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आसान निशानों पर बढ़ता खतरा

मुद्दा
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आतंकवादी हमलों के खिलाफ वैश्विक स्तर पर चहुंतरफा बढ़ी हुई सक्रियता, मुस्तैदी और चौकसी के बीच आतंकियों को हमले की रणनीति में बदलाव करने पर विवश होना पड़ा है।अमेरिका में बोस्टन मैराथन के दौरान हुए बम धमाकों के तत्काल बाद बेंगलूर विस्फोट के साथ ही आतंकवाद के फिर से उठ खड़े होने और इससे लड़ने में देशों की नाकामी संबंधी उन्मादी आकलन पेश किए जाने लगे हैं। ये निष्कर्ष कई वजहों से निराधार हैं। पहला, किसी भी संभावित आतंकी हमले के खिलाफ 100 प्रतिशत सुरक्षा कवच की गारंटी की अपेक्षा करना सही नहीं है। 9/11 आतंकी घटना के बाद अमेरिका में संस्थागत बदलावों और सरकार की नई पहलों की वजह से आतंक से मुक्ति की धारणा भी तथ्यात्मक रूप से गलत है।


दुर्भाग्य से हमारे यहां उच्च सरकारी स्तर पर विशेष रूप से राष्ट्रीय आतंक-रोधी केंद्र (एनसीटीसी) की रहनुमाई करने वाले लोगों का मानना है कि जिस तरह एनसीटीसी के गठन के बाद अमेरिका सुरक्षित हो गया उसी तरह यहां भी इसको अमलीजामा पहनाया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि 2001 के बाद से अमेरिका आज तक पूरी तरह आतंकवाद से मुक्त नहीं रहा है। 2006 में नवीद अफजल हक ने ग्रेट सिएटल के जुईस फेडरेशन में अंधाधुंध फायरिंग कर एक व्यक्ति की हत्या कर दी। 2007 में साल्ट लेक सिटी में सुलेमान तालोविक ने पांच लोगों की हत्या कर दी। इसी तरह 2009 में अमेरिकी सेना में मेजर निदाल मलिक हसन ने टेक्सास के सैन्य प्रतिष्ठान में 14 लोगों की हत्या कर दी। इसके अलावा कम से कम तीन ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं ऐसी हैं जिनमें सुरक्षा एजेंसियों की कुशलता के बजाय आतंकियों की अक्षमता की वजह से दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं होते-होते बचीं। ये हैं – शू बम-रिचर्ड रीड (2001), अंडरवियर बम-उमर फारुक अब्दुलमुतालब (2009) और टाइम्स स्क्वायर केस- फैसल शहजाद(2010)।


हमारे देश में आतंक से लड़ने के मसले पर रणनीति और नीति के सर्वोच्च स्तर पर इन बुनियादी वास्तविकताओं को नजरअंदाज करते हुए 9/11 के बाद अमेरिकी सफलता की गाथाओं के लिए जिन ‘जादुई’ जवाबों को तर्कसंगत ठहराया जा रहा था वे बोस्टन धमाके के बाद धूल-धूसरित हो गए। इसी तरह बेंगलूर धमाके के बाद देश में ‘आतंकी खतरे के बढ़ने की चेतावनी’ भी तथ्यों से परे है। दुर्भाग्य से हर आतंकी घटना के बाद इस तरह की बातें सुनने को मिलती हैं। जबकि आतंक के वास्तविक खतरे का आकलन घटनाओं के बजाय प्रवृत्ति (ट्रेंड) से किया जा सकता है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में 2001 की 5,839 आतंकी घटनाओं की तुलना में 2012 में कमी होते हुए 804 तक पहुंच गई। 2012 में जम्मू-कश्मीर के बाहर इस तरह की एक घटना पुणे धमाके के रूप में देखी गई। 2011 में जम्मू-कश्मीर के बाहर इस तरह की तीन आतंकी हमले हुए जिनमें 42 लोग मारे गए। यद्यपि इसका यह आशय नहीं है कि भारत में खतरा कम हो गया है। कई बाहरी कारकों, सुरक्षा एजेंसियों विशेष रूप से खुफिया एजेंसियों की वजह से खतरे कम हुए हैं। इनकी क्षमताओं में इजाफा करने के बजाय राजनीतिक कार्यपालिका आश्चर्यजनक रूप से ऐसे पहलुओं पर ध्यान दे रही है जिनका वास्तविक आतंक रोधी क्षमताओं पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। वास्तव में बेंगलूर और बोस्टन धमाकों का यही सबक है कि खंडित आतंकी समूह के बड़े और सुरक्षित ठिकानों पर निशाना नहीं साध पाने के कारण आसान ठिकानों (साफ्ट टारगेट) पर खतरा बढ़ गया है।

