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अबला नहीं अब सबला कहिए

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Women Power

अब बेटियों की बारी


Women Power: जोश

हाल में भारतीय बैडमिंटन की नई सनसनी पीवी सिंधु ने जब यह कहा कि चीन की विश्व विजेता बैडमिंटन खिलाड़ी अपराजेय नहीं है तो यह महज एक भारतीय खिलाड़ी का आत्मविश्वास भर नहीं था, बल्कि यह रूढ़ियों को तोड़तीं और हर क्षेत्र में कामयाबी का सफर तय करतीं भारतीय बेटियों के जज्बे की प्रतिध्वनि भी था। यह सुखद है कि अब हर तबके और क्षेत्र की लड़कियों में दृढ़ निश्चय के साथ कुछ कर गुजरने का माद्दा दिखता है।


Women Power: जिजीविषा

दूरदराज की बेटियां परंपरा के विपरीत सैंकड़ों मील दूर बड़े शहरों में चिकित्सा, खेल, शिक्षा का प्रशिक्षण ले रही हैं। येबेटों से किसी मायने में कमतर साबित होना नहीं चाहती हैं। एक बड़ी आईटी कंपनी विप्रो के एचआर प्रमुख क अनुसार उनके यहां की जाने वाली नई भर्तियों में 65-70 फीसद गैर मेट्रो इलाके से आ रहे हैं। इनमें भी आधे से ज्यादा महिलाएं हैं। रांची की लड़कियों द्वारा बर्तन मांज कर कराटे चैंपियन बनने की कहानी अभी पुरानी नहीं पड़ी है। ऐसी अनगिनत कहानियां हमारे आसपास रची और गढ़ी जा रही हैं।


Women Power: जरूरत

हमारी इन बेटियों को राष्ट्रीय फलक पर चमकने का हमें हर अवसर देना चाहिए। इसके लिए जरूरत है उनको सभी संसाधनों और सही दिशा की।  जो लोग आज भी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को कमतर आंकते हैं इससे उनकी विचारधारा में बदलाव आ सकता है। आज जानकी जयंती (19 मई) है। जानकी जी ने विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने साहस को नहीं खोया और अंतत: लक्ष्य को प्राप्त किया। उसी तरह आज की ये बेटियां विपरीत परिस्थितियों में तप कर कुंदन बनकर निकल रही हैं। इनको प्रोत्साहन ही आज सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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Women Power: अबला नहीं अब सबला कहिए


जिन महिलाओं ने अपने दम पर कामयाबी पाई है उन्होंने अपनी भावनाओं को बेकार नहीं जाने दिया। आमतौर पर भारतीय महिला की कल्पना करने पर हमारे सामने असहाय, और पीड़िता की तस्वीर ही उभरती है। लेकिन, सिर्फ यही वास्तविकता नहीं है। हर औरत के अंदर इच्छाशक्ति होती है। वह जज्बा साहस और योग्यता का होता है। दुर्भाग्य से सभी महिलाएं इससे परिचित नहीं हैं लेकिन सौभाग्य से अनेक इससे वाकिफ हैं। महिला अधिकारों के लिए पिछले तीस वर्षों से संघर्ष करने के बाद हम यह कह सकते हैं कि उनके लिए क्या किया जाना चाहिए। लेकिन, इस सच्चाई को भी पेश किया जाना चाहिए कि क्या उपलब्धि हासिल हुई है।


वर्ष 2000 में एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाली सुरेखा यादव देश की पहली महिला ट्रेन ड्राइवर बनीं। इस मामले में उन्होंने भारतीय रेलवे में पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ा।  2011 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (आठ मार्च) पर ‘डेक्कन क्वीन’ ट्रेन पुणे से मुंबई लाने वाली पहली महिला बनीं। इस ट्रेन को देश की सबसे प्रतिष्ठित ट्रेनों में से एक माना जाता है। आज वह असाधारण सपने देखने वाली साधारण लड़कियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई हैं। उन्हीं के नक्शेकदम पर चलती हुई प्रीति कुमारी पश्चिम रेलवे की पहली महिला ड्राइवर बनीं हैं। सुरेखा अपनी उपलब्धियों के बारे में कहती हैं कि उन्हें इस बात पर गर्व है कि महिलाओं के प्रति सामाजिक भावना के बदलाव में उनकी भी भूमिका है।


Women Power

इसी तरह रूढ़िवादी दलित परिवार से ताल्लुक रखने वाली गांव की एक लड़की कल्पना सरोज को जब पढ़ने के लिए स्कूल जाना था तो उसकी 12 साल की उम्र में 22 साल के एक व्यक्ति से शादी कर दी गई। शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न सहने के साथ मुंबई की झुग्गियों में गुजर करने के लिए विवश हुई। 16 साल की उम्र में उसने कपड़े सिलने का काम शुरू किया लेकिन उससे किसी तरह ही गुजर-बसर हो पाती थी। उसके बाद उसने सरकारी लोन लिया और फर्नीचर व्यवसाय शुरू किया। रोज 16 घंटे अथक परिश्रम करने के बाद वह उस मुकाम पर पहुंची कि उसने एक खस्ताहाल मेटल इंजीनियरिंग कंपनी खरीदी। उसने कंपनी चलाने का बीड़ा उठाया और स्टाफ के सहयोग से उस कंपनी को डूबने से बचा लिया। उनका कहना है कि मैं उस कंपनी के साथ-साथ वहां काम करने वाले लोगों को न्याय दिलानी चाहती थी क्योंकि मुझे पता था कि उन पर अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुगाड़ने का जिम्मा है और मैं उस पीड़ा को महसूस कर सकती थी। आज वही कल्पना सरोज 100 मिलियन डॉलर की कामिनी ट्यूब की मुखिया हैं। कुछ ऐसी ही कहानी आंध्र प्रदेश के एक छोटे से कस्बे से दिल्ली पहुंची कर्णम मल्लेश्वरी की है। दिल्ली में पहाड़गंज के एक छोटे से कमरे से करियर शुरू करने वाली कर्णम ने लंबे संघर्ष, समर्पण और निष्ठा के चलते देश को पहले आधिकारिक ओलंपिक से नवाजा।


