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भुखमरी पर किरकिरी

मुद्दा
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Dainik Jagran Mudda

अर्श

दूध उत्पादन में हम दुनिया में शीर्ष पर हैं। पशुओं की संख्या में दुनिया में हम पहले पायदान पर हैं। गन्ना, गेहूं और चावल को पैदा करने के मामले में भी हम दुनिया में दूसरे स्थान पर हैं। मांस उत्पादन में हमें विश्व का छठा दर्जा प्राप्त है। खाद्यान्न उत्पादन में हम आज से चालीस साल पहले ही आत्मनिर्भर हो चुके हैं। आज कमोबेश सभी चीजें हम अपनी जरूरत से ज्यादा पैदा कर रहे हैं। किसी भी चीज के लिए हमें दूसरे का मुंह ताकना नहीं पड़ रहा है। बंपर पैदावार के चलते हम अपने अनाजों को संभाल नहीं पा रहे हैं।


फर्श

ऐसे में अगर आजादी के 66 साल बाद भी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में कृषि प्रधान देश होते हुए भी हम 63वें पायदान पर हैं तो यह किसी विडंबना से कम नहीं है। हाल यह है कि एक तरफ हमारे गोदाम अनाज से उफन रहे हैं तो दूसरी तरफ एक तबका भुखमरी से जूझ रहा है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा जारी किये गए सूचकांक में हमसे छोटे हमसे ज्यादा गरीब देश भुखमरी के मामले में हमसे बेहतर हैं। शर्मनाक स्थिति तो यह है कि हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इस सूचकांक में हमसे सम्मानित स्थान पर मौजूद हैं।


अवसर

हरितक्रांति के फलस्वरूप खाद्यान्न मामलों में आत्मनिर्भर होने के बाद गरीबी और भुखमरी को दूर करने के लिए तमाम कोशिशें और योजनाएं चलाई गईं। अन्न वितरण की ये सभी योजनाएं कोरी साबित हुईं अन्यथा स्थिति जुदा होती। एक कृषि प्रधान देश में भुखमरी के लिए सरकारी नीतियों और उसके कर्ताधर्ताओं के जिम्मेदार होने का ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहीं दुर्लभ ही होगा। हमारा मौजूदा तंत्र पर्याप्त उत्पादन के बावजूद जरूरतमंदों तक खाद्यान्न पहुंचाने में असफल साबित हुआ है। खाद्य सुरक्षा कानून को जोर-शोर से लागू करने की कवायद चल रही है, लेकिन बिना तंत्र को दुरुस्त किए उसकी सफलता पर भी संदेह के बादल मंडरा रहे हैं।  ऐसे में जरूरत से अधिक खाद्यान्न के बावजूद देश में भयावह भुखमरी की वजहों की पड़ताल आज हम सबके लिए सबसे बड़ा मुद्दा है।

………….

समता और सुशासन का हो अनुशासन

पूर्णिमा मेनन

(सीनियर रिसर्च फेलो, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट)

बच्चों में कुपोषण को दूर करने के मामले में हम विफल रहे हैं। लिहाजा जब तक हम इस समस्या को दूर नहीं करते हैं, भुखमरी सूचकांक में निचले पायदान पर ही बने रहेंगे।

प्रदर्शन बढ़िया करने के उपाय

† भूख व कुपोषण के खिलाफ लड़ने के लिए समानता के पहलू पर केंद्रित करना होगा। आय, लिंग व जाति की विषमताएं हमारे बच्चों के सेहत और पोषण में दिखेंगी स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और सामाजिक सेवाओं के केंद्र में लड़कियां, महिलाएं और दो साल से कम आयु के बच्चों को रखना होगा। यह मानव व आर्थिक संसाधनों के विकास में हमारा निवेश है। पोषण, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए मजबूत ज्ञान बेस तैयार करना होगा। नई चीजों को आजमाने के बजाय पहले से विद्यमान चीजों को बेहतर बनाने की जरूरत है विगत दशकों में अर्थव्यवस्था के बढ़ने के बावजूद भुखमरी और कुपोषण के मामले में भारतीय प्रगति कमजोर रही है। 2013 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआइ) में 78 देशों की सूची में भारत की रैंकिंग 63वीं हैं। जीएचआइ रैंकिंग के ज्यादा होने की वजह क्या है? दरअसल इसके तीन संकेतक होते हैं : कैलोरी अल्पपोषण, बाल मृत्यु दर और कुपोषित शिशु (कम वजन)। पहले दो संकेतकों में भारतीय प्रदर्शन बढ़िया है लेकिन बच्चों के कुपोषण के मामले में असफलता की वजह से हमारी जीएचआइ रैंकिंग ज्यादा है। इसलिए इसकी वजहों की गहरी पड़ताल आवश्यक है।


