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विश्वसनीयता का संकट

मुद्दा
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जरूरी सुधार की दरकार

1 राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र लागू करने के लिए कानून

2 राजनीतिक दलों के लिए अपने खातों को नियमित तौर पर दुरुस्त रखने की जरूरत है

3 राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली को नियंत्रित करने वाला कानून

4 नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा सुझाए गए ऑडिटर ही राजनीतिक दलों के खातों का ऑडिट करें


5 राजनीतिक दलों में वित्तीय पारदर्शिता के लिए कानून

6 नामांकन पत्र भरने के दौरान प्रत्याशी द्वारा दाखिल किए जाने वाले शपथपत्र का सत्यापन संबंधित राजनीतिक दल करें

7 राजनीतिक दलों के खातों के संबंध में जानकारियां आम जनता को भी उपलब्ध हों

8 नोटा का प्रभावी क्रियान्वयन


9 ऐसे प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई जाए जिन पर चल रहे आपराधिक मामलों के चलते उनको दो या उससे अधिक वर्षों की सजा हो सकती है

10 प्रत्याशी द्वारा दाखिल शपथपत्र की जानकारियों की जांच चुनाव बाद एक स्वतंत्र केंद्रीय एजेंसी द्वारा निश्चित समयसीमा के भीतर कराई जाए।

11 गलत जानकारी देने वाले प्रत्याशियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान किया जाना चाहिए। चुनाव से जुड़े सभी मामलों को आपराधिक मानते हुए कम से कम दो या उससे अधिक सजा का प्रावधान हो

12 चुनाव में धन-बल के जरिये मतदाताओं को प्रभावित करने वाले मामलों, आइपीसी सेक्शन 171 बी और 171 सी के तहत निर्वाचन संबंधी अपराधों, 171जी के तहत झूठी सूचनाएं प्रकाशित करा चुनाव परिणाम प्रभावित करने संबंधी कोशिशों और गलत खर्च करके जीतने की संभावना बनाने की कोशिशों (171 एच) को आपराधिक कृत्य घोषित कर देना चाहिए। इन धाराओं के अंतर्गत दो या उससे अधिक वर्षों की सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए


13 चुनावी या राजनीतिक लाभ के लिए धर्म, जाति, समुदाय, जनजाति या किसी अन्य समूह पहचान के इस्तेमाल की अनुमति नहीं देनी चाहिए। जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन के जरिये निर्वाचन आयोग को अधिकार दिया जाना चाहिए कि वे ऐसे प्रत्याशियों और दलों के खिलाफ कार्रवाई कर सकें। उनमें प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित करने का प्रावधान होना चाहिए। ऐसे राजनीतिक दलों की मान्यता भी समाप्त करने का विधान होना चाहिए।

14 राजनीतिक दलों की मान्यता खत्म करने का अधिकार निर्वाचन आयोग को दिया जाना चाहिए

विभिन्न राजनीतिक दलों के 4807 वर्तमान सांसदों और विधायकों के शपथपत्रों का विश्लेषण एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच द्वारा किया गया। इनमें से 1460 (30%) लोगों ने खुद पर आपराधिक मामले होने की बात को स्वीकार किया है। 688 (14%) सांसदों और विधायकों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

……………

विश्वसनीयता का संकट

डॉ सुधांशु त्रिवेदी

(भाजपा के प्रवक्ता और थिंकटैंक)

इस समय पूरी की पूरी राजनीतिक बिरादरी संदेह के घेरे में खड़ी हो चुकी है। इस संकट के कारण ही लोकतंत्र के जो विभिन्न आयाम हैं, उनमें परस्पर हस्तक्षेप शुरू हुआ है। राजनीति को पाक-साफ करने की दिशा में राजनीतिक जमात के बजाय सुप्रीम कोर्ट या दूसरी संवैधानिक संस्थाओं के आगे आने के पीछे चार प्रमुख कारक हैं।


