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सूचना अधिकार का सच

मुद्दा
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t3कानून


आरटीआइ यानी सूचनाका अधिकार कानून। देश के इतिहास में अब तक के सबसे कारगर और प्रभावी कानूनों में से एक। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने वाला हथियार। इस अस्त्र के इस्तेमाल से कई बार सरकारी कार्य प्रणाली की कलई खुल चुकी है।

देश में हुए कई छोटे-बड़े घोटालों को सार्वजनिक करने में इसी कानून की भूमिका रही है।


कवायद

2005 में इस कानून के अमल में आने के बाद से ही इसके प्रभावी क्रियान्वयन को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाए जा रहे हैं। हद तो तब हो गई जब हाल ही में देश के ‘तंत्र’ का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कानून के दुरुपयोग किए जाने की बात कहकर इसकी अहमियत पर सवाल खड़ा कर दिया।


कारगर


यह सबको पता है कि स्वच्छ एवं पारदर्शी लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए सूचना का अधिकार एक ऐसी सुविधा, तंत्र या व्यवस्था है जो देश में अभी पूरी तरह विकसित नहीं हो पाई है। हालांकि अपने सात साल के शैशवकाल में ही यह कानून बहुत कारगर साबित हुआ और सरकारी तंत्र की हर स्तर पर पोल-पट्टी खोलने में जनता का मददगार बना। इससे तंत्र या सत्ता में बैठे लोगों द्वारा इसे कुंद बनाने की कोशिशें इस बात को इंगित करती हैं कि यह कानून काफी कुछ हद तक उन्हें रास नहीं आ रहा है। ऐसे में लोगों के हाथ की लाठी बन चुके इस कानून का मूल स्वरूप बचाए रखना और लोगों में इस कानून के इस्तेमाल की बेहतर समझ बनाना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।


खरी खरी


दुरुपयोग नहीं, उपयोग से डरते हैं अधिकारी

खोजी पत्रकारिता के लिए अब तक 3300 से ज्यादा आरटीआइ आवेदन दाखिल करने वाले, अपनी खोजपरक रिपोर्टों के असर पर देश विदेश में कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त करने वाले जाने-माने पत्रकार श्यामलाल यादव से सूचना अधिकार कानून के प्रभावों और उस पर मंडरा रहे खतरों पर

अरविंद चतुर्वेदी की बातचीत के प्रमुख अंश


इस कानून के साथ आपका अनुभव कैसा रहा?


इस कानून ने हमें बड़ी ताकत दी है। यह एक क्रांतिकारी कानून है। खबरों की तलाश में मैंने सरकार का कोई कोना नहीं छोड़ा जहां आरटीआइ न लगाई हो। ऐसी अनेक खबरें इस कानून के जरिए बाहर आई हैं जो इसके बिना संभव नही थीं। आम लोगों के साथ-साथ पत्रकारों के लिए भी यह कानून बहुत बड़ी ताकत है। सूचनाएं निकलने में समय जरूर लगता है लेकिन कई बार प्रभावकारी सूचनाएं निकल आती हैं और एक पत्रकार के नाते काफी संतुष्टि देती हैं।

कानून को लेकर पिछले सात वर्षों में सरकारी विभागों के रवैए में क्या बदलाव आया है?

कानून के लागू होने के समय अधिकारियों में डर ज्यादा था। आवेदन करने के बाद आमतौर पर जवाब समय पर आ जाता था। अब लोग समय लगाते हैं। प्रधानमंत्री महोदय कोई बात बोलते हैं तो संदेश नीचे तक जाता है। पिछले साल उन्होंने बोला था की आरटीआइ के क्रिटिकल रिव्यु की जरूरत है। अभी कहा कि किसी की निजता पर खतरा नहीं आना चाहिए। निजता की

सुरक्षा का प्रावधान इस कानून में पहले से ही है,

लेकिन शीर्ष स्तर के किसी व्यक्ति द्वारा ऐसा बोलने से कानून के विरोधियों को मौका मिलता है। हमारे प्रधानमंत्री और मंत्री जब देश से बाहर होते हैं तो

इसकी तारीफ करते हैं, देश में होते हैं तो इसकेपीछे पड़े रहते हैं। इसलिए अधिकारियों में धीरे धीरे कोई डर नहीं रहा। केंद्र सरकार में तो फिर भी थोड़ा डर है, राज्यों में तो बुरा हाल है।


इस कानून पर बड़े खतरे क्या देखते हैं?


