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बाजार बन चुकी है राजनीति

मुद्दा
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किसी दौर में राजनीति में नैतिकता के उच्च मानदंड स्थापित थे लेकिन आज यह कीचड़ से सनी ऐसी बाजार है जहां हर कोई बिकाऊ है।

प्रख्यात अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने बहुत समय पहले कहा था, ‘राजनीति एक ऐसी विनम्र कला है जिसमें गरीबों से वोट और अमीरों से चंदा दोनों को ही एक दूसरे से सुरक्षा दिलाने के वायदे पर लिया जाता है।’ चुनाव के आते ही हमारे नेता शोमैन, कलाबाज, रैंबो और मसीहा की तरह व्यवहार करने लगते हैं। आप यह कल्पना नहीं कर सकते लेकिन मामला कौआ चले हंस की चाल जैसा दिखता है।


किसी दौर में राजनीति में नैतिकता के उच्च मानदंड स्थापित थे लेकिन आज यह कीचड़ से सनी हुई बाजार बन चुकी है जहां हर कोई बिकाऊ है। इसकी अभिव्यक्ति साहिर लुधियानवी के शब्दों में बयां होती है, ‘मैंने जो गीत तेरे प्यार की खातिर लिखे, आज उन गीतों को बाजार में ले आया हूं।’ आज राजनीति में आदर्शों का अभाव है। अधिकांश नेताओं/पार्टियों के चुनावी अभियानों में बहस के लिए बहुत कम स्थान बचा हुआ है। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे दांव पर नहीं हैं। किसी कार्यक्रम और नीति की चर्चा नहीं हो रही है और सब एक दूसरे को गाली देते हुए और हमला करते हुए दिखते हैं। न ही भ्रष्टाचार और न ही बेरोजगारी किसी के लिए मसला है। राजनेता/पार्टियां किसी एक विचारधारा के आधार पर चुनाव जीतते हैं और सत्ता में बने रहने के लिए दूसरी विचारधारा को चुनते हैं। आज के संसदीय लोकतंत्र में गठबंधन सरकारें आम हैं। एक दल के बहुमत वाली सरकारें दुर्लभ होती जा रही हैं। 1945-1997 के बीच 11 यूरोपीय लोकतंत्र के 313 अध्ययनों में पाया गया कि इस दरम्यान केवल 20 चुनावों में एक दल संसद की आधे से अधिक सीटें जीतने में कामयाब हो सका। यानी गठबंधन सरकारें स्थायी रूप अख्तियार कर चुकी हैं।


हमारे देश में यह चिंताजनक पहलू है कि चुनाव बाद के गठबंधनों को पूर्व की तुलना में तरजीह दी जा रही है। फ्रांस, दक्षिण कोरिया और भारत जैसे देशों में चुनाव पूर्व गठबंधन बेहद आम हैं। भारतीय अनुभव बताता है कि इस तरह का गठबंधन साझा सहमति के आधार पर बने कार्यक्रमों को लागू करने के लिए सरकार नहीं बना पाता। चुनावों बाद गणित बदल जाता है। कैबिनेट में सीट और अन्य लाभों के चक्कर में ये गठबंधन टूट जाता है। इस कारण सहयोगी घटक सरकार बनाने के लिए सहयोग नहीं करते और ये दल स्वतंत्र होकर चुनाव बाद के गठबंधन को तरजीह देते हैं।


आज विचारधारा, सिद्धांतों और नैतिकता का मजाक उड़ाया जा रहा है। एक सूत्र के मुताबिक पश्चिम बंगाल की 40 सीटों में से 15 पर ऐसे प्रत्याशी हैं जो टिकट पाने के लिए धुर विरोधी दल से पाला बदल चुके हैं। परंपरागत रूप से चुनावी सीजन में इधर-उधर निष्ठाओं को बदलते हुए देखा जा सकता है। लेकिन यह मार्च इस मामले में अविश्वसनीय है क्योंकि राजनेता संसद सदस्य बनने के लिए अपनी पार्टी के साथ-साथ सिद्धांतों को भी त्याग रहे हैं। एक-दूसरे का पुरजोर विरोध करने वाले  जदयू और भाजपा के प्रत्याशी पाला बदल रहे हैं। रामविलास पासवान का उल्लेखनीय राजनीतिक जीवन रहा है। वह संयुक्त मोर्चा, राजग और संप्रग सभी राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने 1996-2009 तक लगातार केंद्रीय मंत्री रहने का रिकॉर्ड भी बनाया है। सरकारें आती-जाती रहीं। गठबंधन बनते-टूटते रहे लेकिन उनका सितारा बुलंद रहा। उनकी राजनीतिक उड़ान हमेशा दिल्ली में लुटियंस के मंत्रियों के लिए आरक्षित बंगले तक जारी रही।


इस स्थिति के लिए सभी राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं। आम आदमी पार्टी ने सुशासन के नए युग का वादा किया। लेकिन इसका रिकॉर्ड भी उल्लेखनीय नहीं रहा। चुनाव के दौरान दलबदल लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। अभी दलबदल विरोधी कानून केवल पाला बदलने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों पर लागू होता है लेकिन इसमें संशोधन का वक्त अब आ चुका है। उसमें यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि दलबदल करने वाला कोई भी नेता संबंधित पार्टी में पांच साल काम करने के बाद ही टिकट पाने का हकदार होगा। इस मसले पर गांधी जी की प्रसिद्ध उक्ति है, ‘जब राजनेता सत्ता के खेल में शामिल होते हैं तो वे बिना किसी सिद्धांतों के व्यवहार करते हैं। किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने का निश्चय अनैतिक है। जब राजनेता या कोई अन्य सच्चाई का साथ छोड़ देते हैं तो उनकी या पार्टियों की साख धूमिल हो जाती है।’


आज की राजनीति इसी क्षरण का शिकार है लेकिन राजनेता किसी दूसरी प्रजाति के सदस्य नहीं है। वे उसी समाज का हिस्सा हैं जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं। हम खतरनाक रूप से सामाजिक और नैतिक पतन के युग के गवाह हैं। राजनीति उसका महज एक लक्षण है। यहां तक कि वोटर भी गलतियां करते हैं। लोकतंत्र की खूबसूरती यह है कि यहां गलतियों को ठीक किया जा सकता है। हमें दूसरों के बजाय खुद को ही दोषी ठहराना चाहिए। जैसाकि रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, ‘आप किसे दोष देते हैं? यह पाप हमारा और तुम्हारा ही तो है।

इस आलेख के लेखक आश नारायण रॉय हैं

(डायरेक्टर- इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, दिल्ली)


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