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नेता बदले हैं तभी बदली है जुबान

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जैसे-जैसे राजनीति पर पैसे और परिवार की सत्ता का जोर बढ़ता गया है, बकवास बयानबाजी की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। बिहार की राजनीति में श्रीकृष्ण सिन्हा और अनुग्रह नारायण सिन्हा की प्रतिद्वंद्विता नामी है। एक बार दोनों आमने-सामने भी हुए। मुख्यमंत्री चुनने के लिए बाजाप्ता वोटिंग हुई। दोनों की ओर से लोग खुलकर भिड़े भी, पर जैसे ही परिणाम आया अनुग्रह बाबू और श्री बाबू गले मिले और सार्वजनिक रूप से फूट-फूट कर रोए। दोनों को इस बात का अफसोस था कि वे कैसे दूसरों के कहने पर आपस में लड़ बैठे और उनके नाम पर जाने क्या-क्या कहा और सुना गया। लालबहादुर शास्त्री ने गृह मंत्री रहते हुए केशवदेव मालवीय के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के आदेश दिए। जब जांच में कुछ आरोप सही पाए गए तो वे इसकी और कार्रवाई की खबर देने के लिए खुद मालवीय के घर गए। यह अलग बात है कि खबर सुनकर उन्होंने शास्त्रीजी को दौड़ा लिया था।


आज नेताओं की बयानबाजी में जहरबुझी बातें, कटाक्ष, असंसदीय भाषा का प्रयोग, शुद्ध गाली-गलौज, पूर्वाग्रह और भ्रांतियों को देखने के लिए इतने लंबे कालक्रम पर नजर दौड़ाने की जरूरत नहीं होगी। लगभग हर दिन किसी न किसी नेता की विवादास्पद टिप्पणी देखने-सुनने को मिल जाती है। हाल ही में दिल्ली के चर्चित दुष्कर्म कांड के बाद तो ऐसा हो गया कि दिन में कई-कई नेताओं के महिला विरोधी बयान आ जाते थे। आजादी के आंदोलन को याद करिए तो मौलाना आजाद को कांग्रेस का प्लेब्वॉय कहना जिन्ना के लिए कितना महंगा पड़ा, यह इतिहास की चीज बन गई है। नेताओं को बयान देकर संभालना भी नहीं आता। जब लालू प्रसाद यादव बिहार में विपक्ष के नेता थे तो उन्होंने जगन्नाथ मिश्र पर राज्य का काफी कुछ चुराने और हीरे-मोती जमा करने का आरोप लगाया। जाहिर तौर पर सदन में हंगामा मचना था। जब अध्यक्ष ने दखल दिया और उनसे अपनी बात के पक्ष में प्रमाण देने को कहा तो लालूजी ने डॉक्टर बुलवाकर मिश्रजी का पेट चिरवाने और वहां से हीरे-जवाहरात निकलवाने की बात कही। मिश्र का पेट निकला हुआ था सो इस सुझाव पर जबरदस्त ठहाका लगा और बात आई-गई हो गई।


इधर बीच राजनेताओं का उनके बयानों पर सार्वजनिक माफी के बाद भी विवाद का शांत न होना बताता है कि एक तो बयान में सारी सीमाएं तोड़ दी गईं और प्रमाण के तौर पर उसका कैमरे में कैद हो जाना है। इसके और भी गहरे मतलब हैं। अगर कोई नेता जातिवादी और महिला विरोधी बात कह जाता है तो हम यह सोचकर भी उसकी माफी को कबूल कर लेते हैं कि ये बीमारियां हमें संस्कारों में मिली हैं। हम ऐसी चीजें दूसरों से भी सुन चुके होते हैं। जब कोई नेता या बड़ा आदमी बोलता है तो यह जरूर अखरता है क्योंकि उससे हरदम अच्छे और मार्ग दिखाने वाले काम और कथन की ही उम्मीद की जाती है। फिर हमारी प्रतिक्रिया पद और नेता के कद से भी तय होती है। राष्ट्रपति का बेटा अगर महिलाओं बारे में कुछ गलत बोलता है तो उसकी भत्र्सना ज्यादा होती है। गली का नेता कुछ भी बोले ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। फिर संस्कार और भ्रांतियों का भी हिसाब है। अब गुलजारी लाल नंदा किसी ठग के चक्कर में सोना बनवाने का चर्चित प्रयोग यूं ही नहीं करवा रहे थे। और राष्ट्रपति बनकर राजेंद्र बाबू काशी के पंडितों का पांव पखारने पर संस्कार के चलते ही अड़े थे।


