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मुद्दा: साख पर आंच

मुद्दा
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आज संसद के संचालन में जो गतिरोध सामने आ रहे हैं, हमारे संविधान निर्माताओं ने उसकी कल्पना भी नहीं की थी। लिहाजा संविधान में इन अवस्थाओं के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया। हालांकि कार्य संचालन के लिए प्रक्रिया संबंधी नियम बनाने के अधिकार का प्रावधान किया गया है। इसके तहत संसद एवं देश की विधानसभाएं प्रक्रिया संबंधी नियम बना सकती हैं। संसद में अव्यवस्था फैलाने एवं संसदीय गरिमा से गिरा हुआ आचरण करने के लिए 1989 में 63 सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित कर दिया गया था। नियमों के अनुपालन की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की अधिक होती है। अगर वहीं पालन न करे तो मुश्किल खड़ी होती है। संसदीय व्यवस्था में यह महत्वपूर्ण है कि जो प्रतिपक्ष है उसे शासन व्यवस्था में भागीदार माना जाए। हमारे यहां हो यह रहा है कि विपक्ष को अछूत माना जाता है। संसदीय लोकतंत्र ऐसे नहीं चलता। मजबूरी की दुहाई देते हुए सहयोगी दलों को तरजीह देना और मुख्य विपक्षी दल को अछूत मानना संवैधानिक व्यवस्था के विपरीत है.

सुभाष कश्यप (संविधान विशेषज्ञ)


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संसद की कार्यवाही में बाधा डालना राष्ट्र के खिलाफ एक अति गंभीर अपराध है। यह लोकतंत्र के मंदिर को अपवित्र करने जैसा है। सभी राजनीतिक दलों द्वारा कभी न कभी किए गए ऐसे कृत्य से लगता है कि संसद को न चलने देने की साजिश में सभी समान रूप से भागीदार हैं। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को भी अपने अंतर्मन में झांकने की जरूरत है कि क्या उनकी जवाबदेही केवल संसद सदस्यों तक ही सीमित है या फिर संविधान सम्मत सदन की कार्यवाही और उसकी गरिमा को बनाए रखने की उनकी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। सदस्यों को भी सोचना चाहिए कि पांच साल के लिए चुने जाने का मतलब यह नहीं होता कि उनके मन में जो भी आए वही करें।

जगदीप एस छोकर (संस्थापक सदस्य, एडीआर)


लोकतंत्र सभी की सहमति से चलने वाली व्यवस्था है। यदि यह सहमति टूट जाए तो व्यवस्था भंग होती है। आज भारत में जो हो रहा है इससे संसद की मर्यादा घट रही है और यदि ऐसा रहा तो संसद ही खत्म हो जाएगी। तब देश की जनता इसे अप्रासंगिक मानकर इसकी समाप्ति की आवाज उठाने लगेगी। जो लोग संसद को नहीं चलने दे रहे हैं वे जाने-अन्जाने में अपना भी और व्यवस्था का भी नुकसान कर रहे हैं।

– मोहन सिंह (राज्यसभा सदस्य, पूर्व में लोकसभा के सर्वश्रेष्ठ सांसद से सम्मानित)


संसद तो गतिरोध खत्म करने की जगह है। लोकतंत्र की इस सर्वोच्च संस्था में गतिरोध इतना लंबा नहीं होना चाहिए। संसद तो चर्चा की जगह है वहां इस तरह का गतिरोध ठीक बात नहीं है। इसके साथ ही यह सभी दलों का कर्तव्य है कि वह इस गतिरोध को खत्म करने का प्रयास करें।

गुरुदास दास गुप्ता (नेता, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी)


इस तरह के गतिरोध की प्रवृत्ति को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाने की जरूरत है। ताकि संसद में बहस के जरिए जरूरी कानून बन सके और संसद जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को साबित कर सके।

पीएल पुनिया (कांग्रेस सांसद एवं पूर्व नौकरशाह)


लोकतंत्र में मतभेद हो सकते हैं। जब मतभेद होगा तो गतिरोध भी होगा लेकिन यह गतिरोध अगर लंबा हुआ तो संसद का महत्व कम हो जाएगा। लिहाजा यह कोशिश हमेशा होनी चाहिए कि संवाद के जरिए इसे खत्म किया जाए और सभी दलों के प्रमुखों को इसकी कोशिश करनी चाहिए

रघुवंश प्रसाद सिंह (नेता, राजद)


