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Devaluation of Indian Rupee: टूट गया भ्रम, थम गए कदम

मुद्दा
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हाथी

भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रतीक। 1991 में आर्थिक सुधारों के श्रीगणेश के समय अर्थवेत्ताओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था का यही नामकरण किया था। जिस तरह से हाथी मस्ती के साथ सुस्त चाल से चलता है लेकिन जहां से गुजरता है लोगों को उठकर बैठने और उनको आकर्षित होने पर विवश कर देता है। साल दर साल हाथी की सुस्ती दूर होती गई। दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बनने के साथ ही इसे भविष्य की महाशक्ति कहा जाने लगा।


हाथ

इस तेजी का दौर करीब एक दशक पहले तक चला। सत्ता बदली नई सरकार आई। इस सरकार के पास आर्थिक विशेषज्ञों की भारी भरकम टीम है, लेकिन शायद इसे लगा कि अर्थव्यवस्था की ये कुलांचे स्वत:स्फूर्त हैं। खामियों को दुरुस्त करने की बजाय सरकार ने इकोनॉमी को ऑटोपायलट मोड पर छोड़ दिया। अपने दोनों हाथों का इस्तेमाल उसने तथाकथित सामाजिक कल्याण पर दिल खोलकर धन लुटाने में किया। बहुरे हुए दिन को बिगड़ने में देर नहीं लगी। अर्थव्यवस्था की विकास दर ऐतिहासिक रूप से सबसे कम हो चुकी है। सभी क्षेत्रों में निराशा और भरोसे का अभाव तारी हो चुका है। डॉलर के मुकाबले रुपया पांच महीने के दौरान बीस फीसद कमजोर हो चुका है। आयात की बड़ी हिस्सेदारी वाली अर्थव्यवस्था में इसका खामियाजा हर चीज में महंगाई के पलीते के रूप में आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है।


साथी

हर एक देश का इतिहास आर्थिक, सामाजिक चुनौतियों और झंझावातों से दो-चार होता आया है। ऐसे समय में ही नेतृत्व की परीक्षा होती है। अपनी दृढ़ सकारात्मक सोच और कर्म से देश को किसी भी संकट से उबारने की उसमें कूवत होनी चाहिए। आर्थिक पक्षों से मजबूत भारतीय नेतृत्व के लिए यह सोने पर सुहागा जैसी बात दिखती है, लेकिन हमारे नेतृत्व में मनसा, वाचा और कर्मणां ऐसी कोई पहल नहीं दिखती जिससे लोग उनमें भरोसा कायम रख सकें। कभी सोना गिरवी रखने की बात करते हैं तो कभी रात में पेट्रोल पंप बंद करने का शिगूफा उछाला जाता है। हैरान परेशान जनता शायद अपने चयन पर खुद को गुनहगार ठहराती होगी? ऐसे में अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर द्वारा आम आदमी की वर्तमान मुश्किलों और भविष्य की चुनौतियों की पड़ताल करना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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कठिन फैसलों की दरकार

डॉ ए दीदार सिंह

(महासचिव, फिक्की)

अर्थव्यवस्था पहले से ही कठिन दौर में गुजर रही है और रुपये के स्तर में तेज अवमूल्यन ने चिंता को बढ़ाया ही है।


