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माननीयों की नीयत हो तो इच्छाशक्ति स्वयं हो जाएगी पैदा

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ठान ले तो सरकार खुद को दाव पर लगाकर भी उसे करती है। नीयत न होने पर अल्पमत का तर्क देते हैं


अर्से से संसद में लटके विधेयकों के लिए जिम्मेदार कौन? सरकार, विपक्षी दल, सभी सियासी दल या हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था? गुनहगार कोई भी हो, सजा भुगतती है अवाम। सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद में उस अवाम की तरफ से भेजे गए नुमाइंदे इस मोर्चे पर कठघरे में खड़े नजर आते हैं। महत्वपूर्ण विधेयक पारित होना तो दूर फिलहाल राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में विधायी काम भी नहीं हो पा रहे। सत्ता पक्ष भी जैसे बहस नहीं चाहता और विपक्ष को लगता है कि वह हंगामा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है।


विधेयकों व विधायी काम की अपनी जिम्मेदारी के प्रति सांसदों की उदासीनता पर पिछले माह 13 अक्टूबर को लखनऊ में जागरण फोरम में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी चिंता जाहिर की थी। राष्ट्रपति ने बताया था कि पहली से लेकर तीसरी लोकसभा तक 60 फीसद वक्त वित्तीय मामलों और विधायी कार्यों पर चर्चा को समर्पित किया गया। पहली लोकसभा में स्वतंत्र भारत का पहले बजट का आकार महज 293 करोड़ रुपये था। वहीं 2012 में पेश चालू वित्त वर्ष के बजट का आकार 12 लाख करोड़ रुपये है लेकिन अगर इस पर चर्चा के समय की तुलना करें तो महसूस होता है कि हमें इसके लिए कहीं अधिक समय देने की जरूरत है। विधायी कामकाज न हो पाने से मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार तो बेहद चिंतित हैं। वह कहती हैं कि लोकतंत्र का मूल तत्व है कि जो जनप्रतिनिधि चुनकर आते हैं, वे अपने क्षेत्र की जनता की आकांक्षाएं या भावनाओं को सदन के पटल पर रखते हैं। संसद में वे उनके प्रतिनिधि हैं। इसलिए उनका प्रमुख काम अच्छे कानून बनाना है, जिससे लोगों का जीवन स्तर सुधरे। यही जनतंत्र की भावना है।


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राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष की बात को अगर करीब से देखें तो पाएंगे कि वास्तव में अच्छे कानून ही आम आदमी के जीवन स्तर को ऊपर उठा सकते हैं। मगर शिक्षा का हक या सूचना का अधिकार या फिर कुछ और…। ऐसे तमाम विधेयक पारित होने में दशकों गुजर गए। 100 से ज्यादा लंबित विधेयक संसद की मुहर का इंतजार कर रहे हैं। सबसे अहम प्रश्न है कि क्या सत्ताधारी दल या राजनीतिक दलों में इच्छाशक्ति नहीं है या फिर नीयत का सवाल है या फिर वे संसदीय लोकतंत्र की मजबूरियों से बंधे हुए हैं। यदि अतीत के अनुभवों पर नजर फिराएं तो पाएंगे कि तीनों ही बाते हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात उभर कर आती है नीयत की।


संसदीय लोकतंत्र अब ज्यादा मुखर है। तमाम क्षेत्रों से छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का प्रतिनिधित्व संसद में बढ़ा है। विचारधारा के आधार पर ये दल ज्यादा मुखर हैं और   इन पर ज्यादा निर्भर सरकार कुछ कर नहीं पाती। अलग सिद्धांतों के आधार पर आए दल तमाम विधेयक रोकते हैं। यह उनका लोकतांत्रिक हक है, लेकिन समस्या यह है कि अच्छे कानूनों का रास्ता निकालने को सार्थक बहस तक नहीं हो पाती। हालांकि सत्ताधारी दल को जब कुछ कराना होता है, उसे करा ही लेती है। जब नहीं कराना होता तो उसके लिए तमाम तर्क दिए जाते हैं। संप्रग सरकार किसी भी तरह से महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में तो पारित करा लेती है, मगर लोकसभा में उसकी हिम्मत अब क्यों नहीं हो रही? इसका जवाब उसके पास नहीं है। इच्छाशक्ति के बूते राज्यसभा में तो इसे पारित करा लिया, लेकिन उसे वास्तव में कानून का रूप देने की नीयत किसकी थी। ऐसा ही कुछ लोकपाल के साथ हुआ।


सरकार अमेरिका के साथ नाभिकीय करार जैसे मसलों के लिए अपनी सत्ता तक को दाव पर लगा देती है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार भी राष्ट्रीय राजमार्ग जैसा विधेयक लाती है और पूरे देश में सड़कों की तस्वीर बदल जाती है। मगर जिन्हें नहीं पारित कराना होता, उनमें बहुमत न होने का तर्क दिया जाता है। जाहिर है ऐसे में पहली जरूरत है कुछ कर गुजरने की नीयत। इसके बाद इच्छाशक्ति अपने आप पैदा हो जाती है।


इस आलेख के लेखक राजकिशोर हैं

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