Menu
blogid : 4582 postid : 616556

साम दाम दंड और भेद से काम लें

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments

साम दाम दंड और भेद से काम लें

प्रवीण साहनी

(फोर्स न्यूज मैगजीन के संपादक हैं)

दोनों प्रधानमंत्रियों की होने वाली मुलाकात से आतंकवादियों और उनके आका आइएसआइ को स्पष्ट संदेश दिया गया है कि वे भारत के प्रति नीति का संचालन नहीं करेंगे। दूसरा संदेश शरीफ के लिए है कि उनके रुख को भारत समझता है लेकिन द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने के लिए उनकी तरफ से काफी कुछ किए जाने की जरूरत है।


लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेता के रूप में शरीफ को अपने देश के बहुसंख्यक लोगों का समर्थन हासिल है। उनमें से अधिकांश भारत के साथ व्यक्ति से व्यक्ति संपर्क के समर्थक हैं। इसको प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है। अगला मुद्दा द्विपक्षीय व्यापार का है। इस बात की संभावना है कि नवाज शरीफ सरकार पड़ोसियों के बीच मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने की दिशा में काम करे। मनमोहन सिंह से मुलाकात के बाद उन पर दबाव होगा कि भारत के प्रति सुरक्षा की नीति पर वह अपनी सेना से कुछ नियंत्रण हासिल कर लें।


पाकिस्तानी सेना के समर्थन से नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर हुई आतंकी घटनाओं को बेहद गंभीरता से लेने की जरूरत है। एलओसी पर दुश्मन पर हमला करने का स्पष्ट निर्देश देना चाहिए। सेना का मतलब दुश्मन की जमीन पर लड़ने से है। संघर्ष विराम समझौते के तहत 2004 में एलओसी पर जो बाड़ बनाई गई थी उसको गिरा देना चाहिए। दूसरी तरफ इस बाड़ की मरम्मत में हर साल करीब 150 करोड़ रुपये का खर्च आता है। सर्दी के महीने में बर्फबारी के चलते ये टूट जाती हैं। इससे सुरक्षा का मिथ्या भाव उत्पन्न होता है जिसके चलते सेनाओं का सुरक्षात्मक रुख बनता है। इसी कारण हाल में हुई आतंकी घटनाएं सफल रहीं।


भारतीय सेना एलओसी पर पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में योग्य और सक्षम है। यह एक तरह से आइएसआइ को उसी की भाषा में जवाब देने जैसा है। वैसे भी एलओसी ऐसी मिलिट्री रेखा है जहां दोनों सेनाओं को आश्चर्यपूर्ण घटनाओं के तैयार रहना चाहिए।

बातचीत से न जाए कमजोरी का संदेश

केसी सिंह

(पूर्व राजनयिक)

संबंध बहाली के लिए बातचीत आवश्यक है। साथ ही भारत को यह संदेश भी देना चाहिए कि उसे अपनी सीमाओं की हिफाजत करना भी आता है। पाकिस्तान से आए आतंकियों द्वारा भारतीय जमीन पर कोहराम मचाने वाली पूर्व की घटनाओं की भांति इस बार भी यह सवाल खड़ा होने लगा कि क्या ऐसी स्थिति में पड़ोसी से बातचीत की जानी चाहिए या नहीं। संप्रग सरकार की प्रमुख राजनीतिक पार्टी कांग्र्रेस पूर्व की राजग सरकार पर जोरशोर से यह आरोप लगाती रही है कि उनके कार्यकाल में जब भी कोई आतंकी घटना होती थी तो वे बातचीत रोक देते थे। ऐसा करके वे आतंकवादियों की कठपुतली बन गए थे। भारत-पाकिस्तान के संबंधों को आतंकियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया था। 2006 में जब मुंबई में ट्रेनों को निशाना बनाया गया और 26/11 की घटना हुई, तब कांग्र्रेस को सत्ता में आने पर पहली बार महसूस हुआ कि देश की जनभावना किसी सरकार को ऐसे मामलों के बाद पड़ोसी से बातचीत की अनुमति नहीं देती है जिसमें पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद सामने आता हो।


जून में नवाज शरीफ के सत्ता में आने के बाद भारत के साथ संबंधों की बहाली को लेकर उनके बयानों में चिंता देखी गई। लिहाजा मनमोहन सिंह जैसी सोच रखने वालों के लिए उम्मीद की किरण फिर से नजर आई। इधर मनमोहन सिंह का कार्यकाल भी खात्मे की ओर अग्र्रसर था लिहाजा ऐसी सोच वालों को लगा कि क्यों न भारत-पाकिस्तान संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए एक आखिरी प्रयास और किया जाए। इस सोच के चलते जल्दी ही आशा की गई कि पीएम नवाज शरीफ भारत को सबसे वरीय देश का दर्जा देंगे लेकिन पाकिस्तान ने तमाम नुक्ताचीनी द्वारा उस दर्जे से महरूम रखा।


बहरहाल शरीफ सबसे पहले पाकिस्तान विरोधी तहरीक-ए-तालिबान को खत्म करें। इस दौरान पंजाब के अन्य आतंकी संगठनों को उन्हें पुचकारते रहना होगा। अगले दो महीनों के दौरान उन्हें नए सेनाध्यक्ष की भी तलाश करनी है उसके बाद सेना से उनका एक स्वस्थ संबंध बरकरार हो सकेगा। भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले उन सभी संगठनों से वह इस तरह से खेलते रह सकते हैं और इस दौरान भारत से उनकी बातचीत चलती रहे।


इसलिए यह आवश्यक है कि दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की न्यूयॉर्क में बातचीत हो। पाकिस्तान के  तुष्टीकरण के प्रति मनमोहन सिंह की झुकने की प्रवृत्ति में कमी लाए जाने की आवश्यकता है। विपक्ष में नरेंद्र मोदी की दावेदारी के बीच उनकी पार्टी एक और शर्म-अल-शेख जैसी चूक सहने में सक्षम नहीं है। मनमोहन सिंह द्वारा यह संदेश दिया जाना चाहिए कि भारत भले ही मित्रता के लिए तैयार है लेकिन वह अपनी सुरक्षा करना भी जानता है। सीधे खड़े होने का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि आप कम शांतिप्रिय हैं जैसाकि कहा जाता है कि महान राष्ट्र प्यार के भूखे नहीं होते, वे सम्मान चाहते हैं।


29 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘पड़ोसी की फितरत, हमारी हसरत‘ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


29 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘डायलॉग के साथ डंडा भी चलाने की जरूरत’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh