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साख पर आंच

मुद्दा
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संसद

लोकतंत्र का मंदिर। जनता की समस्याओं का निराकरण करने वाली देश की सबसे बड़ी पंचायत। हम सबकी आस्था और भरोसे का प्रतीक। हमारी संसदीय प्रणाली को स्थायित्व से ज्यादा जवाबदेह बनाने की संविधान सभा की मंशा को साकार करती संस्था। दुनिया भर के लोकतंत्र के लिए मिसाल बन चुकी इस व्यवस्था ने समय समय पर अपनी साख को साबित किया है।


साख

बीते कुछ साल से लोकतंत्र के इस सर्वोच्च संस्था की गरिमा में आई गिरावट अब जगजाहिर हो चुकी है। आम जनमानस आहत है। हर बार की तरह संसद का ताजा मानसून सत्र भी हंगामे का शिकार हो चुका है। इसे हम अपनी संसदीय व्यवस्था की कमजोरी कहें या राजनीतिक दलों का जवाबदेही से बचने का तरीका, यह गतिरोध टूटता नहीं दिख रहा है। जब संसद पर कोई आक्षेप लगाता है तो हमारे माननीय उसकी महानता-सर्वोच्चता के तराने गाते नहीं अघाते हैं। आज वही राजनेता कोयला ब्लॉक आवंटन की आपसी लड़ाई को जनता के बीच ले जाने की बात कहकर खुद संसद की श्रेष्ठता खारिज करते हुए दिख रहे हैं।


सवाल

ताजे संदर्भ में राजनीतिक दलों के रवैये के कारण संसद की गरिमा को गहरी क्षति पहुंच रही है। किसी को भी यह समझने में दिक्कत हो सकती है कि जो बहस संसद के बाहर हो रही है वह संसद के अंदर क्यों नहीं हो सकती? दोनों पक्ष खुद को सही और दूसरे को गलत साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश में दोनों पक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत कदम उठाने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। विडंबना यह है कि जिन राजनीतिक दलों पर संसद की गरिमा बनाए रखने का दायित्व है वही उसके मान-सम्मान से खेलते हुए दिख रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों के रवैये से संसद की साख को पहुंचने वाली ठेस हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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A Suryaसाख पर आंच

लगता है कि अपने व्यवहार से हमारे माननीय यही साबित करना चाहते हैं कि जब इसी तरह से देश को चलाया जा सकता है तो इसके लिए संसद की क्या जरूरत है?


होती जा रही इस लड़ाई का निकट भविष्य में कोई समाधान निकलता नहीं दिख रहा है। संसद के दोनों सदन ठप पड़े हैं। आठ अगस्त से शुरु हुए इस सत्र में लोकसभा अभी तक केवल तीन दिन ही चल सकी है। कुछ ऐसी ही स्थिति राज्यसभा की भी है।


वर्तमान लोकसभा के पहले-दस सत्रों के 451 घंटे बाधित हो चुके हैं। 11वें सत्र में अब तक के निर्धारित 132 घंटे में से कुल 7.35 घंटे काम हुआ है। पिछले दो दशक में हंगामे और शोर-शराबे का चलन बढ़ता ही जा रहा है। 50 साल पहले दोनों सदन कुल समय में से एक तिहाई समय बजटीय प्रक्रिया पर खर्च करते थे। अब यह समय घटकर 10 प्रतिशत  रह गया है।


अन्य क्षेत्रों में भी संसद का क्षरण देखने को मिलता है। हमें याद है कि आठवें दशक के शुरुआती वर्षों में प्रश्न काल के दौरान मंत्रियों के चेहरों पर हवाईयां उड़ा करती थीं। संसद सदस्य तैयार होकर आते थे और मंत्री महोदय से सवाल पूछते थे। यहां तक कि कई बार स्पीकर, मंत्रियों को इस बात के लिए झिड़क देते थे कि आप संबंधित मसले पर ठीक से तैयार होकर नहीं आए हैं। मंत्री महोदय के लिए वह घंटा बहुत लंबा हो जाता था और वह मन ही मन प्रार्थना करते थे कि जल्दी से 12 बजे और स्पीकर प्रश्न काल को खत्म करने की घोषणा करें।


