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कुदरत का खेल हमारा प्रबंधन फेल

मुद्दा
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आपदा

प्राकृतिक आपदाएं शाश्वत सत्य हैं। इंसानी सभ्यता की शुरुआत के साथ ही इनका भी इतिहास रहा है। ये तब भी कहर ढाती थीं और आज भी बरपा रही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले इनके कोप का शिकार जल्दी-जल्दी नहीं होना पड़ता था। उनमें एक लंबा अंतराल होता था। अब आए दिन प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका से इंसान को दो-चार होना पड़ रहा है। उत्तराखंड में आई आपदा की आफत इसी की एक बानगी है। कभी सोचा आपने! कुदरत का कहर इतना क्यों बढ़ गया है?


आफत

प्रकृति अपने आप में एक विज्ञान है। यह विशिष्ट रूप से खुद को सुव्यवस्थित और सुसंगठित रखती है। इसके सभी अवयव एक निश्चित अनुपात में रहते हैं। हाल में हम सबने लोभ के चलते प्रकृति में विकार पैदा कर दिया। इसके सभी अंगों के बीच तारतम्यता और संतुलन को गड़बड़ा दिया है। साल दर साल हम प्रकृति का विनाश करते आ रहे हैं। नदी के किनारे निर्माण कराकर उसके स्वच्छंद फैलाव को सिकोड़ दिया। वनों को उजाड़ दिया। आबोहवा को बिगाड़ दिया। ऐसा करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति की सत्ता सबसे ताकतवर है। उसकी लाठी में बहुत जान है। इसके प्यार की लाठी सहारा बन जाती है और क्रोध की लाठी जान ले लेती है। लिहाजा प्रकृति के नैसर्गिक रूप पुनर्धारण के रास्ते में जो कोई भी आता है, बह जाता है, भस्म हो जाता है और उड़ जाता है।


अफसोस

एक तो आपदाओं को रोका नहीं जा सकता है, दूसरे हमने प्रकृति का विनाश करके बिन बुलाए आफत मोल ले ली है। आपदाओं के आने की संख्या और तीव्रता दोनों बढ़ चुकी है। ऐसे में इनके प्रकोप को कम करने के लिए हमारे पास दुनिया का सबसे अच्छा आपदा प्रबंधन तंत्र होना अपरिहार्य है। पर अफसोस! ऐसा नहीं है। हमारे नीति नियंताओं ने आपदा प्रबंधन तंत्र को चुस्त दुरुस्त करना कभी वरीयता में ही नहीं शामिल किया। विपदा के समय यह तंत्र भी वैसे ही असहाय हो जाता है जैसे हम और आप। ऐसे में आपदा के समय जन-धन की हानि को कम करने के लिए एक सक्षम आपदा प्रबंधन तंत्र की अपेक्षा करना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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कुदरत का खेल हमारा प्रबंधन फेल


पिछले आठ साल में आपदा प्रबंधन की तैयारियां सवालों के घेरे में, खुद प्रधानमंत्री हैं संस्था के प्रमुख, आपदाओं के खतरे सीमित करने की सभी परियोजनाएं लटकीं उत्तराखंड में कुदरत के कहर ने आपदा से निपटने की देश की तैयारियों पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। सटीक पूर्वानुमान और आपदा के दौरान त्वरित  संचार ही जिंदगियां बचाते हैं लेकिन उत्तराखंड में हमारा आपदा प्रबंधन इन दोनों ही मोर्चों पर पूरी तरह विफल रहा है।


बात सिर्फ उत्तराखंड की नहीं है। देश में प्राकृतिक विपदा से निपटने की तैयारी से जुड़ी सभी प्रमुख संचार परियोजनाएं वर्षों से फाइलों में भटक रही हैं। नेशनल डाटाबेस फॉर इमरजेंसी मैनेजमेंट अभी तक शुरू नहीं हुआ है जो आपदा की सही सूचना देने के लिए अपरिहार्य है। उत्तराखंड में राहत व बचाव कार्य में संचार प्रणाली का ठप होना बड़ी बाधा साबित हो रही है। नेशनल डिजास्टर कम्युनिकेशन नेटवर्क बना होता तो ऐसी नौबत नहीं आती।


