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खुदरा में नीति की नाप तौल

मुद्दा
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अंशुमान तिवारी राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख, दैनिक जागरण
अंशुमान तिवारी राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख, दैनिक जागरण

खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी का हाथी दृष्टिहीनों के मुहल्ले में पहुंच गया है। यह स्थिति संसद की बहस के बाद बनी है। पूंछ, पैर और सूंड़ टटोलकर हाथी के आकार को अंदाजने की कोशिशों ने बहस को उलझा दिया है। देश की सबसे बड़ी कारोबारी गतिविधि को विदेशी पूंजी तबाह करेगी या तरक्की देगी, इसको लेकर अब अनुत्तरित प्रश्न पहले से कहीं ज्यादा हैं। बहस का दायरा किसान से लेकर उपभोक्ता तक और उद्योग से लेकर सरकारी मंजूरियों तक फैला है। कहीं तस्वीर उतनी सुहानी नहीं है जितनी सरकार कह रही है और कहीं खौफ भी उतना बड़ा नहीं है जितना स्यापा विपक्ष ने किया है। ऐसे में खुदरा में विदेशी निवेश के मसले पर अनुत्तरित सवालों की वस्तुस्थिति को जानना और समझना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।


किसान, फसल भंडारण और संगठित रिटेल


आशंका और दावे


संसद में रिटेल की बहस इस पर उलझी कि भारत में कितने फल व सब्जियां सड़ते हैं? सरकार बोली कि कुल फल सब्जी उपज का 40 फीसद बर्बाद होता है जो बड़े रिटेलर बचा लेंगे जबकि विपक्ष ने संसदीय समिति के निर्देश पर तैयार हुए सेंटर फॉर पोस्ट हार्वेस्टर इंजीनियरिंग पंजाब का अध्ययन पेश कर कहा कि भारत में सही भंडारण न होने के कारण 6 से 18 फीसद तक फल और 6 से 12.5 फीसद सब्जियां बर्बाद होती हैं। इसलिए संगठित रिटेलर जो करेंगे वह सरकार खुद कर सकती है। रिटेल और खेती रिश्ते का दूसरा पहलू बिचौलियों व आढ़तियों का वह तंत्र था जिसे विपक्ष किसान का एटीएम बता रहा था और सरकार किसानों के शोषण का तंत्र।


वस्तुस्थिति


भारत में कृषि भंडारण में शत प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाजत तो पहले से है। सरकार कोल्ड स्टोरेज बनाने के लिए सब्सिडी भी देती है। उत्तर प्रदेश और पंजाब के कई शहर कोल्ड स्टोरेज की राजधानी हैं, लेकिन भंडारण केवल आलू या बहुत सीमित स्तर पर कुछ फलों तक सीमित है, जो अंतत: उसी मंडी में जाते हैं जहां आढ़तियों का राज है। फल सब्जी भंडारण का तंत्र मजबूत फूड प्रोसेसिंग उद्योग के साथ ज्यादा फबता है। लंबे समय तक भंडारण के बाद फल सब्जियों से उत्पाद बनते हैं, जिनका उद्योग भारत में जम नहीं पाया। रिटेल कंपनियां सपोर्ट चेन बनायेंगी जो स्थानीय आपूर्ति को अपने स्टोर तक सुरक्षित रखने के लिए होगी। बड़ी चुनौती भारत के फल सब्जी के प्रसंस्करण की है, जिससे किसान की आय और रोजगार बढेंगे। संगठित रिटेल इसका समाधान नहीं देता। लेकिन संगठित रिटेल अपने नेटवर्क, रेफ्रीजेरेटेड ट्रकों से इसका समाधान जरूर दे सकता है कि किसान आढ़तियों व बिचौलियों से बच सके। जिनके कारण महाराष्ट्र का प्याज और उत्तर प्रदेश का आलू दिल्ली के बाजार में पांच गुना महंगा हो जाता है, चाहे वह एक साल पुराना ही क्यों न हो और कोल्ड स्टोरेज से आया हो। फल सब्जी के बाजार अभी बिचौलियों के हाथ में हैं अगर सरकार सतर्क रहे तो वहां रिटेलरों की प्रतिस्पर्धा किसानों को कुछ फायदा जरूर देगी।


