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नाजुक
बेहद नाजुक पारिस्थितिकी वाले हिमालयी क्षेत्र को इंसानी कारगुजारियों ने अतिसंवेदनशील बना दिया है। अंधाधुंध विकास की चाह में हमने जगह-जगह नदी के प्राकृतिक रूप को रोककर बांध बना लिए हैं। जगह-जगह स्थापित इन बिजली परियोजनाओं से हम अपना भविष्य रोशन करना चाह रहे हैं, लेकिन ये कदम हमें बर्बादी की ओर ले जाते दिख रहे हैं। हिमालय की इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र से गंभीर छेड़छाड़ करके हमने उसे असंतुलित कर दिया है। एक तो पूरे हिमालय क्षेत्र की सभी पहाड़ियां अभी बहुत कच्ची हैं दूसरे हमने सुरंग और रास्ते बनाने के लिए डायनामाइट विस्फोट से उन्हें खोखला कर दिया है, पोला कर दिया है, दरका दिया है।
नाकामी
बादल तो पहले भी यहां फटते रहे हैं लेकिन बढ़ते पारिस्थितिकी असंतुलन से हुआ अतिसंवेदनशील यह क्षेत्र अब ऐसी आपदा को झेलने में असमर्थ होता दिख रहा है। जिसकी परिणति उत्तराखंड की वर्तमान त्रासदी के रूप में देखी जा सकती है। अब पहाड़ी नदियों के प्राकृतिक और स्वच्छंद रूप को बांधकर बनाए गए बिजलीघर बेमानी साबित हो रहे हैं। उनकी बिजली और रोशनी आज की बदहाली का अंधकार दूर करने में असमर्थ साबित हो रही है।
नैतिकता
आज प्रकृति और पहाड़ को नजदीक से जानने और समझने की जरूरत महसूस की जा रही है। इंसान और प्रकृति दोनों एक दूसरे के पूरक रहे हैं। इसलिए दोनों के सहअस्तित्व के लिए यह जरूरी हो जाता है कि परस्पर हितों का ख्याल रखा जाए और एक दूसरे का उतना ही उपभोग किया जाए जितने से जरूरतें पूरी की जा सकें। इंसानी कारगुजारियों के चलते प्रकृति और पहाड़ को हुए नुकसान से आई उत्तराखंड की विभीषिका को देखते हुए अपने आचार, विचार और व्यवहार द्वारा प्रकृति के संरक्षण का संकल्प लेना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
नदी तीर का रोखड़ा जत कत सौरों पार
मुझे याद है कि 1956 के अक्टूबर महीने में पांच दिन तक तेज बारिश हुई। जगह-जगह भूस्खलन तो हुआ लेकिन जन-धन की हानि नाममात्र की हुई। मुझे बचपन की याद है कि हमारे गांव में भारी बारिश के बाद न जलभराव और न ही भूस्खलन की भयंकरता दिखी और तब गोपेश्वर की आबादी मुश्किल से पांच सौ के लगभग होगी। आज गोपेश्वर की आबादी विस्तारित होकर 15 हजार से अधिक हो गई है।
पहले हिमालयी क्षेत्रों में गांव की रचना के साथ साथ मकानों के निर्माण स्थल पर भी बहुत सावधानी बरती जाती थी। स्थल की मिट्टी को आधार मानकर निर्माण की सहमति होती थी। उससे निर्माण आरंभ करने में सात सावन की कहावत प्रचलित थी। बुनियाद रखते समय श्रावण के महीने की सात दिन की बारिश के बाद जब जमीन बैठ जाती तो उससे फिर आगे कार्य किया जाता। उसमें दीवार बनाते समय पत्थरों के जोड़-तोड़, गुड़िया, हुत्तर आदि का पूरा ध्यान रखा जाता था। मकानों के निर्माण में भूमि धसाव एवं भूकंप को सहने का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। मकान के तीनों ओर से गैड़ा (पानी के प्रवाह की नाली) निकाला जाता था और उसकी सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता था गांवों में बरसात से पूर्व डांडा गूल की सफाई की जाती थी जिससे बारिश का पानी गांव के बीच न बहे और गांव का नुकसान न हो। जहां गांव ढाल पर बसे हैं वहां ऊपरी भाग में इस तरह की डांडा गूलें बनायी जाती थी। वर्षा का पानी दोनों छोर