पहला कारण

जो लोग ज्यादातर समय सत्ता में रहे, उनकी संवेदनशीलता में कमी और उनमें निर्लज्जता की हद तक जाने वाला हठ पैदा हो गया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हालिया हुए घोटाले हैं। 2जी हो या सीडब्ल्यूजी। इन घोटालों पर सरकार ने विपक्ष को अनसुना किया। मीडिया को भी नजरअंदाज किया। आखिरकार न्यायिक हस्तक्षेप के बाद सरकार कार्रवाई को मजबूर हुई। इससे संदेश गया कि सत्तातंत्र या राजनीतिज्ञ बिना किसी बाध्यता के अपने को दुरुस्त करने को तैयार नहीं हैं। यहां तक कि घोटालों को दिखाने वाली संवैधानिक संस्था सीएजी पर सवाल उठाए गए। सीएजी ही नहीं सीवीसी को भी कमजोर करने के प्रयास किए गए। कुल मिलाकर लोकतंत्र के संतुलन को खत्म करने में सत्ताधारी जमात ने कोई कसर नहीं छोड़ी। इससे पूरे देश में क्षोभ उठा और कोई भी जीवंत लोकतंत्र यह सब होते नहीं देख सकता था, जिसका नतीजा है कि समाज व संवैधानिक संस्थाएं खुद आगे आईं।


दूसरा कारण

योजनाबद्ध तरीके से सत्ताधारी दलों ने शासन तंत्र का अपने पक्ष में राजनीतिक हित के लिए उपयोग करने का प्रयास किया। शुरुआत तो कांग्रेस ने की, लेकिन फिर मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और मायावती समेत अन्य क्षेत्रीय दलों ने इस परंपरा को शिखर पर पहुंचा दिया। इससे शासनतंत्र की न्यायप्रियता के प्रति विश्वास कम हुआ। इसी डिगे विश्वास के चलते न्याय पाने के लिए लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत दूसरे विकल्प देखने लगे। इस कड़़ी में मीडिया और न्यायपालिका की तरफ लोग मुड़े। सूचना क्रांति के इस दौर में मीडिया ने जहां आवाज बुलंद की, वहीं न्यायपालिका ने सक्रियतापूर्वक या स्वत:स्फूर्त न्याय स्थापित करने का प्रयास किया।


तीसरा कारण

खुद राजनीतिक दल भी अपनी जिम्मेदारी से भागे। कुछ एक ऐसे निर्णय हैं, जो विशुद्ध राजनीतिक हैं। मगर राजनीतिक दलों ने आम राजनीतिक मुद्दों पर भी उत्तरदायित्व से बचने के प्रयास में कुछ फैसले लेने की हिम्मत नहीं दिखाई। सरकार ने खुद ही राजनीतिक दलों को जो पहल करनी थी, उसे करने का काम न्यायपालिका के हाथ में दिया। राजनीतिक दलों में इस साहस की कमी ही थी कि लोकतंत्र की दूसरी संस्थाओं को फैसले लेने पड़े। देखते-देखते ऐसी स्थिति बन गई कि दल जिन्हें नीति-निर्धारक होना चाहिए था, वह खुद ही राजनीतिक मुद्दों पर रुख न तय कर पाने के चलते दूसरी संस्थाओं पर निर्भर हो गए।


चौथा कारण

राजनीति में गिरावट का एक कारण यह भी हुआ कि मल्टीलेयर सोसाइटी में मल्टी लेयर राजनीति का जन्म हुआ। नए राजनीतिक दलों ने अपनी जगह बनाने के लिए राजनीतिक मर्यादा को क्रमश: नीचे किया। कांग्रेस ने जातिवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति शुरू की। मुलायम और मायावती ने नया मुकाम बना दिया। क्षेत्रीय दलों में मर्यादा को जमींदोज करने की होड़ सी लग गई। जब मर्यादा टूटती है तो फिर छवि और अधिकार सब बेमानी हो जाते हैं। दुर्भाग्य से क्षुद्र स्वार्थों में जो राजनीतिक जमात ने किया, उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे तो जनता का विश्वास नीचे गया।


6 अक्टूबर  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘निर्णायक जीत-हार का है अभी इंतजार’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


6 अक्टूबर  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘शुद्धीकरण का शुभारंभ !‘ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

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