल या गठबंधन को सरकार बनाने पर आमंत्रित कर सकता है। हालांकि इतनी सारी कवायदों के बाद भी यह जरूरी नहीं है कि सरकार स्थिर ही रहे। पिछले 25 साल से मैं यह बात कहता आ रहा हूं कि अगर चुनाव के बाद किसी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिल रहा है तो राष्ट्रपति महोदय को यह निर्देश देना चाहिए कि सभी लोग सदन का नेता चुनकर बताएं। 2002 में संविधान समीक्षा आयोग ने इस राय को अपनी सिफारिशों में शामिल भी किया था। इसमें सीक्रेट वोटिंग के तहत सदन के नेता का चयन किया जा सकता है। हालांकि इसके तहत संविधान में एक छोटे से संशोधन के बाद सरकार का स्थायित्व सुनिश्चित किया जा सकता है। इस संशोधन के तहत किया यह जाना चाहिए कि अगर बाद में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति आती है तो वह सकारात्मक अविश्वास प्रस्ताव होना चाहिए। यानी प्रस्ताव में यह भी शामिल हो कि अगर इस सरकार में विश्वास नहीं है तो जिसमें विश्वास हो उसका भी उल्लेख साथ-साथ किया जाए। इससे चुनाव बाद किसी दल या गठबंधन को बहुमत के बिना भी सरकार के स्थायित्व को कोई खतरा नहीं हो सकता है। वह पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा कर सकेगी। (अरविंद चतुर्वेदी से बातचीत पर आधारित)


इस आलेख के लेखक सुभाष कश्यप हैं

(पूर्व लोकसभा महासचिव एवं संविधानविद्)

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