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गरिमा में गिरावट के गुनहगार

मुद्दा
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लोकतंत्र सामाजिक रूप से अधिक समावेशी बना, पर संसदीय शिष्टाचार और बहस की परंपरा का पतन होने लगा।दुनिया प्रतिनिध्यात्मक से भागीदारी-आधारित लोकतंत्र की ओर बढ़ रही है। हम अधिक जागरूक हैं। यह उम्मीद की सबसे महत्वपूर्ण किरण है।


ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारत की स्वतंत्रता को लेकर भविष्यवाणी की थी कि भारतवासी स्वयं पर शासन करने के लायक नहीं हैं और शीघ्र ही सदियों पुरानी मध्ययुगीन बर्बरता और सुख-सुविधाओं के अभाव के दलदल में लौट जाएंगे। कई दशकों तक लोकतंत्र का सफल संचालन कर हमने इस अहंकारी औपनिवेशिक नेता को करारा जवाब दिया था। लेकिन पिछले कुछ सालों में हमारी संसदीय व्यवस्था में आई गिरावट यह सवालिया निशान लगाती है कि क्या आज की स्थिति में हम अपने आप पर शासन करने के लायक रह गए हैं?


इसे न मानना नादानी होगी कि हमारे संसदीय लोकतंत्र ने अपनी चमक खो दी है। कुछ दिनों पहले नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने संसद में अन्य वक्ताओं को बोलने न देने को लेकर विपक्ष को आड़े हाथों लिया और कहा कि यह बहस एवं तर्क की हत्या है। यदि सरकार के पास संसद या राज्य विधायिका में मजबूत बहुमत होता है तो वह विपक्षी दलों को अनसुना कर बिना बहस एवं चर्चा के बिल पास कराने में कोई गुरेज नहीं करती। यदि उसके पास मामूली बहुमत है या सत्ता में बने रहने के लिए छोटे-मोटे दलों पर आश्रित है तो विपक्ष सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने नहीं देता और शोरगुल, असभ्य व्यवहार एवं सदन का बेमतलब बहिष्कार का सहारा लेता है। इसका लोकतंत्र और राजव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ना लाजिमी है।


बीसवीं सदी के छठे और सातवें दशक में सार्वजनिक जीवन में निजी व्यवहार के तहत कुछ अलिखित मर्यादाओं और नियमों को संसदीय आचरण का अंग माना गया था। सार्थक बहसें और रचनात्मक आलोचना भारतीय संसद की प्रमुख पहचान होती थीं। मगर, हाल में इनके स्तर में दु:खद गिरावट आई है। भारत के कई सांसदों की व्यक्तिगत खूबियों की तुलना विश्व के विशिष्ट सांसदों से की जा सकती है, पर समग्र रूप से विधायिका के स्तर में गिरावट आई है और यह अवांछित सिलसिला 1980 के दशक से जारी है।


आखिर, गलती कहां हुई? पुरानी पीढ़ी के सांसद उत्साहपूर्वक सार्थक बहस करते थे, पर वे संभ्रांत वर्ग के थे। यहां तक कि कम्युनिस्ट नेता भी कुलीन पृष्ठभूमि वाले थे, जिनमें अधिकतर ने पश्चिमी देशों में शिक्षा ग्रहण की थी। लेकिन, लोकतंत्र के आधार के विस्तार के साथ संसद या विधायिका में अन्य समूहों का प्रवेश हुआ, जिससे इस लघु उत्कृष्ट द्वीप में एक बड़ी संख्या में साधारण काबलियत के लोगों का बाहुल्य होता गया। लोकतंत्र सामाजिक रूप से अधिक समावेशी बना, पर संसदीय शिष्टाचार और बहस की परंपरा का पतन होने लगा। निजी व्यवहार में भी नफासत लुप्त होने लगी। इनकी जगह गला फाड़ कर चिल्लाने, भारी शोरशराबे, निजी मौखिक हमलों और असभ्य आचरण ने ले ली। निजी गालीगलौज की भाषा की मिसालें भी सामने आईं। एक-दूसरे पर माइक या कुर्सी फेंकने की घटनाएं अशोभनीय ही कही जा सकती हैं।