भारत में पोषण की कहानी योजना और सार्वजनिक कार्यक्रमों के प्रबंधन, उच्च स्तर के सामाजिक और आर्थिक निष्कासन, लैंगिक असमानता, खस्ताहाल जल और सफाई के सामूहिक प्रभावों के रूप में परिलक्षित होती है। यूपी, बिहार या मध्य प्रदेश के किसी भी गांव की ‘यथार्थ’ जिंदगी ग्रामीण आबादी की नग्न सच्चाई को बयां करती है। आज 2013 में भी हम स्वीकार करते हैं कि अधिकांश आबादी अभी भी बदतर हालात में जिंदगी बसर कर रही है। कुपोषित और अल्प शिक्षित महिलाओं के यहां बच्चों का जन्म हो रहा है। वे गरीबी, खाद्य असुरक्षा, सामाजिक और आर्थिक निष्कासन और बदतर पानी और साफ-सफाई के हालात में जिंदगी शुरू करते हैं। इसलिए भारत में भुखमरी और कुपोषण के आंकड़े इन्हीं विविध निष्कासनों का प्रकटीकरण है।


कुपोषण के खिलाफ एक बड़ी चुनौती यह भी है कि बाल कुपोषण के संबंध में राष्ट्रीय डाटा पुराना है। 2005-06 के उस डाटा का ही उपयोग जीएचआइ में किया गया है। दुर्भाग्य से पोषण से संबंधित डाटा रखने के मामले में दुनिया और दक्षिण एशिया में हमारी स्थिति बेहद खराब है। 2005-06 के डाटा के अगले 10 वर्षों बाद ही नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) का नया डाटा उपलब्ध होगा। वियतनाम और चीन अपने कार्यक्रमों की योजना बनाने और उनकी निगरानी के लिए सालाना पोषण डाटा का संकलन करते हैं। रिसर्च और मूल्यांकन के लिए गहरे स्तर पर सर्वे भी करते हैं। बांग्लादेश के पास खाद्य सुरक्षा और पोषण सर्विलांस कार्यक्रम है जो साल में दो-तीन बार डाटा संग्रह करते हैं। पाकिस्तान ने हाल में ही राष्ट्रीय पोषण सर्वे जारी किया है। इसलिए अब समय आ गया है कि राज्य सरकारों को भी योजना और मूल्यांकन के लिए स्वास्थ्य एवं पोषण सर्वे पर निवेश करना चाहिए। हालांकि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र ने पहले से ही यह शुरू कर दिया है।


बच्चों में पोषण के स्तर को सुधारने और जीएचआइ में भारत की रैंकिंग सुधारने के लिए सबसे पहले सामाजिक समता और सुशासन की दिक्कतों को दूर करना पड़ेगा। साथ ही इनको ऐसे पोषण कार्यक्रमों के साथ जोड़ना होगा जो लड़कियों, महिलाओं और छोटे बच्चों पर विशेष रूप से केंद्रित हों। हालांकि यह भी सही है कि पहले की अपेक्षा पोषण के मामले में हम बेहतर समय में जी रहे हैं क्योंकि कई राजनीतिक और नीतिगत प्रतिबद्धताएं धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर नई राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट, आइसीडीएस की पुनर्संरचना और पोषण के लिए बहुक्षेत्रीय कार्यक्रमों में ये नीतिगत एजेंडे के रूप में शामिल है। राज्यों के स्तर पर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में अब पोषण मिशन चल रहे हैं। महाराष्ट्र में इसके सकारात्मक परिणाम भी मिलन लगे हैं। यह ध्यान रखना होगा कि देश को मजबूत बनाने के लिए हमें अपने घर व समाज में ऐसा सक्षम वातावरण बनाना होगा कि कुछ खास को नहीं पूरे भारत के बच्चे आगे बढ़ पाएं। इसके लिए हम सबको एकजुट होना होगा और मिलकर इस कार्य को सफल बनाना होगा।


20 अक्टूबर  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘रोटी के लिए खरी-खोटी‘ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

20 अक्टूबर  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘महाशक्ति और भुखमरी‘ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

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