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कैसा हो नए भारत का आम बजट

मुद्दा
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यदि सरकार समावेशी और संतुलित विकास को लेकर गंभीर है तो अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने के बजाय बजट का दायरा बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है। इसके लिए टैक्स-जीडीपी अनुपात में सुधार के साथ विभिन्न क्षेत्रों की प्राथमिकताओं को भी बदलना होगा। वंचित वर्गों का भी खास ख्याल रखना होगा।


करीब एक दशक से विकास के अधिकांश सेक्टरों में वित्तीय स्रोतों की कमी से उनकी गुणवत्ता प्रभावित हुई है। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 2.5 प्रतिशत, स्वास्थ्य पर दो, खाद्य सुरक्षा पर एक, सार्वभौमिक वृद्धावस्था पेंशन पर दो और जल एवं साफ-सफाई पर एक प्रतिशत अतिरिक्त खर्च करने की जरूरत है। सरकार को अपनी राजस्व नीति में बदलाव करते हुए अतिरिक्त प्राप्तियां जीडीपी का आठ प्रतिशत तक करनी चाहिए।

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टैक्स राजस्व के मामले में विकसित एवं विकासशील देशों की तुलना में हमारी स्थिति काफी खराब है। यहां टैक्स-जीडीपी अनुपात महज 16.6 प्रतिशत है, जबकि अधिकांश जी-20 देशों में यह अनुपात 22-28 प्रतिशत के बीच में है। आने वाले वर्षों में भारत का टैक्स-जीडीपी अनुपात जीडीपी का कम से कम 20 प्रतिशत होना चाहिए। इसके अलावा हमारी टैक्स व्यवस्था अप्रत्यक्ष करों पर काफी हद तक निर्भर है। कुल करों में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा 37.7 प्रतिशत है। कुल मिलाकर इस तरह की कर संरचना प्रगतिशील नहीं है। ऐसे में सरकार को टैक्स राजस्व संग्रह में अप्रत्यक्ष करों पर निर्भर रहने के बजाय प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी बढ़ाने की जरूरत है। अगर खर्च के लिहाज से देखा जाए तो केंद्र और राज्य सरकार का संयुक्त बजटीय खर्च जीडीपी का 25 प्रतिशत है। यह इस बात को दर्शाता है कि सरकार का देश के भीतर कितना कम हस्तक्षेप है। बजट में कुछ ऐसे क्षेत्रों और आबादी की तरफ विशेष ध्यान देने की जरूरत है जिनमें देश की करीब 300 सिविल सोसायटी समूहों की चिंताओं को भी शामिल किया गया है।


ताकि बनें ज्ञान के सिरमौर

18 वर्ष की आयु तक सार्वभौमिक गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करने के लिए संयुक्त रूप से केंद्र और राज्य सरकारों

को जीडीपी का छह प्रतिशत तक

खर्च करने की जरूरत है। अभी संयुक्त खर्च महज जीडीपी का 3.5 प्रतिशत

ही किया जा रहा है। बजट में शिक्षकों

को पर्याप्त सुविधाएं प्रदान करने के

साथ बुनियादी ढांचे के अंतर को भी पाटने की जरूरत है।


स्वस्थ तन सबसे बड़ा धन

संयुक्त रूप से केंद्र और राज्य सरकारों को जीडीपी का तीन प्रतिशत तक खर्च बढ़ाने की जरूरत है। सार्वभौमिक रूप से जरूरी दवाओं को सरकारी प्राथमिक केंद्रों में मुफ्त उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त धनराशि आवंटित की जानी चाहिए। जल एवं साफ-सफाई के क्षेत्र में पेयजल प्रोजेक्टों के ऑपरेशन और रख-रखाव के लिए बजट में व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके अलावा समुदाय के लिए जल स्रोतों के संरक्षण और विकास के लिए भी बजट में स्थान होना चाहिए।


रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र

परती/वर्षा आधारित खेती, वाटरशेड विकास प्रोजेक्टों, सूक्ष्म और लघु सिंचाई प्रोजेक्टों के लिए पर्याप्त आवंटन किया जाना चाहिए। खाद्य फसलों समेत कृषि फसलों को पूर्ण इंश्योरेंस कवर और 100 प्रतिशत प्रीमियम सरकार द्वारा दिया जाना चाहिए। कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) किसानों के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग (एनसीएफ) द्वारा सुझाए गए फार्मूले के आधार पर दिया जाना चाहिए। यह उत्पादन लागत का कम से कम डेढ़ गुना होना चाहिए। खाद्य सुरक्षा के मामले में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को सार्वभौमिक कर देना चाहिए। पीडीएस में खाद्यान्नों मसलन ज्वार, दलहन और खाद्य तेल को भी शामिल करना चाहिए। आपदा या सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए पीडीएस में विशेष व्यवस्था होनी चाहिए। ‘सोशल ऑडिट’ को संस्थागत कर पीडीएस को पारदर्शी और जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।