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आधी-अधूरी तैयारी से मुश्किल होगी भारी

26/11 के बाद जिन बड़े कदमों की घोषणा की गई थी, उनमें तीन सबसे अहम अभी तक पूरे नहीं हो सके हैं।मुंबई के आतंकी हमले के साढे़ चार साल बाद भी सुरक्षा एजेंसियां ऐसी घटनाओं को रोकने में सक्षम नहीं है। 26/11 के बाद की गई घोषणाओं में केवल दो लागू हो सकी हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता भी सवालों के घेरे में है।


हमले के एक महीना बाद ही आतंकी मामलों की जांच के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) का गठन कर दिया गया। पर हकीकत यह है कि दिल्ली हाई कोर्ट और हैदराबाद धमाके के अलावा किसी भी मामले की जांच तत्काल नहीं सौंपी गई है। जबकि एनआइए कानून में इसे आतंकी हमले की जांच स्वत: हाथ में लेने का अधिकार दिया गया है। एनआइए के अलावा सरकार एनएसजी के कोलकाता, मुंबई, चेन्नई और हैदराबाद में चार हब खोलने में सफल रही, लेकिन सरकार के पूर्व सुरक्षा सलाहकार व पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एमके नारायणन चार हब खोलने के फैसले पर ही सवाल उठा रहे हैं।


इसी तरह आतंकी मंसूबों को ध्वस्त करने के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र (एनसीटीसी) राजनीतिक दावपेंच में उलझकर रह गई है। मुख्यमंत्रियों के विरोध के बाद सरकार ने प्रस्तावित एनसीटीसी के पर कतरना तक कबूल कर लिया, लेकिन इसके बाद भी इसे शुरू नहीं किया जा सका है। पिछले पांच महीने से गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे एनसीटीसी पर किसी भी तरह से मतभेद से इन्कार कर रहे हैैं, लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि इसके बावजूद इसे शुरू क्यों नहीं किया जा रहा है। ले-देकर आतंकी गतिविधियों पर नजर रखने की जिम्मेदारी मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक) तक सिमटकर रह गई है। लेकिन मैक की भूमिका आतंकवाद से सीधे निपटने की न होकर सिर्फ पोस्टमैन ही है, जो विभिन्न एजेंसियों से मिली जानकारी को आगे भेज देती है। जबकि सभी खुफिया जानकारी साझा करने के लिए प्रस्तावित नैटग्र्रिड का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। इसी तरह से  अपराध व अपराधियों पर नजर रखने वाली प्रणाली (सीसीटीएनएस) को पिछले साल पूरा हो जाना था, लेकिन अभी तक इसके पायलट प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है।


चूंकि मुंबई हमले के लिए आतंकी समुद्री रास्ते से आए थे, इसीलिए सरकार ने देश की 7517 किमी लंबे समुद्री तट पर चौबीसों घंटे निगरानी की योजना तैयार की थी। इसके तहत 110 रडार लगाए जाने थे, जिससे समुद्र में 80 किमी तक नजर रखी जा सकती थी, लेकिन इनमें अभी तक केवल दो रडार ही लग सके हैैं। इसी तरह दूर-दूर तक फैले समुद्र में चल रही गतिविधियों पर नजर रखने के लिए विशेष उपग्र्रह बनाए जाने थे। इसके माध्यम से समुद्र के भीतर 1600 किमी दूर तक की गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती थी। लेकिन यह भी अभी तक दूर की कौड़ी ही है। समुद्री तटों की सुरक्षा की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गुजरात की 1214 किमी लंबे तटों की सुरक्षा के लिए केवल 10 पुलिस स्टेशन और 25 चेकपोस्ट है।


21अप्रैल  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘कानून नहीं, लगता है माननीय हो चुके हैं अंधे’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

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