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बेतरतीब ढांचे में उम्मीद बेमानी

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शिक्षा

clip artसपने देखने-दिखाने में दशकों बीत गये। फिर भी पढ़ाई-लिखाई में सब कुछ बेतरतीब। सरकार का फिर एक बजट आने वाला है। उसमें भी बेहतरीन तालीम के कुछ सपने मन को बहलाने का जरिया बन सकते हैं, लेकिन गुणवत्ता, उपलब्धता और कीमत का सवाल हल हुए बिना कुछ हासिल होने की बात बेमानी है।


एक नजर जरूर डालिए कि हम कहां हैं? टॉप 200 विश्वविद्यालयों में हमारा एक भी शामिल नहीं है। देश में 22 करोड़ बच्चे स्कूल जाते हैं, लेकिन उनमें से कॉलेज सिर्फ 70 लाख ही पहुंचते हैं। 11वीं व 12वीं के सिर्फ तीन प्रतिशत छात्र ही व्यावसायिक शिक्षा पाठ्यक्रम अख्तियार कर रहे हैं। ऐसे में आज के युवा की पढ़ाई उसका कल कैसा बनाएगी, अंदाजा लगाया जा सकता है।


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जरूरतों को पूरा करने में हम खड़े कहां हैं, जब अगले आठ साल में स्कूलों से कॉलेज पहुंचने वाले छात्रों की संख्या लगभग दोगुनी करनी है। सैकड़ों नये विश्वविद्यालयों के साथ ही कम से कम आठ-नौ सौ नए कॉलेजों की जरूरत होगी। मौजूदा 40 से 45 हजार कॉलेजों में सीटों की संख्या भी दोगुनी करनी होगी। आलम यह कि सरकार ने तो बीते महीनों में मौजूदा साल के लिए तय स्कूली शिक्षा के 25 हजार करोड़ के बजट में ही 2000 करोड़ की कटौती कर दी है। जबकि, जरूरत स्कूली शिक्षा बजट को दोगुना करने की है।


पढ़ाई की बड़ी गणित महंगाई से जुड़ी है। आइआइटी, आइआइएम जैसे संस्थानों की पढ़ाई महंगी हो रही है, जबकि निजी क्षेत्र की पढ़ाई तो और भी महंगी है। दूसरी तरफ संसाधनों के विस्तार व बाकी जरूरतों को पूरा करने में सरकार हकीकत से बहुत दूर खड़ी है। ऐसे में साफ है कि बगैर क्वालिटी, कीमत और उपलब्धता का सवाल हल किए और व्यावसायिक शिक्षा का रूट मजबूत किए वह शिक्षा की गाड़ी पटरी पर नहीं ला सकती।

इस आलेख के लेखक राजकेश्वर सिंह हैं

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ग्रोथ के अगले इंजन को चाहिए समुचित ईंधन


शहरी विकास


अध्ययन बताते हैं कि अगले दस वर्षों में साठ फीसद जीडीपी शहरों से आएगी। लेकिन उसके पहले निवेश की जरूरत होगी। जितना निवेश उतनी आमद।


भारत में फिलहाल लगभग 35 करोड़ आबादी शहरों में रह रही है जो अगले पंद्रह-सत्रह वर्षों में 60 करोड़ तक पहुंच जाएगी। पिछले दस वर्षों में शहरों के विकास के लिए जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना के अलावा कुछ याद ही नहीं आता है। कुछ वर्ष पहले राजीव आवास योजना पर चर्चा जरूर शुरू हुई लेकिन अब तक कोई ठोस योजना नहीं बन पाई है। भारतीय शहरों और पूरे भारत के लिए सरकार की यह अनदेखी, उदासीनता और नीतिगत अभाव अभिशाप बनने लगी है। यह हाल तब है जबकि सरकार की ही ईशर विशेषज्ञ समिति के साथ साथ मैकेंजी ने भी स्पष्ट कर दिया है कि जरूरतें बहुत बड़ी है। हां, उसके साथ ही संभावनाएं भी अपार हैैं। मैकेंजी की रिपोर्ट के अनुसार अगले दस वर्षों में साठ फीसद जीडीपी शहरों से ही आएगी। गौरतलब है कि वर्ष 2007 में विश्व की जीडीपी का आधा हिस्सा केवल 380 शहरों से आया था। यह वह शहर थे जो आर्थिक रूप से संपन्न होने के साथ साथ सामाजिक और ढांचागत स्तर पर भी समृद्ध हैं। आशा की जा सकती है कि सरकार आवास और परिवहन की दो सबसे बड़ी समस्या पर जल्द ध्यान देगी। रिपोर्ट के अनुसार भारत को अगले सत्रह वर्षों में लगभग 40 लाख करोड़ रुपये खर्च करने होंगे।


इस आलेख के लेखक आशुतोष झा हैं

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स्पष्ट नीति से बढ़ेगी विकास दर


ऊर्जा क्षेत्र


आंकड़ों में भले ही सरकार दावा करती हो कि उदारीकरण के बाद से देश की बिजली उत्पादन क्षमता ढाई गुना बढ़ चुकी है, कई विदेशी कंपनियों को भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की खोज का ठेका जा चुका है, अभी तक का सबसे बड़ा गैस भंडार खोजा गया है आदि आदि। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि पूरे देश में भयंकर बिजली कटौती होती है, कोयले की कमी से संयंत्र बिजली नहीं बना पा रहे, आयातित कच्चे तेल पर निर्भरता और बढ़ी है, आम आदमी पर महंगे पेट्रोलियम उत्पादों का बोझ बढ़ता जा रहा है। हालात ऐसे हैं जिसमें देश की पूरी ऊर्जा अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती दिख रही है।