मुद्रा बाजार में हालिया बदलाव संस्थागत प्रकृति का है। इसके अप्रत्याशित व्यवहार से असर पड़ा है। शेयर बाजार की नकारात्मक प्रतिक्रिया रही है। वैश्विक रेटिंग एजेंसियों ने नीति नियंताओं को चेताया है कि इसके प्रभाव के चलते चालू खाते और वित्तीय दशाओं पर असर पड़ सकता है। तेल एवं गैस, ऑटोमोबाइल, विमानन, उपभोक्ता सामान और एफएमसीजी जैसे क्षेत्रों की इनपुट लागत बढ़ गई है। औद्योगिक क्षेत्र पहले से ही वृद्धि के लिए संघर्ष कर रहा है। ऐसे में इस तरह के झटके अनिश्चितता को बढ़ाते ही है। इसके अलावा मुद्रा की अस्थिरता से कंपनियों के सेवा ऋण की लागत में बढ़ोतरी होती है। हालांकि टेक्सटाइल और गारमेंट, ड्रग्स एवं फार्मास्यूटिकल, चमड़ा उत्पाद, खाद्य एवं एग्रो उत्पाद जैसे क्षेत्रों को रुपये के स्तर के अवमूल्यन से लाभ मिला है। लेकिन, वास्तव में बड़ा मसला यह है कि हमारा निर्यात वैश्विक वृद्धि से प्रेरित है और इस मामले में अभी हम बहुत निचले पायदान पर खड़े हैं। बाहरी मोर्चे पर चालू खाते का घाटा स्थायी चिंता का विषय बना हुआ है और रुपये की गिरावट ने इस चिंता में इजाफा ही किया है। सीरिया में तनाव के चलते तेल की कीमतों ने भी दबाव बढ़ाया है। इस साल घाटे को 70 अरब डॉलर तक लाने का लक्ष्य हाल में रखा गया था। इन परिस्थितियों में इसको पाना एक बड़ी चुनौती है। रुपये की अस्थिरता को बरकरार रखने के लिए पिछले दिनों सरकार ने कई उपायों की घोषणा की है। ये सशंकित बाजार को शांत करने के उद्देश्य से प्रेरित थे। वास्तव में हमको दीर्घकालिक दृष्टिकोण रखते हुए सुधारों पर जोर देना चाहिए। इससे घरेलू उद्योग में प्रतिस्पर्धा के माहौल में बढ़ोतरी होगी जो आयात एवं निर्यात के बीच सामंजस्य स्थापित करने में मददगार होगा। मजबूत आधारशिला का निर्माण स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण है।


हमको तेल पर निर्भरता को कम करने के लिए गंभीरता से काम करने की जरूरत है। इसके साथ ही कोयला, पूंजीगत वस्तुएं और इलेक्ट्रॉनिक्स के आयात को कम करने की जरूरत है। निर्यात के मोर्चे पर भारत को नवाचार और शोध एवं विकास (आर एंड डी) की आधारशिला पर पुन: अपनी प्रतिस्पर्धी साख स्थापित करनी होगी।


वर्तमान परिस्थितियों में आरबीआइ और सरकार दोनों को एक साथ मिलकर काम करना होगा। हमारा ध्यान आर्थिक वृद्धि के माहौल को बनाने, निवेशकों को प्रोत्साहित करने और भारत की वृद्धि प्रक्रिया में विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी के लिए उनके लिए अवसरों के सृजन पर होना चाहिए। सब्सिडी घटाकर, जीएसटी क्रियान्वयन, नियामक माहौल को सुधार कर और जमीनी स्तर पर प्रक्रियागत सुधारों की दिशा में काम कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। वास्तव में इन्हीं के पास रुपये के स्तर को संरक्षित कर भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य की चाबी है।


चुनौती भरा भविष्य

† उम्मीद से कम विकास दर

† कृषि, सेवा क्षेत्र पर उम्मीदें

† गिरते रुपये, महंगाई से बढ़ेंगी मुश्किलें

† खजाने का दबाव विकास दर को और कर सकता है धीमा

† हालात में बदलाव नहीं होने पर रेटिंग घटने का खतरा


क्या है विनिमय दर

† दूसरी अन्य किसी कमोडिटी की तरह विनिमय दर या किसी भी मुद्रा का मूल्य मांग और आपूर्ति के सिद्धांत द्वारा तय होता है।  मुद्रा की मांग बढ़ने पर इसकी कीमत बढ़ती है और मांग घटने पर कीमत घटती है। एक डॉलर के मुकाबले 65 रुपये की विनिमय दर का सीधा सा मतलब है कि एक डॉलर की कीमत 65 रुपये के बराबर है।


मुद्रा अवमूल्यन

किसी भी मुद्रा के ह्रास या अवमूल्यन का मतलब दूसरी मुद्रा की तुलना में उसकी कीमत का गिरना है।


मनोवैज्ञानिक अड़चनें और सट्टा

† विनिमय दर रुपये के एक अनुमानित मूल्य को आधार मानकर (मसलन 60 या 65 रुपये) तय कर दिया जाता है। जबकि मुद्रा की कीमत रोज अंतरराष्ट्रीय बाजार की हलचल के आधार पर घटती-बढ़ती रहती है। कई बार रुपये की कीमत इस सीमा के पार चली जाती है। ऐसे में घाटा होता है और बाजार का सही आकलन नहीं हो पाने के कारण मुद्रा की कीमत पर भी नियंत्रण नहीं रहता।अर्थशास्त्र की मुख्यधारा के सिद्धांत सट्टे को हतोत्साहित करते हैं।


8 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘जख्मों पर लगेगा नमक’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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