आज माननीय सदस्य एक-दूसरे पर प्रहार के अंदाज में अपनी मांगें उठाते हैं और एजेंडा के बाहर जाकर चर्चा करते हैं। प्रश्नकाल के स्थगन की मांग, टोका-टोकी, सभापति के निर्देशों का पालन न करना और बहस के लिए होम वर्क न करने का सिलसिला जोर पकड़ता गया है। सदन का कार्य स्थगन आम बात हो गई है। ऐसे में सरकार की जवाबदेही का मसला पृष्ठभूमि में चला जाता है। क्या इससे संसदीय लोकतंत्र का मकसद पूरा होता है? क्या लोकतंत्र में दैनिक जनमत संग्रह संभव है? वोटों से सरकार गिर सकती है, पर किसी को चुप कराना उचित नहीं। जबरन चुप न कराने की बात सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों पर लागू होनी चाहिए। सरकार के जनादेश पर रोजाना सवाल नहीं खड़े किए जाने चाहिए।


क्या इन अवांछित स्थितियों के लिए गठबंधन राजनीति जिम्मेदार है? कुछ क्षेत्रीय दल खुल्लमखुल्ला सिद्धांतहीन राजनीति और घोर अवसरवाद का परिचय दे रहे हैं। वे विदेश नीति में भी अवसरवाद से बाज नहीं आ रहे। सियासत ज्यादा और गवर्नेंस कम हो गई है। हमारा सामाजिक पतन हो रहा है और हम कुबेर के उपासक बनते जा रहे हैं। नेता बड़ा हो या छोटा, अधिकतर का मकसद येन-केन-प्रकारेण तुरंत अधिक अमीर बनना और सत्ता पर काबिज होना है। राजनीति आज तू-तू और मैं-मैं का खेल बनती जा रही है। यह मेरा भ्रष्टाचार अच्छा और तुम्हारा भ्रष्टाचार बुरा बतलाने की कवायद बनता जा रहा है।


संसदीय लोकतंत्र आज चौराहे पर है। मुख्य दोष संसद में अनुचित आचरण करने वाले सांसदों का हैं। सत्ता के दलाल कम दोषी नहीं, जो अपने संकीर्ण निजी स्वार्थों की खातिर कुटिल चालें चलते हैं। सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष भी समान रूप से दोषी हैं? लेकिन, क्या हमारे लोकतंत्र का पतन सन्निकट है? क्या संसदीय लोकतंत्र की तुलना में राष्ट्रपति शासन प्रणाणी बेहतर है? लैटिन अमेरिका में लोकप्रिय आंदोलनों के दबाव में निर्वाचित राष्ट्रपतियों को भी इस्तीफा देने को बाध्य होना पड़ा है। अब दुनिया प्रतिनिध्यात्मक से भागीदारी-आधारित लोकतंत्र की दिशा में  बढ़ रही है। भारतीय नागरिक पहले की तुलना में अधिक जागरूक है। यह उम्मीद की सबसे महत्वपूर्ण किरण है।

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साख पर आंच


संसद

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मंदिर। जनता की समस्याओं का निराकरण करने वाली देश और दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पंचायत। सबकी आस्था और भरोसे का प्रतीक। सफलतापूर्वक 61 साल पूरे करने वाली संस्था। हमारी उम्मीदों, आशाओं और आकांक्षाओं को आधार देने वाली हमारे जनप्रतिनिधियों की पंचायत।


साल

2012 में 13 मई को संसद की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर एक विशेष सत्र का आयोजन किया गया। इस विशेष सत्र में हमारे राजनेताओं ने अपनी खूबियों को सराहा तो खामियों की पहचान कर दुरुस्त करने संबंधी प्रस्ताव पेश किया। सर्वसम्मति से पारित इस प्रस्ताव के तहत  सभी सदस्यों से यह अपेक्षा की गई कि उनका आचरण सदन की गरिमा और संसद की मर्यादा बनाए रखना वाला होगा।


सवाल

आगामी 13 मई को संसद 61 साल की हो जाएगी लेकिन 60 साल पूरे करने के मौके से अब तक इसके जितने सत्र चले सभी में अमर्यादाओं और अगंभीरता का रिकॉर्ड बना। वर्तमान लोकसभा का 13वां सत्र हंगामे के चलते समय से पहले स्थगित करना पड़ा। इसी के चलते 15वीं लोकसभा में सबसे कम विधायी कामकाज होने का रिकार्ड बनने जा रहा है। सत्ता और विपक्ष दोनों इसका ठीकरा एक दूसरे पर फोड़ते नजर आ रहे हैं। ऐसे में प्रस्ताव पारित करके उस पर 365 दिन तक भी अमल न करने वाली संसद के कामकाज में आती गिरावट आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।


12मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘समाधान की राह’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

12मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘दिखावे में पिट रही भद‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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