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लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई

मुद्दा
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-केसी सिंह पूर्व राजदूत, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान
-केसी सिंह पूर्व राजदूत, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान

2030 में भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान की तुलना में 30 गुना बड़ी होगी। उस वक्त का भारत राष्ट्रीय हितों के मामले में आज के नेतृत्व से हिसाब मांगेगा।

पिछले 15 साल में यह पहली बार नहीं है जब भारतीय पाकिस्तान नीति की आलोचना हो रही है। सरकार ने पड़ोसी के साथ समय-समय पर शांति स्थापित करने की कोशिश की लेकिन वहां की सरजमीं से होने वाले आतंकी/सैन्य प्रतिरोध ने उसे पटरी से उतार दिया।


दिसंबर, 2001 में भारतीय संसद पर हमला होने के बाद जब सीमा पर सेना की गतिविधि बढ़ गई थी तो कांग्रेस ने तत्कालीन राजग सरकार की आलोचना की थी। उसका कहना था कि बातचीत के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। वही कांग्रेस जब सत्ता में आई तो 2006 में मुंबई ट्रेन धमाकों और 2008 में 26/11 की घटना के बाद उसको जन आक्रोश की वजह से बातचीत की प्रक्रिया स्थगित करनी पड़ी। उसके बाद जुलाई, 2009 में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (नाम) के दौरान शर्म-अल-शेख में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मीटिंग को टर्निंग प्वाइंट के रूप में देखा गया। इस सम्मेलन केसाझा बयान में बलूचिस्तान को पहली बार शामिल किया गया। इसके साथ ही ऐसा प्रतीत होता दिखा कि पाकिस्तान द्वारा आतंकियों पर कार्रवाई के बाद ही द्विपक्षीय बातचीत की शर्त भी खत्म हो गई। इससे विश्लेषक और विपक्ष के अलावा कांग्रेस पार्टी के भीतर भी कई लोग खासे आक्रोशित हुए। तब से ही सरकार पाकिस्तानी आतंक और बातचीत के बीच सामंजस्य बिठाने में संघर्ष कर रही है।


पिछले साल दो क्षेत्रों में प्रगति की बात कही गई। वीजा नियमों में लचीलापन और व्यापार का उदारीकरण। विश्वास बहाली के इन तरीकों से इस तरह का माहौल बनता है जिससे लंबे समय से विवादित कश्मीर मुद्दे का समाधान खोजा जा सकता है। इस तरह के तरीके अतीत में भी देशों द्वारा उठाए जाते रहे हैं। इसमें परेशानी यह है कि बुनियादी दरारों को नहीं देखा जाता। भारत जब भी पाकिस्तान सरकार से बातचीत करता है तो वास्तव में वह सरकार, सेना और आतंकियों से डील करता है। संप्रग सरकार ने बातचीत निर्वाचित प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से शुरू की थी लेकिन उसका समापन तख्ता पलट के जरिए सत्ता में आए सैन्य प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ से हुआ। उसके उलट संप्रग सरकार अब वहां की सिविल सरकार से बातचीत ऐसे माहौल में कर रही है जब वहां मई, 2013 में चुनाव होने जा रहे हैं एवं जल्द ही अंतरिम सरकार गठित होने वाली है।


2012 में भारतीयों के बीच प्रचारित की जा रही सफलता के विरोधाभासों की तरफ किसी ने इशारा नहीं किया। नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर कई बार संघर्ष विराम का उल्लंघन हुआ। इसमें कई भारतीय जवान शहीद हो गए। भारी गोलीबारी के बीच कई बार घुसपैठियों को भारत में दाखिल कराने के प्रयास किए गए। किसी भी सेना के लिए इस तरह की हरकतों को नजरअंदाज करना मुश्किल है। भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने के मामले में भी पाकिस्तान ने किसी न किसी तरह हीलाहवाली करने की कोशिश की। जबकि गैट पर हस्ताक्षर करने के बाद उसको ऐसा करना ही था। रहमान मलिक की यात्रा के दौरान वीजा नियमों का उदारीकरण जरूर हुआ लेकिन पाकिस्तान में चल रहे 26/11 ट्रायल को तेज करने की मांग पर हमको निराशा ही हुई।