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महिलाएं एवं बच्चे

विधानों के प्रभावी इस्तेमाल से महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने और संस्थागत प्रणाली को मजबूत करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराया जाना चाहिए।


वंचित वर्ग

अनुसूचित जाति सब प्लान (एससीएसपी) तंत्र और आदिवासियों के लिए ट्राइबल सब प्लान (टीएसपी) की सलाहकारी धाराओं को कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। इनसे संबंधित फंड का ऑडिट हो। फॉरेस्ट राइट्स एक्ट (एफआरए), नेशनल बायोडाइवर्सिटी एक्ट और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तृत) एक्ट के तेज क्रियान्वयन के लिए विशेष आवंटन किया जाना चाहिए। आदिवासी इलाकों के स्कूलों और स्वास्थ्य ढांचा के विकास के लिए राज्यों को अधिक फंड दिया जाना चाहिए। अल्पसंख्यक वर्ग में विशेष रूप से मुस्लिमों में उद्यमशीलता के विकास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। खादी और बुनकरों को भी ऋण राहत उपक्रम में शाामिल किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्री कार्यक्रमों में सुधार करके और वित्तीय स्रोत सुविधाएं उपलब्ध कराके मजबूत बनाया जाना चाहिए।


असंगठित क्षेत्र

इस क्षेत्र के कामगारों के लिए स्थायी शरण और कार्यस्थलों पर बेहतर बुनियादी ढांचा विकसित करने के लिए पर्याप्त फंड की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसी तरह अंतरराज्यीय वर्कमैन एक्ट के प्रावधानों को सभी असुरक्षित कामगारों पर लागू किया जाना चाहिए।

आंगनवाड़ी कर्मियों, आशा, मिड डे मील वर्करों को समुचित वेतन-भत्ते दिए जाने चाहिए।


…………………


मौका


आम बजट

सरकार के आय व्यय का लेखा जोखा। जनकल्याण के लिए नीतियों के सृजन का अवसर। अर्थव्यवस्था की थकान को दूर करने का एक मंच। लंबित आर्थिक सुधारों को लागू करने का एक आधिकारिक दिन।


मायने

हम सभी बजट बनाते हैं। अपनी आय के अनुसार कोई प्रतिदिन तो कोई मासिक तो कोई सालाना अपने खर्चों का विवरण तैयार करता है।  सरकार द्वारा पेश किए जाने वाले सालाना आम बजट में कमाई और जनकल्याण के बीच एक तार्किक संतुलन होना जरूरी है। अन्यथा आम जनता के लिए ऐसे मौके बेमानी हो जाएंगे। फिर चाहे सरकार बजट पेश करे या न करे, अपनी गाढ़ी कमाई से टैक्स चुकाने वाली जनता के लिए इसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। वैसे भी सरकार बजट के बाद भी चीजों के दाम बढ़ाने से लेकर नीतियों में बदलाव करने तक परहेज नहीं करती है। बदलते भारत में परंपरागत रूप से पेश किए जाने वाले सरकारी आय-व्यय वाले आम बजट से लोगों की आशाएं बदल चुकी हैं।


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मकसद

बजट का मूल मकसद राजस्व में वृद्धि के संतुलित तरीके खोजना और उस धन का जनकल्याण में इस तरह इस्तेमाल करना जिससे राष्ट्र का समग्र्र विकास हो। असंतुलन की धूप छांव कहीं न दिखे। अफसोस, हर साल बजट पेश किए जाने के बावजूद खेती, शिक्षा, स्वास्थ्य, शहरी विकास, ग्र्रामीण विकास, गरीबी, बेरोजगारी, समाज ऊर्जा, उद्योग और आधारभूत सुविधाओं जैसे क्षेत्र असंतुलन के शिकार हैं। गरीब और गरीब होता जा रहा है। ऐसे में नए भारत की जरूरतों के मुताबिक आगामी आम बजट पेश किया जाना हम सभी के लिए बड़ा मुद्दा है। आशा है, इस मौके को महज चुनावी बजट न बनाते हुए वित्तमंत्री जी हम सबका ख्याल रखेंगे।


अब देश का एक नया रूप सामने है। इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आयाम बदल चुके हैं। एक बड़ा और सशक्त मध्य वर्ग उभर चुका है। युवा आबादी का ग्राफ ऊपर चढ़ चुका है। ऐसे में परंपरागत रूप से सरकारी आय व्यय के रूप में पेश किए जाने वाले आम बजट की चुनौतियां और उससे लोगों की उम्मीदों ने भी अपना रूप बदल लिया है।


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