Menu
blogid : 4582 postid : 2639

साडा हक एत्थे रख

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments

हम तो भारत के समावेशी व टिकाऊ विकास के लिए विशेष दर्जा मांग रहे हैं। हम तमाम पिछड़े राज्यों को इस दायरे में शामिल करने के पक्ष में हैं।

यह सच्चाई खुलेआम रही है कि बिहार की ऐतिहासिक उपेक्षा हुई है। आजादी के बाद इसे ‘आंतरिक उपनिवेश’ बना दिया गया। भाड़ा समानीकरण (फ्रेट इक्वालाइजेशन) की नीति ने तो हमारी आर्थिक कमर तोड़ दी। खनिज बिहार के, कारखाने लगे दूसरे प्रदेशों में। उपेक्षा का लंबा कालखंड कई मौकों पर तो यह भयावह भ्रम पेश करता रहा है कि क्या बिहार, भारत का अंग नहीं है? विकसित राज्यों की बराबरी में खड़ा होने का अधिकार उसे नहीं है? क्या यह उसके अपने बूते की बात है? विशेष राज्य का दर्जा, आदर्श संघीय व्यवस्था की सबसे बड़ी दरकार है।


बेशक, अभी बिहार की विकास दर सर्वाधिक है लेकिन यह हमारी सरकार के ‘ड्राइव एंड डायरेक्शन’ का नतीजा है। इस आधार पर यह कहना कि फिर विशेष दर्जा की क्या जरूरत है, साढ़े दस करोड़ बिहारियों के अरमानों को जिंदा दफनाना होगा। असल में मानव विकास के तमाम सूचकांक के मामले में बिहार निचले पायदान पर है। स्वयं केंद्र व उसकी एजेंसियां ऐसा कहती हैं। अभी बिहार की जो विकास दर है, उस रफ्तार में हमें राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंचने में कम से कम 25 वर्ष लगेंगे। इतना लंबा इंतजार कोई कर सकता है? हम तो भारत के समावेशी व टिकाऊ विकास के लिए विशेष दर्जा मांग रहे हैं। हम तमाम पिछड़े राज्यों को इस दायरे में शामिल करने के पक्ष में हैं। और अब तो केंद्र सरकार ने हमारे तर्कों को कबूलते हुए हमारी मांग पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे दी है। 27 फरवरी, 2013 को संसद में पेश आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि विशेष राज्य के दर्जा के लिए मानकों में बदलाव आवश्यक है। इसके अगले दिन बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने बजट प्रस्ताव में स्वीकार किया कि पिछड़ापन निर्धारित करने के मानकों में बदलाव जरूरी है।

विशेषज्ञों ने माना है कि तरक्की की रफ्तार को और तेज करने, रोजगार के अवसर बढ़ाने, उद्योगों का जाल बिछाने और संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए बिहार को विशेष राज्य का दर्जा बेहद जरूरी है।


मैं कुछ उदाहरण दे रहा हूं। (देखें बॉक्स) बुनियादी सवाल है कि इन हालात को झेलने वाले प्रदेश के प्रति ‘दिल्ली’ की कोई जिम्मेदारी है कि नहीं?  दशकों की लगातार उपेक्षा बिहार की हालत के मूल में है। बहरहाल, विशेष दर्जा के लिए 2006 से जारी हमारा प्रयास अब मुकाम तक पहुंचने ही वाला है। बिहार, पुनर्जागरण की दौर में है। विकास की जगी भूख और अस्मिता के एहसास को मारने का अपराध अब कोई नहीं कर सकता है। हमने मुद्दा से जोड़कर राजनीति की नई प्रक्रिया देश के सामने पेश की है। विकास के साथ शासन, नया ट्रेंड है।

………………………..


विशेष अवसरवादी पैंतरा

फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति चाल्र्स डि गॉल का यह कथन कि राजनीति एक अत्यंत गंभीर मसला है, जिसे सिर्फ नेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए, क्या विशेष दर्जा पर यह उद्धरण सटीक नहीं बैठता?

पिछले कुछ दशकों में हमने देश में ओबीसी कोटा और राज्य का दर्जा जैसे मामलों में प्रतिस्प- र्धात्मक राजनीति का अवसरवादी दौर देखा और अब पिछड़े राज्यों के लिए ‘विशेष पैकेज’ की सियासत चरम पर है। संदेह नहीं कि बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार का कार्य-प्रदर्शन अच्छा रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी सराहना हुई है। कुछ साल पहले ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने लिखा था- ‘बिहार इसकी मिसाल है कि किस प्रकार कुछ छोटे से नजर आने वाले बदलावों की बदौलत भारत के सर्वाधिक दरिद्र क्षेत्रों में शानदार उपलब्धियां पाई जा सकती है।’ भारत के पूर्व निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी ने तो पश्चिम बंगाल को बिहार मॉडल के अनुसरण की बात तक कह डाली।


मशहूर लेखक वीएस नायपॉल ने एक जमाने में बिहार की खराब स्थिति का चित्रण करते हुए उसे ‘पृथ्वी के आखिरी सिरे’ की संज्ञा दे दी थी। लेकिन, गवर्नेंस में नीतीश के सदाशयी प्रयासों से वह देश का एक चमकता सितारा राज्य बन गया। चुनाव नजदीक आने पर भारतीय राजनीति एक सोपओपेरा का रूप ग्रहण कर लेती है। नेता चुनाव में अपना असली रंग दिखाते हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम पहले ममता, नीतीश और अन्य मुख्यमंत्रियों द्वारा विशेष पैकेज मांगे जाने पर साफ मना कर रहे थे, पर अब अचानक इस मांग पर अनुकूल रुख अख्तियार करते नजर आ रहे हैं। हमारी राजनीतिक पार्टियों की दूसरी खासियत पाखंडी आचरण है। वे सैद्धांतिक राजनीति के बजाए राजनीतिक अवसरवाद का मार्ग अपनाती हैं।  नीतीश के नेतृत्व में बिहार ने विभिन्न मोर्चों पर अब तक अच्छी प्रगति की है, पर यह समझ से परे है कि वह इस राज्य को बैसाखियों पर क्यों आश्रित करना चाहते हैं? संवृद्धि और समृद्धि किसी आर्थिक पैकेज या विशेष दर्जे से नहीं आती। उत्तरपूर्वी राज्यों की मिसालें सामने हैं। फिर भी, यह तर्क दिया जा सकता है कि इन राज्यों में उग्र्रवादी हिंसा की गंभीर समस्या है और उनका राष्ट्र की मुख्यधारा में पूर्ण एकीकरण अभी बाकी है। लेकिन, मुख्यधारा के बिहार, झारखंड और पंजाब जैसे राज्यों के साथ विशेष व्यवहार की मांग पर कैसे विचार किया जा सकता है? यदि यह होता है तो माओवादी हिंसा झेलने वाले ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र को इस तरह की मांग उठाने से कैसे रोक पाएंगे?


31 मार्च  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘नीति पर राजनीति‘ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

31 मार्च  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘उल्टा चलो रे …’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


Tags: Bihar politics, separation of Bihar, Bihar chief minister, Bihar chief minister Nitish Kumar, Separation of states in India, division of states in India based on language, बिहार, बिहार विशेष राज्य का दर्जा, बिहार विशेष राज्य का दर्जा और भारत, भारत राजनीति, बिहार राजनीति

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh