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सृजन का संकल्‍प

मुद्दा
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प्रदेश

मैं उत्तराखंड हूं। मेरी आयु तेरह साल है। मैं उत्तर दिशा में हिमालय की गोद में बसा हूं। अपनी किशोरावस्था के पहले पायदान पर चढ़ने के साथ मैं अपने सभी भाई प्रदेशों से आयु और अनुभव में छोटा हूं। हमारी भारतीय संस्कृति रही है कि हम अपने छोटे भाइयों को खूब लाड़ प्यार करते हैं, लिहाजा अब तक हमें पूरे देश से यह हक मिलता आया है। देश के कोने-कोने से लोग हमारे यहां अपनी धर्म, आस्था, श्रद्धा, अध्यात्म और घुमक्कड़ी की भूख को मिटाने के लिए आते हैं।


पीड़ा

हमने आज तक उनकी यात्रा के लिए अपने पलक पांवड़े बिछाते हुए मेजबानी में कोई कोताही नहीं की। मेरे अस्तित्व के पहले सदियों से चली आ रही इस परंपरा में हम एक दूसरे के पूरक होने का भरोसा दिलाते रहे हैं। हमने अपनी नदियों से उनकी सभी जरूरतों को पूरा किया है। अपनी औषधीय वनस्पतियों के इस्तेमाल से लोगों के दुख दूर किए हैं। यहां की बिजली से देश को रोशन किया है। यह बात और है कि इन सबके लिए हमें खुद कष्ट उठाना पड़ा है।


परिणाम

आज हम विपदा में घिरे हुए हैं। हाल में आई प्राकृतिक आपदा यहां पर आंसुओं का सैलाब छोड़ गई। हमारा तिनका-तिनका बिखर गया। सब कुछ नष्ट हो गया। हमारे लोगों के सामने उजड़ चुके चमन को आबाद करने की बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई है। हालांकि हम बिल्कुल घबरा नहीं रहे हैं। हमें आप सबका आसरा और भरोसा है। उम्मीद कायम है कि जिस भाई के यहां आप अपनी परेशानियों, चिंताओं और व्यथा को त्यागकर सुकून, आनंद और मोक्ष प्राप्त करते हैं, आज अगर वह बदहाल है तो आप लोग जरूर इस संकट से उसे निकालेंगे। छोटे भाई को परेशानी से उबारना यदि बड़े भाई का दायित्व है तो यह कर्तव्य आप लोग बखूबी निभाएंगे। हम चिंतित नहीं हैं… हमें आपकी मदद का इंतजार है…

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प्रकृति को संवारें निर्माण को सहेजें

प्रो (डॉ) रोमेल मेहता

(डिपार्टमेंट ऑफ लैंडस्केप आर्किटेक्चर, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर, दिल्ली)


सभी प्राकृतिक दशाओं और तंत्रों का उसी प्रकार पुनर्सृजन किया जाना चाहिए जैसे कि वे पहले थे, लेकिन सभी सड़कों और भवनों का पुनर्निर्माण पहले की तरह नहीं किया जाना चाहिए।उत्तराखंड की त्रासदी संरचनाओं, परिवहन कॉरीडोर, वनों और कृषि क्षेत्रों के व्यापक पैमाने पर विनाश का नतीजा है। इस कारण आपदा के लिए प्रकृति नहीं बल्कि मनुष्य जिम्मेदार है। तबाही की व्यापकता और भयावहता के कारण स्थानीय पारिस्थितिकी पर पड़े परिणामों की वजह से इसको आपदा कहा जा रहा है। लेकिन सबसे पहले तो मनुष्य ने ही पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाया!


उत्तराखंड की पहाड़ियों पर बादलों के फटने और अत्यधिक बारिश की घटनाएं होती रहती हैं। वास्तव में त्रासदी की मुख्य वजह जटिल प्राकृतिक संरचना का निर्मम तरीके से क्षरण, अनियोजित विकास और मुनाफे का लालच है। उत्तराखंड की पारिस्थतिकी और प्रकृति के तीन तत्व हैं :


1. वन : केवल पेड़ ही जंगल का निर्माण नहीं करते। इनमें वृक्ष, झाड़ियां और घास-फूस से ढकी जमीन शामिल है

2. नदी : यह चैनल (जल प्रवाह का जरिया), बाढ़ के मैदानों और दलदल (बाढ़ के मैदानों से सटे क्षेत्र) से बनती है

3. भूगर्भ, भू-आकृतिकी और मिट्टी


मानव के हस्तक्षेप से दो अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रभावी तथ्य उत्पन्न होते हैं :

1. पर्यटन और इससे जुड़ी गतिविधियों के लिए प्राकृतिक स्रोतों की मांग

2. विकास जिनमें भवन, सड़क और अन्य संरचनाओं का निर्माण शामिल है


वनों की अंधाधुंध कटाई और अत्यधिक बारिश के कारण हालिया बाढ़ में वन उन्मूलन उत्तराखंड में पर्यावरणीय आपदा का सबसे प्रमुख कारण रहे। उत्तराखंड में वनों का सबसे अधिक अनुपात है जो क्षेत्रीय पर्यावरण, लोग और जैवविविधता के टिकाऊपन के लिए आवश्यक हैं। यह मिट्टी को अपरदन से भी बचाते हैं। बदले में मिट्टी, जंगलों और कृषि के अस्तित्व के लिए जरूरी है :