अजीत पवार वाले मसले में सत्ता का घमंड और जनता को कुछ न समझने का गुरूर असली गड़बड़ है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा बांध हैं। सिंचाई पर सबसे ज्यादा खर्च हुआ है। गन्ना और अंगूर की खेती के लिए पानी है, फिल्म की शूटिंग पर बहाने के लिए पानी है। ऐसे में किसानों द्वारा सर्वाधिक संख्या में आत्महत्या करने वाले क्षेत्र से जब लोग पीने के पानी के लिए अनशन करें तो सिंचाई मंत्री पेशाब करने की बात कहें यह सिर्फ जुबान फिसलना और संस्कारगत सोच के चलते नहीं हो सकता। इसमें सत्ता का गुरूर और जनता को ठेंगे पर रखकर भी सत्ता में बने रहने का भरोसा या भ्रम जिम्मेवार है।


आज संस्कारगत या भ्रांति या गलत सोच के चलते (जैसे माक्र्सवादी प्रभाव में धर्म को गाली देना या विकास के खास मॉडल को मानने के चक्कर में बाकी को पिछड़ा  और गंवार मानना) दिए जाने वाले बयान कम हुए हैं पर नेताओं के दिमाग चढ़ने से ज्यादा बयान आने लगे हैं। इन सबका जबाब भी लोगों को ही देना है और कहीं न कहीं वे भी चूक रहे हैं।

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शुचिता का संकट

मंत्र

ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय… वाणी एक अमोल है जो कोई बोलै जानि जैसे तमाम सूत्रवाक्य मीठे वचनों की महत्ता को बताने के लिए काफी हैं। जुबान से ही किसी की शख्सियत का पता चलता है। आपके एक ‘बोल’ आपकी बाहरी छवि और भीतरी मानसिकता का पोल खोलने के लिए काफी होते हैं। उन लोगों के लिए संयमित और संतुलित वाणी की चुनौती और बढ़ जाती है जिनकी अपनी एक ‘सार्वजनिक छवि’ होती है। जनता जिन्हें अपना आदर्श मानकर उनके बताए रास्तों का अनुकरण करना अपना धर्म समझती है।


मर्यादा

ऐसे ही सार्वजनिक छवि वाले लोग हमारे राजनेता भी हैं, लेकिन हाल की घटनाओं को देखकर लगता है कि विवादास्पद बयान देने की जैसे इनके बीच होड़ लगी हो। वाणी का संयम खोने वाले किसी खास दल के नहीं बल्कि कमोबेश सभी प्रमुख दलों के नेता शामिल हैं। ये सभी लोग हाल फिलहाल में अपने श्रीमुख से ऐसे ‘बोली’ बोल चुके हैं जो इनके पद, प्रतिष्ठा और गरिमा के कतई प्रतिकूल है। दुर्भाग्य यह है कि राजनीति में बदजुबानी से जगहंसाई कराने वाले सियासी नुमाइंदों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। उचित तो यह होता कि हमारे सियायतदां अपने मजबूत आचरण से आदर्श मानक गढ़ते जिससे हमारा लोकतंत्र और मजबूत होता।


मर्म

हमारे माननीयों का अपना एक जनाधार है। इनको सुनने और देखने के लिए लाखों की भीड़ किसी भी मौसम में बेपरवाह तैयार रहती है। ऐसे में इनके बयानों को लेकर शुचिता की अपेक्षा करना बेमानी नहीं है। बयानवीरों की यह बढ़ती प्रवृत्ति राजनीति और हमारे लोकतंत्र के लिए किसी खतरे से कम नहीं है। ऐसे में अपने राजनेताओं से अनुकरणीय आचार, विचार और व्यवहार की अपेक्षा करना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।


14अप्रैल  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘लोकतांत्रिक सामंतवाद की यह परिणति है’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

14अप्रैल  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘अमर्यादित नेताओं का किया जाए तिरस्कार’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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