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सबक सीखने का समय

मुद्दा
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उत्तराखंड की त्रासदी के बाद वहां की परिस्थितियों में हमारी विकास योजनाओं को यथार्थ के धरातल पर गौर करना होगा। हालांकि हमारे पास किसी विशेष प्रोजेक्ट के पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव का आकलन करने के लिए कोई विश्वसनीय पैमाना नहीं है। यहां तक कि पूर्व पर्यावरण मंत्री भी इसको स्वीकार कर चुके हैं। हमारे पास जनता से सलाह-मशविरे के लिए कोई विश्वसनीय प्रक्रिया नहीं है। स्थानीय लोगों से उनकी भाषा में पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में नहीं पूछा जाता। प्रोजेक्ट को विकसित करने की संकल्पना के साथ जो विशेषज्ञ अप्रेजल समिति गठित की जाती है वह भी रबर के स्टांप की तरह होती है। वे भी इन चीजों में अपना दिमाग नहीं खपाते।


प्रत्येक नदी बेसिन में बड़ी संख्या में प्रोजेक्ट हैं। लेकिन उनके संबंध में हमारा कोई ठोस आकलन नहीं है। अब कल्पना कीजिए कि पनबिजली परियोजनाओं (जिनमें बड़े बांध शामिल) में संपूर्ण नदी की धारा को भूमिगत सुरंगों में तब्दील कर दिया जाता है। जोकि 20-30 किमी लंबी होती हैं और इतनी चौड़ी होती हैं कि तीन ट्रेनें एक साथ गुजर सकें। नाजुक, भूस्खलन की आशंका वाले पर्वतों में बड़ी मात्रा में डायनामाइट के विस्फोट से इन सुरंगों का निर्माण किया जाता है। इसके अलावा प्रत्येक प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए शहरों, सड़कों और वनों की कटाई की जाती है। मोटे तौर पर राज्य में इस तरह के सौ से भी ज्यादा प्रोजेक्ट हैं। इसके अलावा प्रत्येक प्रोजेक्ट को तभी स्वीकृति मिलती है जब पर्यावरण प्रबंधन योजनाओं और कई अन्य शर्तों को पूरा किया जाता है लेकिन हमारे पर्यावरण स्वीकृति का कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है। यही बात अन्य विकास योजनाओं मसलन खनन, सड़क, टाउनशिप, होटल और पर्यटन पर भी लागू होती है।


कई एजेंसियां ऐसी हैं जिनकी वजह से प्राकृतिक आपदाओं के खतरे की आशंका बढ़ रही है। इनमें राज्य सरकार, उत्तराखंड जल विद्युत निगम, राज्य आपदा प्रबंधन विभाग, राज्य का मौसम विभाग, लोक निर्माण विभाग, राजस्व विभाग, पर्यटन विभाग, केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, केंद्रीय जल आयोग, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण, केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय, केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय, आइएमडी, एनडीएमए, राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी जैसी एजेंसियां शामिल हैं।


इन सबका नतीजा हमारे सामने है। पनबिजली परियोजनाओं ने हालिया आपदा के अनुपात को कई गुना बढ़ा दिया। उत्तराखंड का कोई भी प्रोजेक्ट अपने दावों पर खरा नहीं उतरा है। सितंबर, 2010 में टिहरी बांध ऑपरेशन में कुप्रबंधन के चलते निचले इलाकों में बाढ़ की भयानक स्थिति रही। हमको इस तरह के प्रोजेक्टों की अंधी दौड़ को रोकने की जरूरत है क्योंकि ये अस्थिरता को बढ़ा रहे हैं। इनके परिणामों का अभी तक हम आकलन नहीं कर सके हैं और न ही अपने दावों पर खरे उतर सके हैं। ये उत्तराखंड के लोगों को न ही विकास दे सके हैं और न ही बिजली मुहैया करा सके हैं। बिजली उत्पादन के अन्य विकल्प हैं और हमको विकास के मौजूदा मॉडल पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। इसके लिए स्थानीय दशाओं और स्थानीय लोगों के पूर्ण सहयोग को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। वर्तमान त्रासदी से हम सब एक बड़ा सबक सीखकर अपने भविष्य को संवार सकते हैं।

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क्या हैसमाधान


योजनाकारों एवं प्रशासकों व राजनेताओं को यह समझ बनानी होगी कि देश के नियोजन का केंद्र बिंदु हिमालय का संरक्षण होना चाहिए। नदियों, नालों एवं गदेरों में बहने वाली साद की मात्रा को रोकने के लिए बिगड़े हुए पणढालों में छोटी एवं बड़ी वनस्पति से आच्छादित करने का लोक कार्यक्रम खड़ा किया जाना चाहिए। इन पणढालों में लगने वाली आग को सख्ती के साथ रोकने के लिए ग्राम समुदाय को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।अस्थिर, दरारों एवं भूस्खलन से प्रभावित इलाकों को चिन्हित किया जाना चाहिए। ऐसे इलाकों की पहचान कर छेड़-छाड़ पर रोक लगानी चाहिए।अतिवृष्टि के समय इनमें होने वाली गतिविधियों के लिए चेतावनी तंत्र विकसित किया जाना चाहिए।


मोटर मार्गों के निर्माण में आधा कटान, निचले क्षेत्रों में पत्थर की दीवार बनाकर भरान किया जाना चाहिए। जिससे नीचे के क्षेत्रों में मलबा न बहे। इसके लिए योजना आयोग द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों के लिए सड़क निर्माण हेतु सातवीं पंचवर्षीय योजना में दी गई गाइडलाइन का सख्ती से अनुपालन किया जाना सुनिश्चित हो।सड़क निर्माण के दौरान ही स्कपरों का पानी खड़िचानुमा नालियों के द्वारा निकास किया जाना चाहिए। मोटर सड़क से जुड़े गाड़-गदेरो एवं नालों का सुधार भी आवश्यक है। जिनकी बौखलाहट से सड़कें और आबादी ध्वस्त हो जाती है।


छोटे-बड़े बाजारों, नगरों के पानी के निकास की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। जलविद्युत परियोजनाओं द्वारा छोड़े गए मलबे के ढेरों के समुचित निस्तारण हेतु सख्ती से कदम उठाये जाने चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी भी स्थिति में वह नदियों में न बहे। गांवों के नीचे से परियोजनाओं के लिए सुरंग न खोदी जाय।


निर्मित बांधों के द्वारा होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए जिम्मेदारियां सुनिश्चित हों! आगे बड़ी परियोजनाओं का निर्माण तत्काल बंद किया जाना चाहिए। हिमालय समेत प्रकृति के संरक्षण एवं लोगों के कल्याण के बीच समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए। जिससे टिकाऊ विकास का मार्ग प्रशस्त हो।


30जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘प्रकृति की अनन्य व्यवस्था है पर्वतराज हिमालय‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


30 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘कब चेतेंगे हम’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

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