सात साल में लोगों ने सीख लिया कि इस कानून का इस्तेमाल करने वालों को कैसे परेशान करें। उन्हें कैसे भ्रमित करें। हालांकि सरकारी मशीनरी में बहुत से  अच्छे लोग हैं जो काफी मदद करते हैं, लेकिन नीति निर्धारक और बड़े अधिकारी खिलाफ होते जा रहे हैं। कुछ समय पहले मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट का

एक आदेश आया है जिसे सरकार ने चुनौती दे रखी है।  इसे सबसे बड़ा खतरा यह है कि सरकार चलाने वाले लोग जिन्होंने ने इसे लागू  किया है, वही इसके

खिलाफ होते जा रहे हैं।


कानून का दुरुपयोग भी तो चिंता का विषय है?


सात साल का वक्त कोई बहुत बड़ा नहीं होता। अल्पावधि में इस कानून ने जितना असर डाला है, काहिल और ढीठ सरकारी अधिकारियों का तौरतरीका बदलने को जितना विवश किया है, उतना पहले शायद ही किसी कानून ने किया हो। मुझे बताइए कि इस देश में किस कानून का दुरुपयोग नहीं होता? दहेज कानून का कितना दुरुपयोग होता है, लेकिन क्या आप दहेज कानून को खत्म कर सकते हैं? सरकारी अधिकारी रोजाना अनेक कानूनों का अपने ढंग से दुरूपयोग करते हैं, अपनी अथॉरिटी का दुरुपयोग करते हैं, कुछ सिरफिरे लोग अगर आरटीआइ का भी दुरुपयोग कर रहे हों तो क्या आप इस क्रांतिकारी कानून को खत्म कर देंगे जो सही मायने में लोकतंत्र को मजबूती देने वाला कानून है। सरकारी लोग इसके दुरुपयोग से ज्यादा इसके उपयोग से चिंतित हैं। इसके प्रभावशाली उपयोग से उनकी खामियां पकड़ में आ रही हैं और उनकेमनमाने फैसलों पर लगाम लग रही है। मंत्रियों के संपत्ति के विवरण देने की व्यवस्था 1964 में की गई थी जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस बाबत प्रस्ताव पास किया था। लेकिन इसका पूरी तरह से पालन अगर वर्तमान सरकार में हुआ तो इसके पीछे बहुत से आरटीआइ कार्यकर्ताओं का दबाव था। अभी केंद्र सरकार ने तय किया है कि अधिकारियों और मंत्रियों के विदेश दौरों के विवरण वेबसाइट पर डाले जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट और आठ हाईकोर्ट के जजों ने अपनी संपत्ति के विवरण वेबसाइट पर डाले क्योंकि आरटीआइ के जरिये उन्हें 1997 का प्रस्ताव याद दिलाया गया था। सफलता की ऐसी अनेक कहानियां हर विभाग में मिल जाएंगी। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) अ यानी वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी की तरह।


इसे और प्रभावकारी कैसे बनाया जा सकता है?


यह कानून आम आदमी के लिए है, और लोग इसके जरिए छोटी-छोटी समस्याओं का समाधान खोज रहे हैं। इसका असली फायदा तभी मिलेगा जब इसका पढ़े-लिखे लोग ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करेंगे।


क्या मीडिया इस कानून का समुचित इस्तेमाल कर पा रहा है?


अभी कुछ पत्रकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर लोग इसका अधिक इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। इसके कई कारण समझ में आते हैं। एक तो अधिक वक्त लगने के कारण बहुत धैर्य की जरूरत होती है। कई बार नीरस भी लगता है, क्योंकि एक ही स्टोरी के पीछे प्राय: कई महीनों तक लगना पड़ता है। फिर सिर्फ एक आरटीआइ के जवाब से कई बार कोई स्टोरी नहीं बनती। मैं तो देखता हूं कि मेरी दर्जनों आरटीआइ में से किसी एक के जवाब से ही कोई स्टोरी निकल पाती है। लेकिन ऐसी स्टोरीज निकलती हैं जो साधारणतया बिना आरटीआइ के संभव नहीं होती। यह जरूर है कि यूरोप के पत्रकारों जैसा भारत के पत्रकार इसका इस्तेमाल नहीं कर रहे। यूरोप में तो फ्रीडम ऑफ इनफॉर्मेशन का इस्तेमाल करने की ट्रेनिंग हर प्रमुख मीडिया संस्थान में दी जाती है। वहां ६ङ्मुु्रल्लॠ (यूरोप में आरटीआइ जैसे कानून के इस्तेमाल को वॉबिंग कहते हैं) करने वाले पत्रकारों की लंबी फौज है। भारत में इस कानून को बचाना है और इसका प्रभाव बढ़ाना है तो पत्रकारों को इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर करना होगा।


राज्यों में इसका इस्तेमाल कैसा है?