1 इसलिए जंगलों को पुर्नजीवित किए जाने की जरूरत है। इसके लिए तात्कालिक रूप से क्षतिग्रस्त पेड़ों की देखभाल के साथ जिन जगहों से पेड़ बह गए हैं वहां नए पेड़ों के नए सैंपल लगाए जाने की जरूरत है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पहली प्राथमिकता यह है कि पहले की तरह 35 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में वन होने चाहिए। वनों के रोपण के लिए उन क्षेत्रों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए जहां बाढ़ से पहले चारागाह था या जिसको अनुपयोगी क्षेत्र के रूप में छोड़ दिया गया था। क्षतिग्रस्त पेड़ों, झाड़ियों और वन उन्मूलन वाले क्षेत्रों में बागवानी का उपचार किया जाना चाहिए। स्थानीय विशेष परिस्थिति का ध्यान भी रखते हुए पौधे लगाए जाने चाहिए। इसके लिए स्थानीय आबादी की जरूरतों के लिहाज से उपयोगी क्षेत्र को चारागाह भूमि के रूप में घोषित करना चाहिए ताकि जंगली भूमि की रक्षा हो सके।


2नदी केवल चैनल नहीं है। उसके सभी क्षेत्रों के दायित्वों को प्रकृति द्वारा प्रदत्त कार्य करने देना चाहिए। उनमें छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। इस लिहाज से नदी चैनल पर कोई भी निर्माण या अवरोध किसी भी सूरत में नहीं होने देना चाहिए। बाढ़ के मैदान भी उपजाऊ क्षेत्र हैं। नदी की सुरक्षा के लिए बाढ़ के मैदान से जुड़े क्षेत्र को बफर जोन के रूप में संरक्षित करना चाहिए।


3दुनिया की सबसे युवा पर्वत शृंखलाओं के चलते भौगोलिक रूप से उत्तराखंड बेहद नाजुक है। इसका अधिकांश हिस्सा उच्च रूप से सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र चार और पांच के तहत आता है। यहां धरती के नीचे की हलचल तेज है। यह कभी भी यहां की भौगोलिक स्थिति और नदियों की संरचना में विक्षोभ ला सकती है। प्रदेश की अधिकांश भौगोलिक संरचना में ऐसे तत्व शामिल हैं जिनसे निर्मित संरचनाएं अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं। लिहाजा मृदा अपरदन की अधिक आशंका बनी रहती है। इस तथ्य के साथ वहां की चढ़ाई वाली भौगोलिक संरचना को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि नदियों के पास बड़ी संरचनाओं से परहेज किया जाए। प्रदेश के प्रस्तावित पुनर्निर्माण में इस तथ्य को कड़े मानक के रूप में अपनाया जाना चाहिए।


4 क्षेत्र में पर्यटन और पर्यावरण के सहजीवन को बनाए रखने पर जोर देना होगा। पर्यटन के चलते इस क्षेत्र के पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचती रही है। इसे रोका जाना चाहिए। पर्यटकों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ उन्हें सुविधाएं मुहैया कराने के लिए अनियोजित बुनियादी सुविधाओं के विकास में इजाफा हुआ। इससे बचने का एक तरीका यह हो सकता है कि पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील इलाकों में पर्यटकों की संख्या को सीमित किया जाना चाहिए। इस नियंत्रण को लागू करने के लिए यात्रियों को बेस केंद्रों पर ही रोका जाना चाहिए जहां पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाएं उन्हें सभी बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें।


5अंत में, यहां पर होने वाले विकास को अत्यधिक संगठित तरीके से किया जाना चाहिए और प्लानिंग इस तरह से वर्गीकृत हो जिससे सभी विशिष्ट दिशानिर्देशों का अनुपालन हो सके। इस संदर्भ में प्लानिंग की कार्यप्रणाली में आमतौर पर स्वीकार किए जाने वाले सहज सुझावों की भी समीक्षा की जानी चाहिए और यदि आवश्यक हो तो उत्तराखंड के पुनर्निर्माण को लक्षित प्लानिंग और डेवलपमेंट का एक नया तरीका विकसित किया जाना चाहिए। सड़कों पर भी विशेष ध्यान की जरूरत है। आमतौर पर सड़कों को पहाड़ों के किनारे बनाया जाता है और यह इसी तरह एक रेखा में हजारों किमी तक चली जाती है। इसे बनाए जाने से वहां की नाजुक भौगोलिक संरचना को क्षति पहुंचती है। वर्तमान स्थिति में इस पर गंभीर रूप से विचार करने की जरूरत है कि पहाड़ों और सड़कों के जुड़ाव को सीमित किया जाए। इसी के साथ यात्रा की दूरी को कम करने के लिए और पहाड़ों से सटकर सड़कें बनाने और उससे होने वाले नुकसान में कमी लाने के लिए जितना संभव हो पुल बनाए जाए और उनसे सड़कों को जोड़ा जाए। इसके अलावा अत्यधिक भूगर्भीय हलचल वाले क्षेत्रों में सभी भवन निर्माण गतिविधियों पर रोक लगे।


7 जुलाई  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘अब सधे कदम की दरकार‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


7 जुलाई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘बरकरार रहे भरोसा’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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