देश के सामने केवल एक ही मुद्दा नहीं है कि उसी के ऊपर संसद ही ठप कर दी जाए। संसद के सामने सैंकड़ों मसले हैं। इस तरह के गतिरोध का गलत संदेश जाता है। भविष्य में कोई भी पार्टी इसे नजीर मानकर ऐसा कर सकती है।

अरुणा रॉय (सामाजिक कार्यकर्ता)


संसदीय प्रणाली में न केवल सशक्त विरोधी पक्ष की आवश्यकता होती है, न केवल प्रभावोत्पादक ढंग से अपने विचार व्यक्त करना होता है, बल्कि सरकार और विरोधी पक्ष के बीच सहयोग का आधार भी अत्यावश्यक होता है। किसी एक विषय के संबंध में ही सहयोग काफी नहीं है, बल्कि संसद के काम को आगे बढ़ाने का आधार परस्पर सहयोग ही है और जहां तक हम ऐसा करने में सफल होंगे, वहां तक हम संसदीय तंत्र की ठोस नींव रखने में भी सफल होंगे।

जवाहर लाल नेहरू (देश के पहले प्रधानमंत्री)


सच्चे लोकतंत्र के लिए व्यक्ति को केवल संविधान के उपबंधों अथवा विधानमण्डल में कार्य संचालन हेतु बनाये गये नियमों और विनियमों के अनुपालन तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि विधानमण्डल के सदस्यों में लोकतंत्र की सच्ची भावना भी विकसित करनी चाहिए। यदि इस मौलिक तथ्य को ध्यान में रखा जाए तो स्पष्ट हो जायेगा कि यद्यपि मुद्दों पर निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जायेगा, फिर भी यदि संसदीय सरकार का कार्य केवल उपस्थित सदस्यों की संख्या और उनके मतों की गिनती तक ही सीमित रखा गया तो इसका चल पाना संभव नहीं हो पायेगा। यदि हम केवल बहुमत के आधार पर कार्य करेंगे, तो हम फासिज्म, हिंसा और विद्रोह के बीज बोएंगे। यदि इसके विपरीत, हम सहनशीलता की भावना, स्वतंत्र रूप से चर्चा की भावना और समझदारी की भावना का विकास कर पाये तो हम लोकतंत्र की भावना को पोषित करेंगे।

गणेश वासुदेव मावलंकर (पहले स्पीकर)

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मर्म

‘संसदीय प्रणाली किसी गैर संसदीय प्रणाली से ज्यादा जिम्मेदार होती है। इसके साथ ही इनकी जवाबदेही तय करने वाली संस्था और समय को लेकर भी इनमें भिन्नता होती है। गैर संसदीय प्रणाली जैसाकि अमेरिका में अस्तित्व वाली प्रणाली के तहत कार्यपालिका की जवाबदेही का आकलन कुछ समय के अंतराल पर (आवर्ती) किया जाता है। इंग्लैंड में जहां संसदीय प्रणाली मौजूद है, कार्यपालिका की जवाबदेही का आकलन रोजाना और आवर्ती दोनों तरीके से किया जाता है। रोजाना का आकलन संसद सदस्यों द्वारा प्रश्नों, प्रस्तावों, अविश्वास प्रस्तावों, स्थगन प्रस्तावों और भाषणों पर होने वाली बहसों के माध्यम से किया जाता है। समय समय पर किया जाने वाला आकलन निर्वाचकों द्वारा चुनाव के समय किया जाता है जो हर पांच साल या इससे पहले हो सकता है। अमेरिकी प्रणाली में गैरमौजूद रोजाना की जवाबदेही के आकलन के बारे में ऐसा महसूस किया गया है कि यह न केवल आवर्ती प्रणाली से कहीं ज्यादा प्रभावकारी है बल्कि भारत जैसे देश के लिए ज्यादा जरूरी भी है। संविधान के मसौदे की सिफारिश में कार्यपालिका की संसदीय प्रणाली को अधिक स्थायित्व से अधिक जवाबदेह बनाने पर जोर दिया गया है।’

डॉ भीमराव अंबेडकर (चार नवंबर, 1948 को संविधान सभा में उद्बोधन)