अब यह सब कुछ बदल गया है। हाल के वर्षों में संसद सदस्यों ने ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछने के लिए असिस्टेंट नियुक्त कर रखे हैं। ये सदस्य प्रश्नों की गुणवत्ता से ज्यादा उनकी संख्या को लेकर चिंतित रहते हैं क्योंकि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में बताना चाहते हैं कि उन्होंने अपने कार्यकाल में ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछे। वह अपने पूर्ववर्तियों की तरह तैयार होकर भी सदन में नहीं जाते। नतीजतन, मंत्रीगण भी तनाव मुक्त रहते हैं। दूसरी ओर संसद सदस्य महोदय तनाव में दिखते हैं क्योंकि उनको अपने ऑफिस द्वारा पूछे गए प्रश्नों की जानकारी नहीं रहती। एक रात पहले जब उनको पता चलता है कि मौखिक जवाब के लिए उनका प्रश्न सूचीबद्ध है तो उनको तैयारी करने का ज्यादा मौका ही नहीं मिलता।


कानून बनाने को लेकर हमेशा सबसे कम वरीयता दी जाती है। लंच के बाद जब सदन में चर्चा और पास कराने के लिए बिल पेश किए जाते हैं तो संसदीय कार्यवाही देखने पर सहज ही कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि दोनों सदनों में कई बार निर्धारित कोरम को पूरा करने की समस्या हो जाती है। शून्य काल में जब हंगामा होता है तो सदस्यों की संख्या सदन में सबसे ज्यादा होती है और जब 120 करोड़ लोगों के लिए कानून का निर्माण किया जाता है तो उनकी संख्या सबसे कम होती है। जब कोई बिल पेश किया जाता है तो लोकसभा के कुल 545 सदस्यों में से केवल 30-40 सदस्य ही होते हैं। इसी तरह राज्यसभा में इस तरह की गंभीर चर्चा के समय 15-20 सदस्य होते हैं। सदस्य जानते हैं कि किसी विधान पर बोलने से पहले उनको ढेर सारा होमवर्क करना होगा इसलिए वह कतराते हैं।


आमतौर पर सत्र का शुरुआती पहला हिस्सा बड़े राजनीतिक मुद्दों और सत्ता एवं विपक्ष के बीच घमासान की भेंट चढ़ जाता है। उसके बाद गतिरोध का समाधान करने के लिए सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के बीच समझौता होता है। सरकार कहती है कि एक दर्जन जरूरी बिलों को पास कराना आवश्यक है। विपक्ष सरकार को आश्वस्त कराता है और इस प्रकार बिना ज्यादा बहस के कई बिल पास कर दिए जाते हैं।


इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कई बार अनेक दिनों से सदन में जारी गतिरोध के बीच सरकार शोर-शराबे के बीच बिल को पास कराने का निर्णय लेती है। इसका ताजा नजारा लोकसभा में 30 अगस्त को देखने को मिला। उस दिन जब कोयला घोटाले पर विपक्षी सदस्य प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगते हुए सदन में नारे लगा रहे थे तो इस बीच ही दो मंत्रियों श्रीकांत जेना और गुलाम नबी आजाद ने रासायनिक हथियार कन्वेंशन (संशोधन) बिल और आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (संशोधन) बिल को पेश कर दिया। दोपहर 12.10-12.13 बजे के बीच तीन मिनटों के भीतर ही इन बिलों को ध्वनि मत से पास कर दिया गया।


रासायनिक हथियार बिल अंतरराष्ट्रीय समझौते से संबंधित है और सरकार द्वारा पुराने बिल में किए गए संशोधन से संबंधित है। इसी तरह एम्स बिल छह नए एम्स संस्थाओं को वैधानिक दर्जा देने से संबंधित है। अब कोई भी आश्चर्यचकित हो सकता है कि क्या दुनिया की कोई अन्य संसद बिल पास करने के इस तरह के विश्व रिकॉर्ड को तोड़ सकती है? इस तरह के व्यवहार से हमारे माननीय तो यही साबित करना चाहते हैं कि जब इसी तरह से देश को चलाया जा सकता है तो इसके लिए संसद की क्या जरूरत है? देश के राजनीतिक नेतृत्व को मुद्दे की गंभीरता को समझना चाहिए और दलगत निष्ठाओं से उठते हुए देश की जनता की संसदीय लोकतंत्र में आस्था बनाए रखने के लिए प्रयास करना चाहिए।


इस आलेख के लेखक ए सूर्यप्रकाश हैं.

Tag : Parliament, Centre allocates coal blocks, Centre allocates coal blocks, Coal Minister


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