आपदा प्रबंधन में सरकार की भयानक सुस्ती ने देश की बहुत बड़ी आबादी की जिंदगी गहरे जोखिम में झोंक दी है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बने आठ साल बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक देश में भूकंप, बाढ़, चक्रवात, भूस्खलन के खतरे बताने वाला वैज्ञानिक नक्शा तक तैयार नहीं है। आपदा प्रबंधन कानून के बनने के सात साल बाद भी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना नहीं बनी है। आपदा की चेतावनी, प्रबंधन और संचार से जुड़ी दर्जनों बड़ी परियोजनाएं जहां की तहां खड़ी हैं या बीच में बंद हो गई हैं। आपदाओं का असर कम करने के लिए ज्यादातर कार्यक्रम भी शुरू नहीं हो सकेहैं। हैरानी की बात यह है कि यह सब तब हो रहा है जब आपदा प्रबंधन के मुखिया प्रधानमंत्री खुद हैं।


दो महीने पहले ही कैग ने अपनी ऑडिट रिपोर्ट में प्राकृतिक विपत्ति से निपटने की तैयारियों की पोल खोल दी थी। कैग ने साफ कर दिया था कि ऐसी स्थिति में आपदा आने पर भयंकर नुकसान को रोकना संभव नहीं होगा। अपनी रिपोर्ट में इस संस्था ने उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन की तैयारियों पर भी सवाल उठाया था। इसके अनुसार उत्तराखंड में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण सात साल पहले ही बन गया, लेकिन अभी तक उसकी एक भी बैठक तक नहीं हुई। जाहिर है उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा और उससे होने वाले नुकसान का न तो आकलन किया गया और न ही उससे निपटने की कोशिश शुरू हुई। प्रकृति के प्रकोप ने कैग की आशंकाओं को सही साबित कर दिया है। दरअसल राष्ट्रीय आपदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनडीएमए) शीर्ष संस्था है जो देश में आपदा के खतरों के वैज्ञानिक आकलन, नुकसान रोकने और आपदाओं के दौरान राहत व बचाव के लिए अधिकृत है। 2004 की सुनामी के बाद 2005 में संसद से राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून पारित हुआ था। इस कानून के तहत संचालन करने वाला एनडीएमए, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना बनाने का पहला काम भी पूरा नहीं कर पाया।


कई आपदाओं के बावजूद 2008 से आज तक राष्ट्रीय आपदा कार्यसमिति की बैठक तक नहीं हुई है। हालत यह है कि आपदाओं की संभावनाओं के आकलन को लेकर देश पूरी तरह अंधेरे में है। भूकंप, भूस्खलन, बाढ़, तूफान और सुनामी के खतरे कहां और कितने हैं, इनका कोई वैज्ञानिक नक्शा उपलब्ध नही है। पूर्वानुमान और आपदा के दौरान संचार का ढांचा खड़ा करने के लिए करीब सात परियोजनाएं 2003 से लेकर 2008 के बीच अलग-अलग मौके पर मंजूर की गईं। कैग की रिपोर्ट कहती है कि इसमें कोई भी परियोजना पूरी नहीं हो सकी है।


हालत यह है कि खुद प्रधानमंत्री कार्यालय व आवास में लगा सेटेलाइट केंद्र काम नहीं कर रहा है जो कि  आपदा प्रबंधन के लिए उपग्रह संचार नेटवर्क परियोजना का हिस्सा हैं। एनडीएमए को दो बड़ी संचार परियोजनाएं तैयार करनी थीं। नेशनल डिजास्टर कम्युनिकेशन नेटवर्क की तैयारी 2007 में शुरू हुई थी जो सामान्य संचार नेटवर्क ध्वस्त होने की स्थिति में सक्रिय किया जाता है। 943 करोड़ रुपये की यह परियोजना 20 माह में तैयार होनी थी लेकिन अभी तक प्रोजेक्ट रिपोर्ट बन रही है। दूसरी परियोजना उपग्रह आधारित संचार नेटवर्क की थी। जिसे दिसंबर 2005 में पूरा हो जाना था, लेकिन हालत यह है कि इसके तहत स्थापित कई सेटेलाइट केंद्र काम ही नही कर रहे हैं।


23 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘आपदा के बाद राहत की सोच से उबरना जरूरी‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


23 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘आपदा के लिए हम हैं जिम्मेदार’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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