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कार्यक्रम
मिड-डे मील स्कीम। स्कूलों में छात्रों को दोपहर का भोजन सुनिश्चित कराने हेतु दूरगामी सोच वाली एक व्यापक योजना। दुनिया का सबसे बड़ा भोजन कार्यक्रम। 11 करोड़ बच्चों को रोजाना प्राथमिक कक्षाओं में भोजन उपलब्ध कराकर विकासशील देश के भविष्य को पोषित और शिक्षित करने का मंसूबा।
कालिख
पाठशाला में पाकशाला की व्यवस्था हमारे देश में बहुत पुरानी है। पारंपरिक गुरुकुलों में विद्यार्थियों के लिए भिक्षाटन का विधान अनिवार्य था। प्राचीन व्यवस्था में विद्यार्थियों को दिए जाने वाले भोजन में प्रेम और स्नेह की मिसरी घुली होती थी। गुरुमाता छात्रों को अपने बच्चों की तरह खाना बनाकर खिलाती थीं। कहीं भी किसी प्रकार की शिकायत नहीं आती थी। आज की मिड डे मील में दिए जा रहे भोजन में कंकड़, विषाक्त रसायन, जहरीले जीव, ईष्र्या, लालच, लोभ आदि की मिलावट आम हो चली है। सरकारी तंत्र असफल रहा है। एक बढ़िया योजना अदूरदर्शी क्रियान्वयन के चलते दम तोड़ती नजर आ रही है। बिहार में मिड डे मील का भोजन खाकर करीब दो दर्जन बच्चों के काल कवलित होने की घटना इस योजना पर लगने वाला एक और धब्बा है।
क्रियान्वयन
यह योजना अब तक की सर्वश्रेष्ठ सरकारी पहल साबित हो सकती थी अगर इसके क्रियान्वयन और खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता पर ध्यान दिया गया होता। ऐसा न कर पाने की स्थिति में दस साल से लागू इस योजना की शुरुआत से ही खाना खाकर बच्चों के बीमार होने के वाकए सामने आ रहे हैं। ऐसी घटनाएं इस बेहतर योजना के मंतव्य और मकसद पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं। लिहाजा अपने नौनिहालों को पढ़ाई के साथ-साथ स्कूलों में पोषक तत्वों से भरपूर गुणवत्तापरक भोजन मुहैया कराने के रास्ते की सभी अनियमितताओं को दूर करना आज हम सभी के लिए बड़ा मुद्दा है।
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घटना से सीखने की जरूरत
–हर्ष मंदर
(सामाजिक कार्यकर्ता और मिड डे मील की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त स्पेशल कमिश्नर)
कार्यक्रम को साधन संपन्न कर, क्रियान्वयन और निगरानी तंत्र को अधिक लोकतांत्रिक करके मजबूत बनाने की जरूरत है। कई कारणों से बिहार में हुआ दुखद हादसा कहीं न कहीं घटित होने वाला ही था। यह हादसा महज जूनियर अधिकारियों की लापरवाही भर नहीं है बल्कि उससे भी कुछ अधिक है। यह इस बात का परिणाम है कि हमारे देश के गरीबों यहां तक कि बच्चों के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों का संगठन, संसाधन और निगरानी बेहद खस्ताहाल है।
अभी इस घटना की पूरी तरह से तहकीकात होना बाकी है। लेकिन अभी जो सामने आ रहा है वह यह कि संबंधित प्राथमिक स्कूल के पास अपनी बिल्डिंग नहीं थी। वह स्थानीय सरकारी भवन में चलाया जा रहा था। वहां कोई स्टोर नहीं था लिहाजा बड़े पैमाने पर राशन को खरीदने और सुरक्षित रखने का कोई इंतजाम नहीं था। बच्चों की पांच क्लास को पढ़ाने के लिए केवल दो शिक्षक ही थे। एक छुट्टी पर था और दूसरा कम वेतन पाने वाला अकुशल अद्र्ध-शिक्षक था। वह रोज एक स्थानीय स्टोर से बच्चों बच्चों के खाने के लिए सामान खरीदती थी। जिस कंटेनर में खाना पकाने वाला तेल था वह पहले कीटनाशकों के लिए इस्तेमाल हो चुका था। यद्यपि यह संभव है कि यह जानकारी पूरी तरह से सही नहीं हो लेकिन केवल इस वजह से इसे खारिज नहीं किया जा सकता।
