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डायलॉग के साथ डंडा भी चलाने की जरूरत
–भरत वर्मा
(संपादक, इंडियन डिफेंस रिव्यू)
अब तक हम अपने पड़ोसियों से डॉयलाग करते रहे हैं। नतीजतन हमारी सुरक्षा में बार-बार सेंध लगती रही है। डॉयलाग के साथ डंडा चलाए जाने की बहुत आवश्यकता है। नवाज शरीफ जब से सत्ता में आए हैं, सीमापार से युद्ध विराम उल्लंघन की घटनाएं बढ़ी हैं। ऐसे में हाल में जम्मू कश्मीर के कठुआ और सांबा में हुए घटनाक्रम को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। इसकी पहली तस्वीर यह है कि हिंदू बाहुल्य क्षेत्र वाले जम्मू में अधिसंख्यकों को खदेड़ने का सिलसिला शुरू हो चुका है। योजनाबद्ध तरीके से जम्मू संभाग को घाटी की तरह बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। यानी कश्मीर घाटी में आज जो जनसांख्यिकीय स्थिति है, कुछ वैसे ही हालात जम्मू के अंदर भी बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
आतंकी हमले की एक तस्वीर यह भी दिखती है कि आतंकी इस कोशिश में हैं कि भारतीय सेना को दबाव में लाया जाए। इसके लिए जम्मू में आतंकी वारदातों को बढ़ाकर सेना को वहां भी लगाने की मंशा दिखती है। तीसरी बात अगर हम देखें तो कठुआ पंजाब से सटा हुआ है। वहां से घुसपैठ में होने वाली वृद्धि कहीं न कहीं खालिस्तान मूवमेंट के लिहाज से भी चिंताजनक हैं। इससे कहीं न कहीं उसे ऑक्सीजन मिल सकती है। चौथी चीज जो सामने आ रही है कि अगर पंजाब के अंदर आतंकवाद को फिर से पनपाने में आइएसआइ सफल हो जाती है तो दिल्ली को सीधे खतरा पैदा हो सकता है।
इस बड़ी तस्वीर को भारत के प्रधानमंत्री अनदेखा कर रहे हैं। उनके मन में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के चलते हुई जवानों की शहादत को लेकर कोई श्रद्धा का भाव नहीं दिखता है। वे अमेरिका गए हैं और नवाज शरीफ से बातचीत को लेकर उतावले हैं। यह बात और है कि इस बातचीत का कोई नतीजा निकलने वाला नहीं है। न शरीफ ही इस स्थिति में हैं कि अपने नाम को सार्थक करते हुए कोई आचरण कर सके और न ही मनमोहन सिंह ही किसी गर्जना की स्थिति में दिखते हैं। जवानों की शहादत को अनदेखा करना अच्छा संकेत नहीं है। इससे आने वाले दिनों में सेना को लेकर लोगों के अंदर गलत धारणा पैदा हो सकती है। हमारे प्रधानमंत्री पड़ोसी देशों से डॉयलाग पर ज्यादा जोर देते रहे हैं। जिसके नतीजे में बार-बार देश की सुरक्षा में सेंध लगती रही है। जब अगली सरकार का नया प्रधानमंत्री आएगा उसे मनमोहन की नीतियों का भारी मुआवजा चुकाना पड़ेगा। डॉयलाग के साथ डंडा चलना बहुत जरूरी है। हमारी विदेश नीति में केवल डॉयलाग चलता है। सुरक्षा को लेकर हमारी जितनी कमजोरियां हैं वह सब हमारे खुद के कारण से हैं। डॉयलाग के नाम पर हमने अपने पैरों में खुद कुल्हाड़ी मारी है।
देश की भावनाओं और जवानों की शहादत को ध्यान में रखते हुए अब डंडा चलाने की जरूरत है। जब पाकिस्तान को दर्द महसूस होगा तो वह अपने आप बातचीत की मेज पर आकर बैठेगा। उस समय हमें देखना होगा कि हम बात करना चाहते हैं या नहीं चाहते।
मिलते ही रहेंगे घाव
–यशवंत सिन्हा
(पूर्व विदेश मंत्री)
पाकिस्तान से सख्ती और संकल्प से पेश आने की जरूरत है। इसके लिए बातचीत व युद्ध के बीच कूटनीति के लिए बहुत बड़ा स्थान खुला है।