उपभोक्ता, पारंपरिक खुदरा और संगठित रिटेल


आशंका और दावे


संसद की बहस में उपभोक्ता गायब था, उत्पादक हावी थे। सरकार का तर्क था कि संगठित रिटेल से उपभोक्ता के लिए महंगाई घटेगी, मगर तथ्य नहीं थे। विपक्ष ने बहस को किसानों के हितों या विदेशी कंपनियों के विदेशी संदर्भों से जोड़ दिया। भारत का रिटेल बाजार दुनिया से अलग है। विदेशी संगठित रिटेल का देशी खुदरा पर प्रभाव के पहलू पर तथ्यों की रोशनी कम पड़ी है। दरअसल यह असर उपभोक्ताओं के बदलते नजरिए से तय होगा। यह नजरिया बदल रहा है इसलिए हितों में टकराव है। उपभोक्ता बेहतर सुविधाएं, कम कीमत, अच्छी पैकिंग चाहते हैं जबकि असंगठित रिटेल की अपनी सीमाएं हैं।

वस्तुस्थिति


देसी खुदरा में तीन तरह की खरीद होती है। एक मध्यवर्गीय उपभोक्ता का दूध अंडा सब्जी आदि पर औसतन खर्च 50 से 250 रुपये तक है। इस पर घर के करीब का दुकानदार और सब्जी वाला काबिज है। यहां संगठित रिटेल का पहुंचना मुश्किल है क्योंकि इतना छोटा बिजनेस मॉडल उनके माफिक नहीं है। इसके बाद टॉपअप खरीद यानी तीन चार दिन में एक बार होने वाली चाय, चीनी आदि की खरीद जो अब संगठित रिटेल के सुपर स्टोर और पुराने किराने के बीच बंट रही है। इसका शॉपिंग बिल औसतन 500 से 1500 रुपये तक होता है। इस मोर्चे पर बड़े रिटेलरों के छोटे स्टोर पारंपरिक रिटेल पर गहरी मार कर रहे हैं। तीसरा नंबर महीने में एक बार होने वाली खरीद आती है, जहां औसत 1500 से 5000 रुपये तक बिल बनते हैं। यह खरीद हाइपर मार्केट की तरफ जा रही है जो कि पहले शहरों में पुराने बाजारों को मिलती थी। इसी खरीद में महंगाई पर उपभोक्ता को बचत का अहसास होता है और यहीं संगठित रिटेल संचालन का बड़ा आकार कीमत कम करने में मददगार बनता है। इसी का फायदा इन कंपनियों के मझोले व छोटे स्टोर तक जाता है। यहां पारंपरिक रिटेल को तगड़ा झटका लगने वाला है।



उद्योग, रोजगार और संगठित रिटेल


आशंका और दावे


रोजगार बढ़ने या घटने की बहस पर भी असमंजस है। विदेशी पूंजी के विरोधी देसी दुकानों के बंद होने और नतीजतन बेकारी का तर्क दे रहे हैं जबकि विदेशी पूंजी के पैरोकार बड़े रिटेल स्टोर से रोजगार बढ़ने का दावा कर रहे हैं। संगठित रिटेल से रोजगारों के बढ़ने या घटने के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो पहलू हैं, दोनों अलग अलग कर देखना बेहतर होगा। इसके लिए हमें उन उद्योगों पर असर को भी समझना होगा जो रिटेल को माल की आपूर्ति करेंगे। संगठित रिटेल के देशी उद्योगों पर असर को लेकर भी उलझन है। विदेशी पूंजी के समर्थक देशी उद्योगों व लघु उद्योगों के लिए मांग बढ़ने का तर्क दे रहे हैं। जबकि विरोध के तर्क चीन से सस्ते आयात में बढ़ोत्तरी पर केंद्रित हैं।