इन सबमें एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पूरे देश में स्कूली भोजन पर समग्र रूप से कम खर्च किया जा रहा है। हाल के वर्षों में खाद्य और ईंधन मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी होने के बावजूद भोजन पकाने की लागत के लिए आवंटन में बढ़ोतरी नहीं की गई। कई स्कूलों में बुनियादी ढांचे मसलन खाना पकाना और भंडारण, बर्तन, साफ-सुथरा स्थल और उपयुक्त पेयजल के लिए निवेश नहीं किया गया है। खाना पकाने वाले स्टाफ को ज्यादा पैसे नहीं मिलते। इस तरह के फैले कार्यक्रम की विकेंद्रीकृत तरीके से ही प्रभावी निगरानी की जा सकती है। सोशल ऑडिट के तंत्र की जरूरत है जिसमें बच्चों, अभिभावक कमेटियों की नियमित निगरानी, स्कूल मैनेजमेंट कमेटी और स्थानीय पंचायत को प्रभावी तरीके से शामिल किए जाने की जरूरत है।
इसके लिए यद्यपि अतिरिक्त सार्वजनिक धन के साथ राजनीतिक प्राथमिकता, प्रशासनिक इच्छाशक्ति और जवाबदेही की जरूरत भी होगी। लिहाजा हमको इसके लिए वित्तीय स्रोत बढ़ाने और इच्छाशक्ति के लिए जोर-शोर से आवाज उठानी होगी क्योंकि हमारे बच्चों के स्वास्थ्य और उनके भविष्य से ज्यादा सार्वजनिक निवेश और ध्यान की जरूरत कहां हो सकती है?
इस दुखद घटना के बावजूद स्कूली मील की खूबियों को नहीं भूलना चाहिए। खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के बाद सरकार द्वारा फंड दिए जाने वाले स्कूलों में यह सभी बच्चों का कानूनी अधिकार बन गया है। अध्ययन बताते हैं कि कई गरीब बच्चों को पूरे दिन में बेहतर खाना यहीं मिलता है। इससे नामांकन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। गरीब परिवार बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू पर यद्यपि अभी गौर नहीं किया गया है लेकिन वह है इस योजना के माध्यम से बच्चों में जाने वाला सामाजिक समानता का संदेश। विभिन्न पृष्ठभूमि के बच्चे आपस में एक साथ भोजन करते हैं और कई बार वंचित तबके की महिलाएं खाना पकाती हैं। एक ऐसे असमान समाज में जहां जाति, वर्ग और धार्मिक कारणों से लोग एक साथ बैठकर भोजन नहीं करते वहां समानता के इस सामाजिक पाठ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
कुल मिलाकर इस दुखद हादसे से विपरीत सबक लेने की जरूरत नहीं है। इस तरह के चिंता करने वाले विचार उठ रहे हैं कि गर्म स्थानीय भोजन की जगह पैकेज्ड खाने की आपूर्ति की जानी चाहिए या इस तरह की जिम्मेदारी प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) को दी जानी चाहिए। लेकिन ताजे, गर्म और विभिन्न संस्कृतियों के अनुसार पके भोजन से बेहतर बच्चों के पोषण के लिए और कोई भी तरीका नहीं हो सकता और न ही स्थानीय महिलाओं द्वारा निर्मित स्थानीय संस्थाओं की निगरानी और सोशल ऑडिट से प्रभावी कोई तरीका हो सकता है। विभिन्न सरकारी खाद्य कार्यक्रमों के प्रदर्शन की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त स्पेशल कमिश्नर के तौर पर मैंने पाया कि कई दिक्कतों के बावजूद पीडीएस, आइसीडीएस और मनरेगा जैसे सामाजिक कार्यक्रमों की तुलना में इसका क्रियान्वयन बेहतर तरीके से हो रहा है। लिहाजा इस कार्यक्रम को साधन संपन्न कर, क्रियान्वयन और निगरानी तंत्र को अधिक लोकतांत्रिक कर इसको शक्तिशाली बनाने की जरूरत है।
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