पाकिस्तान के साथ कैसे पेश आएं? यह सवाल बीते 66 साल से भारत के नीति-नियंताओं को परेशान करता रहा है। पड़ोसी मुल्क के साथ कई युद्ध लड़ने और बातचीत की दर्जनों कोशिशों के बावजूद न तो पाकिस्तान की नीतियों में कोई बदलाव आया है और न ही उसे लेकर हमारी नीतिगत उलझन बदली। पाक के साथ अच्छे रिश्तों की वकालत में अक्सर यह दलीलें देते हैं कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते और ऐसे में अच्छे संबंधों के लिए जरूरी है कि हम बातचीत करते रहें। ऐसा लगता है कि पाक से हर हाल में बात करना हमारी मजबूरी है। नतीजा हमारे पीठ पर छुरा बार-बार घोंपा जाता रहा है। हर घाव खाकर भी हम हर बार बातचीत की मेज पर पहुंच जाते हैं और जख्म देने के बावजूद वह बात और घात की दोहरी नीति पर बदस्तूर चल रहा है।
जब तक हम बातचीत को मजबूरी पेश करते रहेंगे, पाकिस्तान से मिलने वाले घाव बढ़ते रहेंगे। हर हाल में बातचीत की उतावली के फेर में ही संप्रग सरकार ने बीते नौ साल में पाकिस्तान को लेकर नीतियों में भ्रम को बढ़ाया ही है। पाकिस्तान को 2005 में हवाना में आतंकवाद का बराबरी का शिकार बताने से लेकर शर्म-अल-शेख में बलूचिस्तान पर पाकिस्तान के बेबुनियाद आरोपों को स्वीकारने तक कई कूटनीतिक भूलें कर हमने अपनी स्थिति को पहले ही कमजोर कर लिया। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी जब संप्रग सरकार के कार्यकाल में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ पहली बार भारत आए थे और मनमोहन सरकार ने उनके आग्रह पर जनवरी 2004 के उस संयुक्त बयान को नजरअंदाज कर दिया जिसमें पाक ने भारत के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल न होने देने की बात कही थी। नतीजतन मुंबई में 26/11 के आतंकवादी हमले और उसके बाद के घटनाक्रम को पूरी दुनिया ने देखा।
इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान ने बीते 25 सालों से जारी आतंकवाद प्रायोजन की नीति में इन्कार को अपनी ढाल बनाया है। किसी भी घटना में पाकिस्तान सबसे पहले अपनी भूमिका से इन्कार करता है। जब सबूतों को सामने रखा जाए तो इसकी तोहमत नॉन स्टेट एक्टर्स या गैर-सरकार व अनियंत्रित तत्वों पर डाल देता है जो काफी सुविधा से गढ़ा गया जुमला है। दबाव बनाने पर खुद को भी आतंकवाद का शिकार बताने लगता है। हर बार वो मामले के अंतरराष्ट्रीयकरण की कोशिश करते हैं और जब आमने-सामने की मेज पर बात होती है तो बीती घटनाओं को भुला कर आगे बढ़ने की दुहाई देते हैं। यही ढर्रा बरसों से चला आ रहा है और जब तक पाक सेना की भारत से दुश्मनी के सहारे ताकत बटोरने के सिद्धांत पर चलती रहेगी, यह क्रम भी चलता रहेगा। हमने भी राजग सरकार के कार्यकाल में पिछली सरकारों के अनुभव से नसीहत ली और जरूरी है कि संप्रग सरकार हमारे अनुभवों से सीखे ताकि देश को हर बार आतंकवाद, धोखे के जख्म खाने के बावजूद बातचीत की मेज पर लौटने की पीड़ा न झेलनी पड़े।
यहां समझना जरूरी है कि बातचीत न करने का मतलब युद्ध ही नहीं है। साथ ही यह हौवा भी बेमानी है कि अगर युद्ध हुआ तो परमाणु टकराव होगा। युद्ध और वार्ता के बीच में कूटनीतिक व सैन्य प्रयासों का काफी बड़ा स्थान खाली है जहां भारत अपने को खड़ा कर सकता है। हम पाक से तब तक बात न करें जब तक पाकिस्तान में सत्ता की डोर पर से सेना का नियंत्रण समाप्त नहीं हो जाता। जरा सोचिए, आखिर हमारा ऐसा क्या नुकसान हो गया जब हमने बात नहीं की। जहां तक आतंकवाद का सवाल है तो इसका जवाब है अपनी सीमाओं की हिफाजत। पाक आतंकी शिविरों में उग रही आतंकवादियों की फसल के सीमा-पार करने की दरारें बंद करने के लिए हर संभव कोशिश होनी चाहिए चाहे वो जिस कीमत पर हो। इसके अलावा जो आतंकवादी भीतर घुस आए हैं उनके खिलाफ सख्ती से कार्रवाई हो। साथ ही सीमा पर किसी भी दुस्साहस का माकूल जवाब दिया जाए।
(विशेष संवाददाता प्रणय उपाध्याय से बातचीत पर आधारित)
29 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘पड़ोसी की फितरत, हमारी हसरत‘ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.
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