खामियों के बावजूद केंद्र सरकार में ही इसका सही पालन हो रहा है। राज्यों में बुरा हाल है। वहां समय सीमा का कोई ध्यान नहीं है। शासन में रहने वाले साधारणतया इस कानून के खिलाफ होते हैं क्योंकि इसके जरिए उनकी करतूतों का पर्दाफाश होने का खतरा रहता है।


आरटीआइ कार्यकर्ताओं पर होने वाले हमले क्या संकेत देते हैं?


अब तक एक दर्जन से अधिक आरटीआइ

कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है। ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। ग्र्रास रूट्स पर इसका उपयोग करना सचमुच चुनौतीपूर्ण है। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारें और धरातल पर शासन चलाने वाले लोग संवेदनहीन होते जा रहे हैं। जो अपराध करते हैं वो करते रहेंगे लेकिन इससे पारदर्शिता की लड़ाई रुकनी नहीं चाहिए।

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t2सवाल कैसे कैसे


अपने सात साल के संक्षिप्त जीवनकाल में सूचना अधिकार कानून को कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अन्य तमाम समस्याओं के अलावा इस कानून के तहत हास्यास्पद जानकारियों का मांगा जाना प्रमुख परेशानी बन चुकी है। आए दिन ऐसे तमाम मामले सामने आते हैं जिनमें मांगी गई सूचनाएं बहुत ही बेहूदा और हास्यास्पद होती हैं। चूंकि इस कानून के सख्त प्रावधान सूचना अधिकारियों को प्रत्येक आवेदन का जवाब देने के लिए बाध्य करता है इसलिए इस पूरी प्रक्रिया में संसाधनों की भारी बर्बादी होती है। नि:संदेह इन सात वर्षों के बीच इस कानून के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है। लिहाजा सूचनाओं के लिए आवेदनों की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक प्रत्येक आरटीआइ आवेदन के उत्तर देने का खर्च करीब 30 हजार रुपये से 50 हजार रुपये के करीब बैठता है। एक पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त के अनुसार हास्यास्पद और बेतुके आवेदनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। कुल आवेदनों में से 80 फीसद आवेदन में ऐसे ही सवालों के जवाब मांगे जाते हैं।

’सितंबर, 2012 में सीपीआइओ, एलआइसी ऑफ इंडिया के समक्ष

एक आरटीआइ दाखिल की गई।

इसमें वहां के कर्मचारियों की ऑफिस टाइमिंग, कार्य वितरण और अन्य

सूचनाएं मांगी गईं।

’औसतन प्रत्येक महीने बीएसएनएल को 10 से 20 आरटीआइ आवेदन ऐसे मिलते हैं, अधिकारियों के अनुसार जो प्रासंगिक नही होते हैं। इनमें से अधिकांश आवेदन इसी विभाग के कर्मचारियों द्वारा किए जाते हैं जिनमें प्रोन्नति और पेंशन इत्यादि जैसे मामलों की जानकारी मांगी जाती है।

’जनवरी, 2011 में राज्य सूचना आयुक्त विजय कुवालेकर के समक्ष एक अजीबोगरीब आवेदन आया। इसमें आवेदनकर्ता ने भारतीय दंड संहिता के तहत सभी कानूनों की प्रतियां उपलब्ध कराने की मांग की थी।

’सितंबर, 2010 में दिल्ली के एक व्यक्ति ने आवेदन के तहत एमसीडी के एक कर्मचारी की पान और तंबाकू खाने की आदतों की जानकारी मांगी। उसने यह भी जानना चाहा कि वह कर्मचारी जो पान खाता है उसमें’क्या क्या होता है।

’दिसंबर, 2009 में गोपाल सोनी नामक व्यक्ति ने 200 से अधिक आरटीआइ आवेदन दाखिल कर न्यू इंडिया एश्युरेंस कंपनी की जयपुर स्थित तीस शाखाओं और इसके 600 कर्मचारियों की जानकारी मांगी। अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत कंपनी से निकाले जाने के बाद उसने यह कदम उठाया।

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