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प्रकृति की अनन्य व्यवस्था है पर्वतराज हिमालय

मुद्दा
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देश की हवा, पानी और मिट्टी को लाभान्वित करने वाले दुनिया के इस सबसे ऊंचे पहाड़ को हमने सिर्फ भोग की वस्तु समझा है।वर्तमान त्रासदी हिमालय को समझने की हमारी भूल का ही परिणाम है। हमने इस शृंखला को सिर्फ जंगल, मिट्टी, चट्टान, हिमनदियों वाला पहाड़ ही समझा। हमने नहीं समझा कि यह मात्र हमारी संस्कृति, संस्कारों का ही स्नोत नहीं रहा बल्कि हमारे जीवन के तार एवं आधार सीधे इस महान हिमखंड से ही जुड़े हैं।


इस महान हिमालय के साथ हमारा व्यवहार शर्मनाक सिद्ध हुआ है। वर्तमान त्रासदी और इससे पहले की घटनाएं इसी ओर इशारा करती है कि हमने हिमालय को सिर्फ भोगने की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझा। हमने इसकी गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्र, टौंस जैसी सभी नदियों को बिजली से लेकर अन्य उत्पादनों के लिए रोककर अपने भाग्य-भविष्य को ही संकट में डाल दिया। अपने तात्कालिक लाभ में अंधे होकर हमने वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ी को नेस्तनाबूद करने की ठान ही ली। अनियोजित सड़कों का जाल और उसके निर्माणों की आतंकी विधि जिसमें डाइनामाइट और मशीनों का उपयोग कर हमने संवेदनशील हिमालय को कमजोर कर दिया। निर्माण कार्यो में बढ़ती हुई कोताही और अनियमितता को एक भारी बारिश ही आईना दिखा देती है। देश के 65 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में हिमालय की नदियों, वनों और इनके उत्पादों से ही फले-फूले हैं। गंगा-यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों ने ही सभ्यताओं को जन्म दिया और हिमालय की यह बड़ी 18 नदियां देश के प्राणों से जुड़ी है।


इस अलौकिक हिमालय को मनुष्य ने  अलग-थलग करके ही देखा। इसके संवेदनशील तंत्र को कभी समझने की कोशिश नहीं की। यह मात्र पर्वत शृंखला नहीं बल्कि प्रकृति की एक अनन्य व्यवस्था है जो ढेर सारे उत्पादों के साथ-साथ प्राणिजगत से भी जुड़ी है। इस बेजोड़ वस्तु को समझने की भूल के हुए परिणाम असीमित और असंशोध्य है। हिमालय एक अद्भुत तालमेल का ही परिणाम है। यहां के वन, नदियां, मिट्टी एक विशिष्ट संतुलन और पारस्परिक समन्वय में रहते हैं। किसी भी एक से छेड़छाड़ का परिणाम पूरे संतुलन को डगमगाता है, और यह संतुलन मात्र हिमालय से ही नहीं जुड़ा बल्कि मैदानों से भी इसका सीधा रिश्ता है। देश की कई सूखती और दम खो रही नदियां हिमालय से छेड़छाड़ का ही परिणाम है। मैदानों में तीव्रता से बढ़ते उद्योग और अन्य हलचल हिमालयी पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल असर डालती है। हिमालय को समझे जाने की आवश्यकता मात्र स्थानीय सरकार और लोगों का दायित्व ही नहीं बल्कि सारे देश और केंद्र सरकार का भी है। इसे सबसे मिलाकर देखे जाने की जरूरत है। जब हिमालय सारे देश की सेवा में सदियों से जुड़ा है ऐसे में इसके डगमगाते अस्तित्व की चिंता के लिए पूरे देश को खड़ा होने की आवश्यकता है। उत्तराखंड की वर्तमान त्रासदी हिमालय से छेड़छाड़ व दूषित व्यवहार का ही परिणाम है। यह मात्र वनों व हिमालय में अनियोजित योजनाओं का सही परिणाम नहीं बल्कि देश में तेजी से बढ़ता शहरीकरण उद्योग व असीमित आवश्यकताओं का भी हश्र है। हिमालय में बादलों का फटना व अतिवृष्टि स्थानीय कारणों के अलावा पृथ्वी के बढ़ते तापक्रम का भी परिणाम है। इस त्रासदी को जितनी जल्दी मानव जनित मान लें और साथ-साथ सामूहिक गलतियों को भी स्वीकार ले तो बेहतर होगा। इससे कम से कम हम आने वाली त्रासदियों के लिए और हिमालय की रक्षा के लिए तैयार रहेंगे।

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मर्ज का मर्म

उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा के पीछे इंसानी कारगुजारियां काफी हद तक जिम्मेदार हैं। हाल के दिनों में नाजुक पारिस्थितिकी वाले इन पहाड़ों से संसाधनों के परंपरागत उपभोग की पद्धति में बदलाव आया है। अति लोभ के चलते इंसान इनके साथ हैवानों की तरह व्यवहार करने लगा है। इस क्षेत्र में मानव गतिविधियां तेजी से बढ़ी हैं। जलवायु परिवर्तन, आर्थिक वैश्वीकरण और शहरीकरण ने पहाड़ों की मुश्किल को चरम तक पहुंचाया है। जमीन का उपभोग सघन हुआ है, प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण बढ़ा है। शहरीकरण में तेज वृद्धि ने प्राकृतिक आपदा के खतरे में इजाफा किया है।