वैसे ऊर्जा क्षेत्र की अधिकांश दिक्कतों को बजट से दूर नहीं किया जा सकता फिर भी आगामी बजट से उम्मीद की जानी चाहिए। कम से कम सरकार इससे नीतिगत स्पष्टता लाने की कोशिश करेगी। बिजली क्षेत्र को पर्याप्त कोयला उपलब्ध कराने, कोयला ब्लाकों को पर्यावरण व वन संबंधी मंजूरी देने जैसे मुद्दों पर स्पष्ट नीति रखी जानी चाहिए।


चालू वित्त वर्ष के दौरान डीजल की कीमत बढ़ाने और सस्ते रसोई गैस सिलेंडर की सालाना संख्या को सीमित करने के बावजूद केंद्र सरकार पर वर्ष 2012-13 के दौरान 80 से 85 हजार करोड़ रुपये का सब्सिडी बोझ पड़ने के आसार हैैं। राजकोषीय घाटे को 5.3 फीसद पर सीमित करने के रास्ते में यह एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में पेट्रोलियम सब्सिडी को लेकर एक स्पष्ट नीति की जरूरत है। चूंकि यह मसला सीधे तौर पर तेज आर्थिक विकास दर और युवा रोजगार से जुड़ा हुआ है। अगले दस वर्षों में दस करोड़ युवाओं को रोजगार देने के लिए अर्थव्यवस्था में नौ फीसद की वृद्धि दर चाहिए। नौ या दस फीसद की वृद्धि दर के लिए हर ऊर्जा क्षेत्र में औसतन दस फीसद की विकास दर चाहिए।

इस आलेख के लेखक जयप्रकाश रंजन हैं

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कब दिखेगा सुधारने का साहस


बेहतर सेहत


अचानक आई बीमारी से लड़ने के लिए महंगी दवा खरीदने की मजबूरी लोगों को सबसे ज्यादा भारी पड़ रही है। ऐसे में देश भर में मुफ्त दवा योजना को लागू करने के लिए पर्याप्त धन मुहैया करवाना होगा। सभी राज्यों को इसके लिए खरीद, भंडारण और वितरण की ढांचागत व्यवस्था तैयार करने में मदद करनी होगी। इसी तरह केंद्रीय योजनाओं के लिए होने वाली खरीद प्रक्रिया को हर हाल में दुरुस्त करना होगा।

Read:खाद्य सुरक्षा एक्ट की राह में रोड़े


शहरी गरीबों की हालत गांव के लोगों से भी बदतर है। तीन साल से लटके पड़े शहरी स्वास्थ्य मिशन को शुरू करना बेहद जरूरी होगा। जच्चा और बच्चा की सेहत के लिए जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम तो शुरू किया गया, मगर इस साल देश भर में इसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा। अब सरकार को यह गारंटी देनी होगी कि एक भी बच्चा कुपोषण का शिकार नहीं होगा।

देश में सिर्फ छह एम्स काफी नहीं। जीवनशैली संबंधित बीमारियों की तरफ अतिरिक्त ध्यान देना होगा। स्वास्थ्य में हमारा शोध आज भी पिछड़ा हुआ है। पर्याप्त बजटीय प्रावधान के साथ इसे प्राथमिकता में लाने की जरूरत है।


इस आलेख के लेखक मुकेश केजरीवाल हैं

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बड़ी अपेक्षा वाला क्षेत्र उपेक्षा का शिकार


सबको भोजन


food securityखेती के सामने जहां भूख से निपटने की चुनौती है, वहीं खाद्य उत्पादों की महंगाई को थामने की मुश्किलें भी। इन बुनियादी जरूरतों के लिए खेती से पर्याप्त उपज की अपेक्षा तो है, लेकिन तमाम समस्याओं से जूझ रही खेती खुद उपेक्षा की शिकार है। पिछले कुछ साल में खेती की लागत बढ़ने से महंगाई का बड़ा हिस्सा खेतों के रास्ते रसोई में घुस चुका है।


निरंतर घटते संसाधनों के बीच खेती जलवायु परिवर्तन की मार झेल रही है। कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो तापमान में वृद्धि के चलते गेहूं व चावल की उत्पादकता में कमी आना तय है। इसके विपरीत जनसंख्या और जीवन स्तर में सुधार से खाद्यान्न की मांग बढ़ रही है। ऐसे में खेती पर दोहरा बोझ है। लागत में वृद्धि होने से खाद्य उत्पादों की महंगाई से उपभोक्ता हलकान है। दूसरी तरफ फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पाने की वजह से खेती के प्रति निराशा बढ़ी है।


चुनावी साल के लिए पेश होने वाले आम बजट में सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित कराने की जुगत में है। लेकिन इसके लिए सालोंसाल जितने अनाज की जरूरत पड़ेगी, खेती उसके लिए कतई तैयार नहीं है।

आम बजट में खेती को बहुत कुछ मिलेगा, इसकी संभावना कम ही है। उसकी सभी योजनाओं में 15 फीसद की कटौती की घोषणा पहले ही कर दी गई है। सरकार ने परंपरा से हटकर थोड़ा सा ध्यान दिया तो खाद्यान्न रखने के लिए गोदाम कम पड़ गए। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के साथ दूसरी हरितक्रांति की पहल से खेती को बल मिला है। लेकिन खेती का दो तिहाई हिस्सा आज भी असिंचित यानी बारिश पर निर्भर है। खाद्यान्न की मांग को पूरा करने के लिए खेती की पैदावार में कई गुना की वृद्धि होनी चाहिए।


इस आलेख के लेखक सुरेंद्र प्रसाद सिंह हैं


Read:चिदंबरम के सामने चुनौतियां


Tags: government budget and the economy, government budget 2012, government budget 2012 India, government budget 2013, बजट,  गरीबी, बेरोजगारी

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