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लैंगिक चयन का खामियाजा भुगत रहे हैं हम सब

मुद्दा
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हालिया दुष्कर्म की खौफनाक वारदातों का संबंध जनसांख्यिकीय कारकों से भले ही असंगत लगे लेकिन कई समाजशास्त्री इस वजह से इन्कार नहीं करते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में बालकों की चाहत दुष्कर्म जैसे हिंसक मामलों की प्रमुख जड़ों में शामिल है। मारा विस्टेंनडाल की किताब ‘अननेचुरल सेक्स:चूजिंग बॉयज ओवर गल्र्स एंड द कांसीक्यूंसस ऑफ ए वल्र्ड फुल ऑफ मेन’ में इसको भी एक प्रमुख वजह माना गया है।भारत और चीन जैसे मुल्कों में महिलाओं और पुरुषों के बीच लिंगानुपात में बढ़ता अंतर, बालिकाओं की उपेक्षा जैसे कारणों से उनके खिलाफ हिंसा के मामलों में वृद्धि देखने को मिल रही है। इस मामले में जी-20 समूह देशों में भारत की स्थिति सबसे खराब है। लिंगानुपात असंतुलन का सीधा संबंध महिलाओं की तस्करी और शादी के लिए महिलाओं की खरीदफरोख्त से जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक साक्ष्यों और अध्ययनों से पता चलता है कि लड़कियों की कमी के चलते बड़ी संख्या में मौजूद अविवाहित व्यक्तियों के टेस्टोस्टेरॉन स्तर में वृद्धि समाज के लिए खतरा है।


प्राकृतिक रूप से बालिकाओं की तुलना में बालकों का अधिक जन्म (100 बालिकाओं पर 105 बालक) होता है। नवजात बालक, बालिकाओं की तुलना में अधिक कमजोर होते हैं। इसके अलावा यह भी सही है कि महिलाओं की जीवन प्रत्याशा पुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक होती है। लिहाजा सामान्य दशाओं में विवाह की आयु तक महिलाओं और पुरुषों का अनुपात लगभग बराबर यानी 1:1 होता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक जन्म लिंगानुपात (0-6 वर्ष) में आजादी के बाद सबसे अधिक गिरावट दर्ज की गई है। यह प्रति हजार बालकों पर 914 बालिकाएं पाया गया। हरियाणा में यह लिंगानुपात 1000 बालकों पर 830 पाया गया। यह असंतुलन विवाह के बाजार में गरीब और अशिक्षित पुरुषों पर बुरा असर डालता है। लिहाजा ऐसे युवा पुरुषों की पर्याप्त संख्या होती है जो अपने जीवन साथी की खोज नहीं कर पाने के कारण मानक वयस्क जीवन नहीं गुजार पाते। लैंगिक वरीयता का नुकसान अंतिम रूप से पुरुषों को ही उठाना पड़ता है।

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बहुआयामी विकारों की है परिणति


सुविचारित कड़े कानून, पुलिस सुधार और महिलाओं के प्रति सामाजिक मानसिकता में बदलाव से ही आज समाज में दुष्कर्म और हिंसा की संस्कृति का उन्मूलन और महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के खिलाफ वांछित नतीजे पाए जा सकते हैं। यदि अतीत के हादसों से कोई सबक नहीं सीखा जाता है तो उसकी बेहद दर्दनाक कीमत चुकानी पड़ती है। चंद दिनों पहले दिल्ली में पांच वर्षीय बालिका पर बर्बर यौन हमले ने एक बार फिर हमारी राष्ट्रीय आत्मा को झकझोरा। इस तरह के क्रूर यौन अत्याचारों पर भड़का जनाक्रोश और व्यापक विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला न सिर्फ गवर्नेंस के संकट, बल्कि समाज में नैतिक पतन की बढ़ती प्रवृत्तियों को भी रेखांकित करते हैं।


दुष्कर्म दीर्घकालीन प्रभावों की दृष्टि से भयावह अपराध है। इससे अथाह वेदना एवं भय पैदा होता है और यह सभ्य समाज के लिए शर्मनाक बात है। खासकर, बच्चों के साथ दुष्कर्म भयंकर मानसिक दुराचारिता है। यह एक जटिल, बहुआयामी और दूरगामी प्रभाव छोड़ने वाला कृत्य है। ऐसे अपराधों का मूल स्रोत पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। यौन अपराधी वे मूल्य सीखते हैं, जिनमें महिलाओं को भोग की वस्तु माना जाता है और उन पर आधिपत्य जमाने की बात कही जाती है। इस तरह के अपराधों पर जनता का रोष स्वाभाविक है, पर क्या उनकी बढ़ती संख्या आश्चर्यजनक है? भारतीय समाज में महिलाओं के साथ क्रूर व्यवहार किया जाता रहा है। कड़े कानूनों के बावजूद देश के कई भागों में कन्या-भ्रूण हत्या और बालिकाओं की हत्या का चलन जारी है। बालिकाओं के लालन-पालन एवं शिक्षा में भेदभाव हो या उनके आगे बढ़ने के अरमानों का गला घोंटना, वे अपने जीवन में हजार बार मारी जाती हैं।


दरअसल, समाज में पारंपरिक रूप से बालिकाओं के प्रति पूर्वाग्र्रह रहा है। कन्या-भ्रूण हत्या और बालिकाओं की हत्या के सिलसिले ने इस प्रवृत्ति को हिंसा के नए शिखर पर पहुंचा दिया है। इसी संदर्भ में महिलाओं के साथ क्रूर व्यवहार और हिंसा के दुष्चक्र को समझा जाना चाहिए। यौन अपराधियों के कई प्रयोजन होते हैं। पुरुष-प्रधान समाज में बेटों को उनकी गल्तियों के बावजूद शह दी जाती है। उनके दुराचरण पर पर्दा डालने के लिए मर्दानगी की दुहाई भी दी जाती है। कई मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि सभी दुष्कर्म पुरुषों की अनियंत्रित यौन इच्छाओं का नतीजा हैं, पर वे भूलते हैं कि यौन तुष्टि के बावजूद बलात्कारी पीड़िता पर शारीरिक हमला कर रहे हैं, जिसका यौन इच्छाओं या यौन संतुष्टि से कोई वास्ता नहीं है। दूसरी ओर नारीवादी चिंतक दुष्कर्म को पुरुष-प्रधान समाज की व्यापक समस्या का एक लक्षण मानते हैं। पलायन, जमीन से लोगों की बेदखली और बढ़ते शहरीकरण से भी दुष्कर्म की घटनाओं में वृद्धि हुई है। ऐसा भी नहीं है कि पुरुष रातोरात दुष्कर्मी बन गए हैं। हम पुलिस को कितना ही बुरा भला कहें, पर यह हकीकत है कि पहले की तुलना में अब महिलाओं पर हिंसा और दुष्कर्म के मामले अपेक्षाकृत आसानी से दर्ज किए जाते हैं, भले ही कुछ हद तक इसका श्रेय महिला-हितैषी विभिन्न कानूनों या मीडिया में तुरंत रिपोर्टिंग को जाता हो। दुष्कर्म और हिंसा की संस्कृति सिर्फ पारंपरिक समाजों तक सीमित नहीं, बल्कि सुशासित देश भी इस समस्या से ग्र्रस्त हैं। आबादी की दृष्टि से भारत की तुलना में सिंगापुर में दुष्कर्म की दर अधिक है। लेकिन वहां ऐसी घटनाओं पर भारत की तुलना में जनता का ध्यान कम जाता है। यूरोप के स्वीडन में दुष्कर्म की दर सर्वाधिक है। प्रति एक लाख व्यक्तियों पर लगभग 63 मामले, लेकिन यूरोप में मुकदमों का तुरंत निपटारा कर सजा दी जाती है। इस सिलसिले में भारत की स्थिति बेहद शोचनीय है।

आज समाज में वास्तविक चुनौती दुष्कर्म और हिंसा की संस्कृति के उन्मूलन की है, जिसके लिए सुविचारित कड़े कानून, पुलिस सुधार और महिलाओं के प्रति सामाजिक मानसिकता में बदलाव आवश्यक हैं। हमें गंभीर चिंतन करना होगा कि हमारे युवक इतने हिंसक क्यों बन रहे हैं? उन्हें यह शिक्षा देने के प्रभावी तौर तरीके अपनाने होंगे कि वे हिंसा को हर हाल में घृणा एवं तिरस्कार के रूप में देखें।

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