इन लोगों का प्रदर्शन महिलाओं में निहित क्षमताओं का प्रकटीकरण है। इससे समाज को गर्व होना चाहिए। विपरीत परिस्थितियों में जी रही महिलाओं को संघर्ष से गुरेज नहीं करना चाहिए। जिन महिलाओं ने अपने दम पर कामयाबी पाई है उन्होंने अपनी भावनाओं को बेकार नहीं जाने दिया। उन्होंने अपने सपनों के भार को कंधे पर उठाया है। यही भारतीय महिला के वास्तविक जज्बे को परिभाषित करता है।

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Women Power: सिंधु का साहस

पिछले दिनों मलेशियाई ग्रांड प्रिक्स में स्वर्ण जीतने वाली 13वीं वरीयता प्राप्त बैडमिंटन खिलाड़ी पुसरला वेंकट सिंधु ने महज 17 साल की आयु में इस प्रतियोगिता को जीतकर नया मुकाम हासिल किया। यह उनका पहला ग्रांड प्रिक्स स्वर्ण पदक है।  उन्होंने विश्व रैंकिंग में पांचवीं वरीयता प्राप्त चीनी मूल और सिंगापुर की  खिलाड़ी जुआन गू को पटखनी दी। उनके पिता पीवी रमन्ना और मां पी विजया दोनों ही वालीबाल खिलाड़ी रहे हैं लेकिन आठ साल की उम्र में ही सिंधु ने बैडमिंटन में अपना करियर संवारने का निर्णय ले लिया था। हैदराबाद की पुलेला गोपीचंद बैडमिंटन अकादमी में प्रवेश के बाद उनके करियर ने रफ्तार पकड़ी। कड़े संघर्ष, समर्पण और निष्ठा के चलते ही वह रोज अपने घर से 56 किमी दूर अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त करने जाती थीं। उनकी प्रतिभा को तराशने वाले गोपीचंद का कहना है कि कभी हार नहीं मानने की खूबी ही उनकी सफलता का राज है।

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Women Power: मुठ्ठी में आकाश


कोशिशों की आंच से हिमाला को पिघलते देखा है, मजबूत इरादों से सागर को राह बदलते देखा है

-नाजनीन अंसारी


मैं नाजनीन अंसारी मुठ्ठी में आकाश बांधना चाहती थी मगर गरीब बुनकर बाप के घर में कोई खिड़की ही न थी जिससे आसमान की झलक भी पा सकूं। मुफलिसी के मारे घरवालों की कोशिश थी मेरी तालीम पर पाबंदी लगाने की। बावजूद तमाम दुश्वारियों के अपनी जिद और जुनून के दम पर मैने जतन से पोसे गए अपने ख्वाबों को मरने न दिया। बीएचयू से एमए की डिग्री लेने के बाद मैंने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा से जोड़ने और साम्प्रदायिक सद्भाव की मजबूती के अपने इरादों को जमीन देने की कोशिश की। नतीजे नई मंजिलों की शक्ल में हैं।


कौमी एकता की मजबूती के लिए किये गए मेरे प्रयास उर्दू अनुवाद के साथ प्रस्तुत हनुमान चालीसा के रूप में लोगों के सामने हैं। अक्सर लोग मुझसे सवाल पूछते हैं कि तर्जुमे के लिए हनुमान चालीसा ही क्यों? दरअसल निर्विकार भाव से सदैव दूसरे के बिगड़े हुए कामों को संवारने वाले बजरंगबली मेरे आदर्श हैं। उनके अंदर मैं हजरत अली सा जज्बा देख पाती हूं। भगवान राम को भी मैं अपने देश के महापुरुष के रूप में पूरी श्रद्धा देती हूं। मेरा मानना है कि जिस दिन हिंदू भाई कुरान और मुस्लिम भाई पुराण बांचने लगेंगे, उस दिन फिर कोई दूरी शेष नहीं रह जाएगी। यह काम सिर्फ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के जरिए ही मुमकिन हो पाएगा। इसी लिए मेरी कोशिशों का फोकस तालीम की ओर है। खास कर उन पर्दानशीन बुनकर बालाओं की ओर जो रूढ़िवादी बाधाओं के चलते अक्षर से महरूम हैं।


19मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘मिस्त्री की बेटी बनी चैंपियन‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

19मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘हरियाणा लिख रहा नई इबारत‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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