बढ़ता शहरीकरण: आबादी में वृद्धि से हाल के दिनों में उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है। इसके चलते यातायात नेटवर्क को बढ़ाना पड़ा है। पर्यटन का विकास हुआ है। हालांकि इन सबके बावजूद भी कोई प्रभावकारी भू उपयोग नीति अमल में नहीं आ सकी। नए कस्बों और क्षेत्रों के विकसित होने के साथ पहले से मौजूद शहर आकार व क्षेत्र में और बड़े एवं घने होते गए। 1971 में उत्तराखंड की कुल आबादी का 16.36 फीसद शहरी आबादी थी। यह 1981 में बढ़कर 20.7 फीसद हो गई। यह आबादी 1991 और 2001 के दौरान क्रमश: 22.97 और 25.59 प्रतिशत दर्ज की गई। 2011 की जनगणना में यह आबादी 30 फीसद से अधिक हो चुकी है। यहां की शहरी आबादी में हुई दशकीय वृद्धि पूरे देश शहरी आबादी की वृद्धि से कहीं अधिक है।


पर्यावरण पर असर: उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध शहरीकरण से 1981 से 2011 के दौरान 5.85 फीसद प्राकृतिक वन नष्ट हो चुके हैं।


= 45 फीसद प्राकृतिक झरने पूरी तरह से सूख चुके हैं। 21 फीसद मौसमी बन चुके हैं। 1981-11 के दौरान इनके बहाव में 11 फीसद कमी आ चुकी है।


= 65 फीसद गांव स्वच्छ जल की समस्या से जूझ रहे हैं। सिंचाई की क्षमता में 15 फीसद कमी। पिछले 100 से 110 सालों के बीच भीमताल और नैनीताल जैसी झीलों की क्षमता क्रमश: 5494 घनमीटर व 14150 घनमीटर तक कम हो चुकी है। इसका प्रमुख कारण लगातार गाद जमा होते रहना है।


= यहां के जलीय तंत्र में गड़बड़ी की वजह से भूस्खलन और यकायक आने वाली बाढ़ों की घटना में पिछले तीन दशक के दौरान क्रमश: 15 और 17 फीसद इजाफा देखा जा रहा है।


बांध और बिजली संयंत्रों का निर्माण: उत्तराखंड में गंगा और इसकी सहायक नदियों मंदाकिनी, भागीरथी, और अलकनंदा पर 505 से अधिक बांध और 244 पनबिजली परियोजनाएं या तो प्रस्तावित हैं या फिर निर्माणाधीन हैं। इनमें से 45 काम भी कर रही हैं। हालिया बाढ़ और भूस्खलन त्रासदी से सर्वाधिक प्रभावित अकेले चार धाम क्षेत्र (केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) में करीब 70 बांध हैं। भारी वर्षा वाला क्षेत्र होने के चलते उत्तराखंड भूस्खलन के लिहाज से भी अतिसंवेदनशील है। इसके अलावा यह उच्च भूकंपीय क्षेत्र के तहत भी आता है। पूरे प्रदेश में 95 फीसद से अधिक बांध 2000 के बाद बने हैं। राज्य के गठन के बाद नीति नियंताओं को लगा कि शायद पर्यटन और बांध ही इसे विकास के रास्ते ले जाने में सहायक होगा।


गैर शोधित सीवेज: गैर शोधित सीवेज को सीधे नदी में छोड़ना भी एक अलग समस्या है। यह नदी को प्रदूषित करता है। इससे नदी के किनारे ऊपर उठ जाते हैं। अवैध खनन: नदी के किनारों से पत्थरों का अवैध खनन तेजी से हो रहा है। कानूनी रूप से मशीन द्वारा खुदाई नहीं की जा सकती है। केवल ‘चुगान’ या हाथ से ही पत्थर उठाने की अनुमति है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अवैध खनन के 4640 मामले सामने आए हैं जिनमें 100 करोड़ रुपये हर्जाना भी वसूला गया है।


तीर्थाटन और पर्यटन: भारी संख्या में सैलानी और तीर्थयात्रियों के यहां पहुंचने से पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। अप्रैल और नवंबर के दौरान भारी संख्या में पर्यटक और श्रद्धालु पहुंचते हैं। लिहाजा इनके लिए सुविधाओं को विकसित करने का काम बड़े पैमाने पर अनियंत्रित रूप में किया गया है। बढ़ते वाहन: 2005-06 के दौरान यहां कुल पंजीकृत वाहनों की संख्या 83 हजार थी। 2012-13 में यह बढ़कर 1.8 लाख हो चुकी है। इसके अलावा भारी संख्या में बाहर से आने वाले वाहन हैं। 2005-06 के दौरान ऐसे पंजीकृत वाहनों की संख्या चार हजार से बढ़कर 2012-13 में चालीस हजार हो चुकी है। अब यह एक स्थापित तथ्य है कि पर्यटन में बढ़ोतरी और ज्यादा भूस्खलन की घटनाओं में सीधा संबंध होता है।


30जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘सबक सीखने का समय’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


30 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘कब चेतेंगे हम’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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