नुकसान

सामान्यतया संसद के कामकाज के घंटों का मौद्रिक नुकसान निकालने के लिए जो तरीका अपनाया जाता है वह इसकी वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता है। अभी इस नुकसान को संसद के सालाना बजट के आधार पर तय किया जाता है। यानी जितने घंटे शोरशराबे में नष्ट हो गए उनकी कुल बजट में से मौद्रिक कीमत निकाल ली जाती है। हालांकि इससे नुकसान की पूरी तस्वीर साफ नहीं हो पाती है। सत्र के दौरान सभी क्षेत्रों से जुड़े विधेयकों, नीतियों इत्यादि के विलंबन से छात्र से लेकर किसानों, मजदूरों, नौकरी पेशा जैसे कई वर्गों के हित प्रभावित होते हैं। इससे देश की अर्थव्यवस्था विकास दर भी प्रभावित होती है। एक अध्ययन के अनुसार जीडीपी विकास दर में एक फीसद की कमी से अर्थव्यवस्था को 90,000 करोड़ रुपये की चपत लगती है। राजस्व आय में भी 15,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है। इससे बेरोजगारों की फौज भी खड़ी हो जाती है। अगर इस अध्ययन के इन आंकड़ों के आधार पर संसद के बर्बाद हुए समय का आकलन किया जाए तो आंकड़े चौकाने वाले होंगे।

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कायदा कानून

अनिवार्य उपस्थिति

अधिकांश देशों की संसद में बैठकों और कमेटियों में उपस्थिति संबंधी नियम हैं। कुछ देशों ने तो अनिवार्य उपस्थिति संबंधी विधान कर रखा है लेकिन यह केवल निर्धारित मानक तय करने के लिए किया गया है। मसलन जर्मनी की संसद बुंदेस्टैग में संसदीय प्रक्रिया संबंधी यह नियम है कि सदस्य संसदीय प्रक्रिया में भाग लेंगे। यानी कि उनसे अपेक्षा है कि वे संसद में केवल उपस्थित ही नहीं रहें बल्कि संसदीय कार्यवाही में हिस्सा भी लें। इस तरह के कई नियम कई देशों (इंडोनेशिया, रूस, ब्रिटेन, अमेरिका) में हैं लेकिन उनको प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया गया है। ये एक तरह के नैतिक कर्तव्य हैं। इनको प्रभावी तरीके से लागू नहीं करने का सबसे बड़ा कारण दरअसल यह है कि संसद सदस्य कई कमेटियों के सदस्य होते हैं और वे नियमित अंतर पर मिलते रहते हैं। इसके बावजूद ऐसा भी नहीं है कि लगातार अनुपस्थिति के बावजूद कार्रवाई नहीं हो। 1975 में ब्रिटेन के हाउस ऑफ कामंस के एक सदस्य के मामले में कमेटी का गठन किया गया। वह सज्जन दरअसल ऑस्ट्रेलिया में रहते थे और इसलिए कभी सदन में नहीं आते थे। कमेटी ने उनको निष्कासित करने का सुझाव दिया।


अन्य प्रतिबंध : भारत में यदि कोई संसद सदस्य लगातार 60 दिन सदन की बैठक में नहीं आता है तो उसकी सीट को रिक्त घोषित कर दिया जाता है।  जिम्बाब्वे में 21 दिन गैरहाजिर होने पर सदस्य की सीट को खाली घोषित किया जा सकता है।


आचरण संबंधी नियम : सभी देशों में सदन की गरिमा को बनाए रखने के लिए आचरण एवं व्यवहार संबंधी नियम हैं। भारत के उच्च सदन राज्यसभा में आचार-व्यवहार संबंधी कायदे बनाए गए हैं। कनाडा, मिस्र, जांबिया और जिम्बाब्वे जैसे देशों में तो ड्रेस कोड तक है।


अनुशासनहीनता : ग्रीस, लक्जमबर्ग, स्लोवेनिया और अमेरिका में यदि किसी सदस्य को एक बार उसके आचरण संबंधी चेतावनी देने के बावजूद वह नहीं मानता तो उसको उस पूरे दिन की कार्यवाही में भाग लेने से वंचित किया जा सकता है।


भारत, बेल्जियम, साइप्रस और अमेरिका जैसे देशों में पीठासीन अधिकारी असंसदीय भाषा, टिप्पणी को सदन की कार्यवाही के रिकॉर्ड से हटाने के लिए कह सकता है। कई देशों में पीठासीन अधिकारी अभद्र आचरण के लिए संबंधित सदस्य को माफी मांगने के लिए कह सकता है।


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