हमारे जवानों के साथ जो अमानवीयता और बर्बरता दिखाई गई वह 1949 में सशस्त्र सेनाओं के आचरण संबंधी पहले जेनेवा कंवेंशन का खुला उल्लंघन है। पाकिस्तान सेना को इस बात से बल मिल रहा है क्योंकि अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान से निश्चित समय के भीतर निकलने का निश्चय किया हुआ है। उनके सहयोगी तालिबान को बातचीत की मेज पर लाने की कोशिशें हो रही हैं। इसके साथ ही इस्लामाबाद में सिविल सरकार अवसान की तरफ बढ़ रही है। इसलिए भारत को बातचीत के दरवाजे तो खुले रखने चाहिए लेकिन अपनी सैन्य तैयारियों को मजबूत करते हुए बातचीत में दृढ़ता का परिचय देना चाहिए। हमारे जवानों का सिर काटने वाले लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग भी करनी चाहिए।



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वादाखिलाफी


इतिहास गवाह है। भारत और पाकिस्तान के अलग राष्ट्र बनने के बाद दोनों के संबंधों की खटास कम करने के लिए ज्यादातर प्रयास एकतरफा रहे। भारत ने वे सभी जतन किए जिससे पड़ोसी से मधुर संबंध स्थापित करने में मदद मिले, लेकिन पाकिस्तान है कि सुधरने का नाम ही नही लेता। जब- जब हमने कोई पहल की है तो पाकिस्तान ने भले ही पहल का स्वागत किया हो, लेकिन पीछे से पीठ में छुरा घोंपने से गुरेज नहीं किया। 1947 से पाकिस्तानी की वादाखिलाफी की फेहरिस्त वैसे तो बहुत लंबी है, लेकिन हालिया और प्रमुख मामलों पर पेश है एक नजर।


लाहौर बस यात्रा


1999: फरवरी में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐतिहासिक लाहौर बस यात्रा की। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ कई अहम समझौैते हुए

वादाखिलाफी: मई में दोनों देशों के बीच एक और युद्ध। भारतीय अधिकृत कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने अपने नापाक कदम रखने का दुस्साहस किया। भारतीय सेना ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए इन घुसपैठियों को सीमा से बाहर खदेड़ा


आगरा शिखर सम्मेलन


2000: जुलाई में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ के बीच आगरा शिखर सम्मेलन के तहत वार्ता हुई। हालांकि यह वार्ता सफल नहीं हो सकी

वादाखिलाफी


2001: दिसंबर में आतंकियों ने भारतीय लोकतंत्र के मंदिर संसद पर हमला किया। पांच आतंकी सहित 14 लोग मारे गए। हमले में पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद का नाम सामने आने पर भारत ने इनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की। हीलाहवाली वाले पाकिस्तानी रवैए के बाद भारत ने सीमा पर फौज का जमावड़ा शुरू किया। रिश्तों में खटास चरम पर पहुंची


नई शुरुआत


2003: पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा पर शांति विराम की घोषणा की। भारत ने इस कदम का स्वागत किया

2004: दोनों देशों ने एक शांति समझौता किया जिससे कूटनीतिक, खेल और व्यापार क्षेत्र में अहम सुधार देखे गए

वादाखिलाफी: बीच बीच में देश में होते पाकिस्तान समर्थित आतंकी हमलों से दोनों देशों की फिजां में खटास घुलती रही। जुलाई 2008 में भारत ने काबुल स्थित अपने दूतावास पर हमले में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के हाथ होने का दावा किया


वादाखिलाफी


2008: 26 नवंबर को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर आतंकी हमले के बाद सब्र का पैमाना जवाब दे गया। संसद पर हमले के बाद दोनों देशों के बीच तनाव का यह शीर्ष स्तर था। परिणामस्वरूप देश ने पाकिस्तान से अपने सभी तरह के संबंध खत्म कर दिए और दोषियों पर कार्रवाई की मांग की। जबकि पाकिस्तान इस मुद्दे पर भी अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठा सका है

रिश्तों की गर्माहट: इस घटना के बाद भी दोनों मुल्क और खासकर भारत ने कई शर्तों के साथ संबंध बहाली की तरफ बढ़ना शुरू किया। दोनों मुल्क अभी कुछ ही कदम चले थे कि पुंछ इलाके में भारतीय जवानों की निर्मम हत्या की घटना ने पाकिस्तान का दोहरा चेहरा सामने ला दिया।


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कहीं धूप तो कहीं छांव

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