से बिना अवरोध के प्रवाहित हो जाय यह ध्यान न केवल गांव की बसासत (बसावट) में अपितु जितने भी पुराने तीर्थधाम है उनमें पानी के निकास के अलावा भूमि भार वहन क्षमता और स्थिरता नदी से दूरी आदि का पूरा ध्यान रखा जाता था। बदरीनाथ मंदिर इसका उदाहरण है जिसमें बदरीनाथ के दोनों ओर एवलांच आदि से मकानों का नुकसान होता रहा किंतु मंदिर एवलांच एवं भूकंप आने के बाद भी सुरक्षित है। कहा जाता है कि बदरीनाथ मंदिर नारायण पर्वत के ‘ आंख की भौं’ वाले भाग के निचले भाग में स्थापित किया गया है। जिस कारण मंदिर हिमस्खनों से सुरक्षित रहता आया है। यही ध्यान केदारनाथ मंदिर के स्थापत्य में भी रखा गया है। 1991 के भूकंप से केदारनाथ नगर में क्षति हुई लेकिन मंदिर सुरक्षित रहा।
नदियों के किनारे बसासत नहीं होती थी। नदी से हमेशा दूरी का रिश्ता रखा जाता था। एक कहावत भी प्रचलित थी ‘नदी तीर का रोखड़ा-जत कत सौैरों पार’। यही कारण था कि गंगा की मुख्य धारा अलकनंदा एवं उसकी सहायक धाराओं में 1970 से पूर्व कई बार प्रलयकारी भूस्खलन हुए, इनसे नदियों में अस्थाई झीलें बनी जिनके टूटने से प्रलयकारी बाढ़ आई पर ऊपरी क्षेत्रों में इन बाढ़ों से जन-धन की हानि ना के बराबर हुई। एक समय में श्रीनगर राजाओं की राजधानी के साथ ही गढ़वाल का केंद्रीय स्थल था इसलिए जनसंख्या के दबाव से नदी के विस्तार के अंदर आबादी फैलती गई। अलकनंदा की अनदेखी की गईं।
1950 के बाद उत्तराखंड में स्थित तीर्थ स्थानों, पर्यटक केंद्रों एवं सीमा सुरक्षा की दृष्टि से मोटर सड़कों का जाल बिछा। अधिकांश सड़कें यहां की प्रमुख नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों से ले जाई गईं। इसी आधार पर पुरानी चट्टियों का अस्तित्व समाप्त हो गया और नए-नए बाजार रातों-रात खड़े हो गए। इनमें कई नये बाजार नदियों से सटकर खड़े हो गये। मोटर सड़क भी कई अस्थिर क्षेत्रों में खोदी गई। बारूद के धमाकों से ये और अस्थिर हो गये। सड़कों के आसपास के जंगलों का भी बेतहाशा विनाश शुरू हुआ।
ऊपर से नदियों द्वारा टो-कटिंग होता रहा। पिछले तीन दशकों में उत्तराखंड के गांव-गांव को मोटर मार्ग से जोड़ने की हमारी महत्वाकांक्षा रही है। एक दर्जन के लगभग राष्ट्रीय एवं राज्यमार्गों का निर्माण एवं विस्तारीकरण के अलावा गांवों को जोड़ने के लिए एक हजार से अधिक छोटी-बड़ी मोटर सड़कों का निर्माण किया गया। मोटरमार्गों के लिए पहाड़ों को काट कर एवं खोदकर मिट्टी एवं चट्टानों को निचले भाग में बेतरतीब ढंग से फेंका
जाता रहा। जो निचले क्षेत्र के आबादी एवं कृषि भूमि को बारिश आने पर दल-दल से पाट रही है।
पहाड़ों में हो रहे भूस्खलन और बाढ़ से अब यमुना, भागीरथी, अलकनंदा, रामगंगा, कोसी के मैदानी क्षेत्र भी अब डूब एवं जलभराव की परिधि में आ गए हैं। नदियों का तल उठने से उत्तराखंड के तराई क्षेत्र उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा दिल्ली की नदी किनारे की बस्तियां अब अधिक तेजी के साथ जलभराव एवं बाढ़ की
चपेट में आ रहे हैं। इससे पहाड़ों समेत मैदानों में भी लाखों लोग तबाही का शिकार हो रहे हैं और विकास परियोजनाएं भी नष्ट हो रही हैं। इस त्रासदी के लिए केवल प्रकृति पर ही नहीं अपितु अनियोजित विकास तथा हमारे द्वारा थोपी गई गड़बड़ी भी जिम्मेदार है।
लेखक चंडी प्रसाद भट्ट जाने-माने पर्यावरणविद् हैं
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