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निरंकुश और लापरवाह तरीके से किए गए विकास के चलते हमने हिमालय क्षेत्र को अस्थिर कर दिया है। हिमालय में हुई त्रासदी के लिए अकेले प्रकृति ही जिम्मेदार नहीं है। इसे प्राकृतिक आपदा कहना सच्चाई से मुंह मोड़ना है। वास्तव में निरंकुश और लापरवाह तरीके से किए गए विकास के चलते हमने हिमालय क्षेत्र को अस्थिर कर दिया है। इससे भी बड़ा खतरा यह उत्पन्न हो गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा तंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव के चलते यह अधिक खतरे वाला क्षेत्र बन गया है।
वैज्ञानिकों ने भी इस तरह की वर्षा की घटनाओं में बढ़ोतरी की आशंका जाहिर की है। बरसात प्रचंड होगी और वर्षा के दिनों की संख्या में कमी आएगी। भारतीय मौसम विभाग (आइएमडी) के पास ऐसा कोई पूर्वानुमान तंत्र नहीं हैं जो सरकार को बादल फटने या अधिक बारिश के विषय में सूचित कर सके। राज्य सरकारों के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि इस अस्थिर क्षेत्र में विकास कार्य बगैर सोचे-समझे और विनाशकारी ढंग से किया गया है। कांग्रेस या भाजपा में से चाहे जिस दल की सरकार हो, सबने परिणामों की परवाह किए बगैर प्राकृतिक संसाधनों जल, वन और खनिज का जमकर दोहन करने का काम किया है। लिहाजा कई जगहों पर नदियां वास्तव में सूख गई हैं। हिमालय के पर्यावरण से इस तरह की गंभीर छेड़छाड़ कभी किसी के लिए चिंता का मुद्दा नहीं रहा। इसका नतीजा यह रहा कि प्रोजेक्टों का भारी-भरकम कचरा नदियों में डाला जाता रहा।
पनबिजली परियोजनाओं और सड़कों के निर्माण ने पहाड़ों को अस्थिर और भूस्खलन को आम बना दिया है। इनके सामूहिक प्रभाव का ही परिणाम है कि पहाड़ ध्वस्त हो रहे हैं। भूस्खलन ने नदियों को अवरुद्ध कर दिया है और प्राकृतिक बांधों का निर्माण किया है। इसलिए जब पानी का दबाव इन प्राकृतिक शक्तियों के विरूद्ध बनता है तो विनाशकारी हो जाता है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि इस क्षेत्र में विकास की जरूरत नहीं है लेकिन अनगिनत जिंदगियों की कीमत पर किए गए विकास का कोई मतलब नहीं है। इस लिहाज से हमको ऐसे हिमालयी तरीके के आर्थिक वृद्धि की जरूरत है जो टिकाऊ हो। इसके बगैर क्षेत्र या यहां के लोगों का कोई भविष्य नहीं है।
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प्रकृति की सत्ता सर्वोपरि
कुदरत की लाठी में बड़ी जान है! जब मारती है तो बचने की जरा भी गुंजायश नहीं रहती! करें तो क्या?’ सोचने की बात यह है कि प्रकृति इतनी बेरहमी से लाठी भांजने को मजबूर क्यों होती है? पहले उसे गुस्सा कभी कभार आता था अब लगता है उसकी भौंहें बारहों मास-आठों पहर तनी रहती हैं। हमारी समझ में खुद मनुष्य की मुद्रा ‘आ बैल मुझे मार’ वाली रही है। जो लाठी बचपन में नौनिहाल को चलने में मददगार, बुढ़ापे का सहारा, जवानी में सांप-कुत्ते जैसे जोखिमों को दूर करती है वह बेचारों का सिर फोड़ने वाला हथियार अगर बन रही है तो अकारण नहीं। एक और मुहावरा याद आता है जो लाठी के रूपक के साथ जुडी विडंबना को उजागर करता है- ‘मारे घुन्ना, फूटे आंख!’ अनाड़ी लठैत की तरह प्रकृति का लठ भी अंधाधुंध घूमता है। जो मुनाफाखोर खुदगर्ज हिमालय के बेहद नाजुक पारिस्थितिकी को संकटग्रस्त बनाने के लिये जिम्मेदार हैं वे निरापद जगहों में बचे हुए हैं। और जो निरपराध-वंचित पेट पालने की मजबूरी में सड़क किनारे काम करते थे वही अपने मेहमानों के साथ ‘शिकार’ बने हैं।
छोटे से पहाड़ी राज्य की कुल आबादी का करीबन 8-9 प्रतिशत हिस्सा दो-तीन दुर्गम जिलों में ‘अतिरिक्त भार’ के रूप में जिस तरह से अनियंत्रित पहुंचा है उस स्थिति में धरती कैसे और कितनी देर तक अपना नाम सार्थक करती इन्हें धारण कर सकती है? तीर्थयात्रा पर्यटन के नाम पर जो व्यवसाय प्रायोजित ढंग से पनपाया जाता रहा है या विकास के नाम पर भवन-पुल-सड़क निर्माण हर सरकार ने प्रोत्साहित किया है, उसी का नतीजा है कि बहुमंजिला सीमेंट कंक्रीट के मकान ताश के महलों की तरह भरभरा कर ढह रहे हैं। यह बात कोई भी अस्वीकार नहीं करेगा कि पर्यावरण के संरक्षण तथा जनहितकारी विकास में संतुलन की जरूरत है। दुर्भाग्य यह है कि इस घड़ी भी उत्तराखंड की नाकाम मौजूदा सरकार ‘आपदा प्रबंधन की अर्थ व्यवस्था’ के सहारे अपना अस्तित्व बचाने एवं भविष्य संवारने में व्यस्त नजर आ रही है। जब तक आलाकमान की बैसाखी का सहारा है कुदरत की लाठी की किसे परवाह है?
23 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘कुदरत का खेल हमारा प्रबंधन फेल‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.
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