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पर्यावरण पतन सबका संकट: सांस लें या न लें

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सांस लें या न लें

आज देश की आधी शहरी आबादी जो सांस लेती है उसमें पार्टिकुलेट मैटर स्वीकृत सीमा से अधिक होता है। छोटे और अपेक्षाकृत कम चर्चित शहर आज सबसे प्रदूषित शहर बन चुके हैं। 2005 से कम प्रदूषित शहरों की संख्या 10 से गिरकर दो हुई तो गंभीर रूप से प्रदूषित शहरों की संख्या 49 से बढ़कर 89 हो गई। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की निगरानी वाले 180 शहरों में से केरल के मालापुरम और पठानमथिट्टा ही ऐसे दो शहर हैं जहां सभी प्रदूषक मानक स्तर से आधे हैं।


यह बड़ा समाधान बनकर उभर सकता है जब देश के करोड़ों लोग कुछ हटकर करने को ठान लें। अपने टिकाऊ रास्तों को अपनाकर एक जनमत तैयार करें। छोटी-छोटी दूरियों के लिए हम वाहनों के इस्तेमाल की जगह पैदल या साइकिल का प्रयोग कर सकते हैं। इससे न केवल पर्यावरण सुधरेगा बल्कि लोगों को मोटापे जैसी जीवनशैली से होने वाली बीमारियों से लड़ने में भी मदद मिलेगी। नियमित यात्रा के लिए खुद की कार की जगह सार्वजनिक साधनों का इस्तेमाल किया जा सकता है। पर्यावरण को दुरुस्त रखने वाली नीतियों का समर्थन करें। सड़क पर पैदल चलने वालों, साइकिल सवारों और सार्वजनिक साधनों जैसे टिकाऊ यातायात को आगे बढ़ाने वाले कानून-कायदों के प्रति जनसमर्थन बढ़ाने में मदद करें।

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नुकसान की कीमत

बढ़ते प्रदूषण ने मानव स्वास्थ्य और विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। पर्यावरणीय प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों का गिरती गुणवत्ता, प्राकृतिक आपदाएं और जल आपूर्ति व साफ-सफाई की लागत समाज को खराब सेहत, आय की बर्बादी और गरीबी में बढ़ोतरी जैसे मदों में चुकानी पड़ती है। इन नुकसानों की कुल सामाजिक और आर्थिक लागत भारत के लिए करीब 3.75 ट्रिलियन रुपये सालाना है। 2009 के इस शोध के अनुसार यह कीमत हमारी जीडीपी की 5.7 फीसद है। हालांकि इस लागत में हर साल होने वाली प्राकृतिक आपदाओं का नुकसान शामिल नहीं है जबकि एक अनुमान के मुताबिक 1953-2009 के दौरान प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले सालाना नुकसान का औसत 150 अरब रुपये प्रतिवर्ष रहा है।


कीमत में हिस्सेदारी

आउटडोर वायु प्रदूषण 29

इनडोर वायु प्रदूषण   23

कृषि जमीन का अपक्षय     19

जलापूर्ति, सफाई और स्वास्थ्य      14

चरागाहों का अपक्षय  11

जंगलों का अपक्षय   4


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