वस्तुस्थिति


चीन से भारत में सस्ता आयात अभी असंगठित व्यापार के जरिए ही ज्यादा होता है। संगठित रिटेलर केवल इसमें योगदान करेंगे। विदेशी कंपनियों के लिए छोटे उद्योगों से खरीद की शर्त में यह तथ्य समझना जरूरी है कि संगठित रिटेल ब्रांडेड उत्पादों को वरीयता पर रखता है जबकि देसी छोटे उद्योग अधिकांशत: गैर ब्रांडेड उत्पादों तक सीमित हैं। इसलिए संगठित रिटेल का पहला फायदा भारत के ब्रांडेड उत्पाद बनाने वाली कंपनियों को जाएगा जिनके संचालन आधुनिक और प्रतिस्पर्धी हैं। छोटे उद्योगों को सिर्फ सस्ते माल का ऑर्डर मिलेगा। संगठित रिटेल से परोक्ष रोजगार वस्तुत: देश के मैन्यु्फैक्चरिंग उद्योग में ही आएंगे। बडे रिटेल से सीधे रोजगार मिलने का तर्क समझने लायक है। संगठित रिटेल से सिर्फ सेल्समैन पैदा होने की बात कुछ भावनात्मक है। रिटेल हमेशा से अल्पशिक्षित या अप्रशिक्षित कामगारों को रोजगार देता है। यहां पारंपरिक रिटेल में भी ऐसे ही लोग काम करते हैं जो पुराने तरीके के सेल्समैन ही हैं। संगठित रिटेल अकुशल श्रमिक और उच्च शिक्षित कामगारों के बीच वाले वर्ग को रोजगार देता है और भारत में ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी है। संगठित रिटेल तत्काल रोजगारों की बारिश नहीं करने वाला है। अलबत्ता इससे पारंपरिक रिटेल के रोजगार बाजार में कुछ प्रतिस्पर्धात्म व सकारात्मकबदलाव जरुर होंगे।


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सब कुछ इस पर निर्भर है कि …


Weighing scaleरिटेल कंपनियां किसानों को सस्ता बेचने पर मजबूर न करें। विदेशी पूंजी निवेश सिर्फ स्टोर खोलने में नहीं बल्कि कोल्ड चेन बनाने में भी हो। उपभोक्ताओं को कीमतों में कमी के फायदे मिलें। सस्ती चीनी आयात पर डंपिंग रोधी उपाय किये जाएं। यह नजर रखी जाए कि कहां कितने रोजगार मिल रहे हैं।

विदेशी कंपनियां बाजार कब्जा करने के हथकंडे न अपनाएं  आदि ……. इस पर निर्भर है कि रिटेल में विदेशी पूंजी का फैसला कैसे लागू होता है। एक तथ्य

यह है कि भारत में रिटेल राज्यों के अधिकार में है और दूसरा भारत

में रिटेल बाजार का नियामक नहीं है। इसलिए क्रियान्वयन से लेकर डर जायज हैं। यदि विदेशी कंपनियों की मनमानी रोकनी है तो प्रतिस्पर्धा आयोग को स्पष्ट अधिकार देने होंगे और यदि किसानों का फायदा सुनिश्चित करना है तो सरकारी एजेंसियों को प्रभावी होना पड़ेगा। खुदरा करोबार में विदेशी पूंजी सबसे गहरे और व्यापक असर वाला आर्थिक सुधार है

मगर इसे लागू कराने वाला तंत्र उतना मजबूत नहीं दिखता।

रिटेल में विदेशी पूंजी, दरअसल, फूल के साथ कांटों का भी सौदा है। किसके हाथ फूल लगे और किसके हाथ कांटे चुभे यह इस बात से तय होगा कि केंद्र व राज्य की सरकारें इसे कैसे लागू करती हैं। अच्छी सरकारें हों तों वह नकारात्मक फैसलों से भी फायदे ले आती हैं क्योंंकि तब क्रियान्वयन करने वाली संस्थाएं भी बेहतर काम करती हैं लेकिन अगर सरकारें खराब हों तो अच्छे से अच्छा सुधार भी बुरा हो जाता है। खुदरा में विदेशी पूंजी न राक्षस है न रहनुमा। अलबत्ता सरकार का क्रियान्वयन तंत्र इसे जो चाहे वह बना जरूर सकता है।


Tag: Retail,Fdi,Foreign Direct Investment,Fdi in Retailing,Direct Investment ,रिटेल,विदेशी पूंजी,विदेशी कंपनियां,खुदरा ,  संगठित रिटेल


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