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सुविधाओं के बिना बेकार है कसरत
वास्तविक भारत इतना गरीब, बेरोजगार और बुनियादी सुविधाओं से वंचित है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सहभागी बनने में असमर्थ है।
पिछले दिनों देश एक बार फिर बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ सिविल सोसायटी समूहों की सड़कों पर लड़ाई का गवाह बना। जहां बाबा रामदेव ने विदेश में जमा काला धन भारत में लाने की बात कही वहीं टीम अन्ना ने भ्रष्ट मंत्रियों को हटाने के लिए जनता का आह्वान किया। ये दोनों ही आंदोलन वास्तविक भारत से दूर देश की राजधानी में हुए। यद्यपि लोकतंत्र में इस तरह के किसी भी आंदोलन के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि जनता की भागीदारी सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभा सकती है।
देश की अधिसंख्य आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, शुद्ध पेयजल और सतत बिजली की कमी अधिकांश देशवासियों के लिए प्रमुख मुद्दे हैं। सरकार के निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम बहुत कारगर नहीं साबित हुए हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य मानव विकास सूचकांक क्षेत्रों में देश की स्थिति बेहद दयनीय है। मानव विकास सूचकांक (एचडीआइ) के लिहाज से 187 देशों की सूची में भारत 134वें स्थान के निचले पायदान पर खड़ा है। बुनियादी सुविधाओं से वंचित भ्रष्टाचार से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला यह तबका उससे लड़ने के मामले में बेहद कमजोर है। वह प्रतिदिन सामाजिक समस्याओं मसलन जाति व्यवस्था और लैंगिक भेदभाव से जूझता है और रोटी, कपड़ा और मकान की जुगाड़ में लगा रहता है। ऐसे में भले ही भ्रष्टाचार का मामला अहम हो लेकिन इन बुनियादी समस्याओं से जूझ रही आबादी से कैसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वह भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा बने?
जब तक इन समस्याओं का समाधान नहीं निकलता तब तक इस तरीके के जन आंदोलन व्यवस्था के बदलाव में तेजी नहीं ला सकते। यह तभी संभव होगा जब हम सभी अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक होते हुए उनको हासिल करने का प्रयास करेंगे। इसके पहले लेकिन यह बेहद जरूरी है कि आर्थिक ढांचे मसलन बिजली, परिवहन, ऊर्जा, टेलीकॉम, सड़क और सामाजिक ढांचे मसलन स्वास्थ्य एवं शिक्षा को सुदृढ़ किया जाए।
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‘पौ-बारह’ नहीं, निकले ‘तीन काने’
चौसर खेलने वाले जानते हैं कि ‘तीन काने’ जुए में पराजय के सबसे तगड़े सबूत होते हैं।
1947 में उस ऐतिहासिक आधी रात के शून्य पल में, स्वतंत्र भारत की नियति के साथ जो जुआ हमारे सर्वप्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खेला था, आज 65 साल बाद ऐसा लगता है कि वे तीनों पासे उलटे चौसर पर गिरे होंगे। अगर तीनों पासे में छक्के पड़े होते तो वह जुआ देश के लिए ‘पौ -बारह’ सिद्ध होता। ऐसा नहीं हुआ। तीनों पासों में निश्चय ही ‘छक्के’ नहीं ‘इक्के’ निकल आए, मतलब ‘तीन-काने’।
साफ है कि हमारा देश आजादी का वह जुआ हार चुका है। इसको किसी भी विज्ञापन, प्रचार, मीडिया और अखबार के जरिए ढांका-मूंदा नहीं जा सकता। अपने आपको एशिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली आर्थिक ताकत कहने वाली, विकास के दावे और इसी तरह की परियोजनाएं बनाने वाली सरकारों और उसे चलाने वाली ताकतों ने इसे दीवालियों, ठगों, अफवाहबाजों, भ्रष्ट और अस्सी करोड़ गरीबों का देश बना डाला है।
अभी कुछ ही दिन हुए, 30-31 जुलाई की तारीख ने देश के 21 राज्यों के 70 करोड़ नागरिकों को अंधेरे में डाल दिया था। पावर ग्रिड के फेल हो जाने की वजह से यह ऊर्जा के इतिहास का शर्मनाक अंधकार काल था। यह उस समय हुआ जब सरकारें हर नागरिक को मोबाइल फोन बांटने, हर छात्र को कंप्यूटर और लैपटाप देने, विधायकों को 20 लाख की कारें खरीदने, मंगल ग्रह में अंतरिक्षयान उतारने, रिकार्ड तोड़ दूरी तक मार करने वाली मिसाइलें बनाने की योजनाएं बना रहीं थीं। शौच, शिक्षा, स्वास्थ्य-चिकित्सा, खेती-बाड़ी, छोटे-मोटे व्यापार और उद्यमों पर हर तरह की रियायतें खत्म की जा रहीं थीं। पेट्रोल और रसोई ईंधन की कीमतें आम लोगों की पहुंच से बाहर जा चुकी थीं। कई ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली हॉकी टीम, संसार की सबसे लद्धड़ टीम बन चुकी थी। और गर्भ में ही मार दी जाने वाली स्त्री, जिसका मर्द आबादी के साथ अनुपात हर रोज घटाता जा रहा था, वही स्त्री अंतरिक्ष से स्वतंत्रता दिवस की बधाइयां दे रही थी, बैडमिंटन के खेल में पदक जीत रही थी और उसी जैसी एक स्त्री खेलों के भारतीय इतिहास में पहली बार ओलंपिक के ‘घूंसेबाजी’ जैसे खतरे वाले खेल में फाइनल तक टक्कर देकर रजत पदक लेकर लौट रही थी। देश की हर अस्मिता दूसरी अस्मिताओं से डरी हुई उनकी ओर संदेह की निगाहों से देख रही थी। वे एक दूसरे से स्वतंत्रता, अधिकार और सत्ता में अपना हिस्सा मांग रही थी। अपनी आजादी के अलग सपने देख रही थी। सच तो यह है, और इसे हर कोई जान रहा है कि 15 अगस्त की आधी रात आजादी के चौरस पर प्रधानमंत्री द्वारा फेंके गए पासों ने, हमारी नियति के साथ खेले गए जुए में, ‘पौ-बारह’ नहीं ‘तीन काने’ ही गिराये थे। हमारा देश ठीक उसी शून्य पल में जुआ हार चुका था। अब हम हारे हुए जुआरियों के देश के गुलाम हैं।
19 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “मुद्दा : 19वीं सदी के कानून” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
19 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “मुद्दा : व्यवस्था परिवर्तन” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
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