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राजनीति में उलझी सबसे बड़ी पंचायत

मुद्दा
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ashutoshराजनीतिक नफा नुकसान तय करता है विधेयकों का भविष्य। जिसने जब चाहा पारित करवाया विधेयकअब जबलोकपाल विधेयक अंतत: पारित होने की कगार पर है, तो सवाल लाजिमी है कि इसे रोक कौन रहा था? आखिर क्या था कि 1968 से लंबित इस विधेयक की ओर कोई देखने वाला भी नहीं था। लेकिन  सड़क से आंदोलन की आंधी उठी तो एक डेढ़ साल में ही इसके सामने पड़े अवरोध दूर हो गए। साथ ही यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि क्या खुद से जुड़े विधेयकों को पारित करवाने के लिए जनता को सड़कों पर उतरना होगा।


संसद की राजनीति कई बार कर्तव्यों पर भी भारी पड़ने लगी है। लोकपाल के साथ साथ महिला आरक्षण और अब निरस्त हो चुका पोटा विधेयक संसद की इस राजनीति का खुलासा कर देते हैैं कि कुछ अहम विधेयक तभी पारित होते हैैं जब वह संबंधित दलों को फायदा पहुंचाए। 13 साल से सर्वसम्मति के नाम पर जिस महिला आरक्षण विधेयक पर धूल जम रही थी उसे कांग्रेस ने कुछ घंटों में राज्यसभा से पारित करवा लिया था। लेकिन उसी तत्परता के साथ लोकसभा से पारित करवाकर उसे कानून की शक्ल देने की कवायद भी नहीं की। शायद इतने भर से ही कांग्रेस महिला के मसले पर भाजपा से बढ़त लेने में कामयाब हो गई थी।


कहने को तो भाजपा भी महिला आरक्षण की हिमायती है लेकिन पार्टी ने उस विधेयक के लिए वह हिम्मत नहीं दिखाई जो पोटा विधेयक के लिए जुटाई थी। तब विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद भाजपा ने संयुक्त सत्र के जरिए पोटा विधेयक पारित करवा लिया था। इससे वह यह संदेश देना चाहती थी कि आतंकवाद के मुद्दे पर भाजपा सबसे आगे है। हाल में प्रमोशन में एससी एसटी को आरक्षण देने संबंधी विधेयक ने इस राजनीतिक खेल को स्पष्ट कर दिया है। बसपा ने इसके लिए दबाव बनाया। इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए यूं तो किसी भी दल के लिए विरोध करना मुश्किल था, लेकिन सपा नहीं चूकी। कांग्रेस, भाजपा समेत दूसरे दलों में भी इसे लेकर तीखे मतभेद है। लेकिन यह राजनीति ही थी कि वह सार्वजनिक रूप से चुप्पी साधे बैठे है।


लोकपाल शायद किसी की राजनीति को सूट नहीं करता था। इसीलिए चार दशक का इंतजार करना पड़ा। जब जन दबाव में इसने रूप लेना शुरू किया तो कुछ दलों ने यहां भी खुद की राजनीति के लिए रास्ता तैयार कर लिया। उन्होंने इसमें आरक्षण का प्रावधान डालकर अपने मत वर्गों को लुभाने में संकोच नहीं किया।


नुकसान

सामान्यतया संसद के कामकाज के घंटों का मौद्रिक नुकसान निकालने के लिए जो तरीका अपनाया जाता है वह इसकी वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता है। अभी इस नुकसान को संसद के सालाना बजट के आधार पर तय किया जाता है। यानी जितने घंटे शोरशराबे में नष्ट हो गए उनकी कुल बजट में से मौद्रिक कीमत निकाल ली जाती है। हालांकि इससे नुकसान की पूरी तस्वीर साफ नहीं हो पाती है। सत्र के दौरान सभी क्षेत्रों से जुड़े विधेयकों, नीतियों इत्यादि के विलंबन से छात्र से लेकर किसानों, मजदूरों, नौकरी पेशा जैसे कई वर्गों के हित प्रभावित होते हैं। इससे देश की अर्थव्यवस्था विकास दर भी प्रभावित होती है। एक अध्ययन के अनुसार जीडीपी विकास दर में एक फीसद की कमी से अर्थव्यवस्था को 90,000 करोड़ रुपये की चपत लगती है। राजस्व आय में भी 15,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है। इससे बेरोजगारों की फौज भी खड़ी हो जाती है। अगर इस अध्ययन के इन आंकड़ों के आधार पर संसद के बर्बाद हुए समय का आकलन किया जाए तो आंकड़े चौकाने वाले होंगे।

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