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मुद्दा : 19वीं सदी के कानून

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ब्रिटेन में बदलाव

हम करीब 200 साल अंग्र्रेजों के उपनिवेश रहे हैं। लिहाजा हमारी सभी व्यवस्थाओं में ब्रिटेन की छाप दिखती है। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका जैसी प्रमुख व्यवस्थाएं हमने ब्रिटेन की तर्ज पर ही विकसित की है। अब ब्रिटेन में भी व्यवस्था परिवर्तन के सुर तेज हो रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जहां से हमने व्यवस्था लेकर लागू की जब वहां बदलाव प्रस्तावित हैं तो हम इस काम को लेकर इतना सुस्त क्यों हैं। आइए ब्रिटेन की व्यवस्था में प्रस्तावित बदलावों पर एक नजर डालते हैं:


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उप चुनाव कराने की ताकत

वर्तमान में कोई उप चुनाव तभी कराया जाता है, जब उस सांसद की मृत्यु हो जाती है या वह इस्तीफा दे देता है या फिर उसे एक साल से अधिक की सजा हो जाती है। ब्रिटिश सरकार ने एक ऐसा विधेयक तैयार किया है जिसके अनुसार यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र के 10 फीसद निर्वाचक अपने सांसद को वापस बुलाने के लिए वोट करते हैं तो उस चुनाव क्षेत्र में उप चुनाव अपरिहार्य हो जाएगा। उप चुनाव में वर्तमान सांसद भी भाग ले सकेगा।


हाउस ऑफ कामंस के लिए नई चुनाव प्रणाली

ब्रिटेन में ‘फस्र्ट पास्ट द पोस्ट’ चुनाव प्रणाली अमल में है। इस प्रणाली में सर्वाधिक मत प्राप्त उम्मीदवार को विजेता माना जाता है, भले ही उसे पूर्ण बहुमत न मिला हो। अब इस चुनाव तरीके को बदलकर आनुपातिक प्रतिनिधित्व (प्रपोर्शनल रिप्रजेंटेशन) प्रणाली को लागू करने की मांग तेज हो रही है। इस प्रणाली में अगर किसी दल को कुल वोटों का 30 फीसद मिलता है तो कुल सीटों की 30 फीसद उसके हिस्से में जाएंगी। इसके अलावा ब्रिटेन में वैकल्पिक मत (एवी) प्रणाली पर भी बहस जोरों पर है। इस प्रणाली में मतदाता को सभी उम्मीदवारों के लिए अपनी पसंद का क्रम तय करना होता है। उम्मीदवार को जीतने के लिए पचास फीसद मत हासिल करना अनिवार्य है। अगर कोई भी पचास फीसद मत नहीं हासिल कर पाया है तो सबसे कम मत पाए उम्मीदवार के मतों को मतदाताओं की पसंद के क्रम में शेष उम्मीदवारों में बांट दिया जाता है।


निर्वाचन क्षेत्रों का आकार

वर्तमान में यहां के हाउस ऑफ कामंस के लिए 650 सीटें हैं। इनकी संख्या कम करके 600 पर विचार चल रहा है। अभी कुछ चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या काफी ज्यादा तो कुछ में बहुत कम है। अब यह प्रस्तावित है कि 76000 मतदाताओं के राष्ट्रीय औसत से पांच फीसद कम या ज्यादा आकार के निर्वाचन क्षेत्र होने चाहिए।


हाउस ऑफ लॉड्र्स का चुनाव

मौजूदा समय में उच्च सदन का कोई भी सदस्य चुनकर नहीं आता है। पार्टी नेताओं द्वारा कुछ सदस्यों का नामांकन किया जाता है जबकि अधिकांश को यह सुविधा वंशानुगत प्राप्त है। मई, 2012 में ब्रिटेन की महारानी ने अपने भाषण में मौजूदा सत्र में हाउस ऑफ लाड्र्स के सुधार संबंधी विधेयक लाने की घोषणा की। दोनों सदनों की संयुक्त समिति ने नए प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया है।

ई-याचिका का इस्तेमाल: नागरिकों में इलेक्ट्रानिक याचिका के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सरकारी वेबसाइट पर जाकर लोग अपनी राय जाहिर कर सकें। सर्वश्रेष्ठ याचिका को लेकर कानूनी मसौदा तैयार किया जाए। इस मसौदे को संसद में पेश किया जाए। वहीं भारी समर्थन वाली याचिकाओं पर संसद में अनिवार्य रूप से बहस कराई जाए।


फंडिंग और लॉबीइंग

दलों के चुनावी खर्चों को लेकर व्यवस्था में सुधार की वकालत तेजी पकड़ रही है। सरकारी खर्चों पर चुनाव कराने से लोकतंत्र को ज्यादा पारदर्शी किया जा सकेगा।


मताधिकार की आयु

ज्यादा व्यापक मताधिकार के लिए आयु के मापदंड को कम किया जाना प्रस्तावित सुधारों में से एक है। 18 साल की आयु को घटाकर 16 साल किया जाना एजेंडे में शामिल है।


उम्मीदवारों का चयन:संसदीय चुनावों के लिए उम्मीदवारों का चयन पार्टियों के शीर्ष नेता करते हैं, लेकिन अब अमेरिका के प्राइमरी चुनाव की तर्ज पर उम्मीदवारों के चयन की बात हो रही है।

लिखित संविधान: ब्रिटेन दुनिया में ऐसा देश है जहां का संविधान लिखा नहीं गया है। दुनिया में अलिखित संविधान वाले केवल तीन देश हैं। शेष दो देश न्यूजीलैंड और इजरायल हैं। अब देश में लिखित संविधान तैयार किए जाने की मांग की जा रही है।

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19वीं सदी के कानून

हम जी रहे हैं 21वीं सदी में, हमारे रहन-सहन का तरीका, आचार-विचार और व्यवहार सब 21वीं सदी के हैं लेकिन आज भी कई ऐसे कानून हैं जो अंग्र्रेजों के जमाने से चले आ रहे हैं। किसी भी देश में व्यवस्था चलाने के लिए कानून बनाने पड़ते हैं। तत्पश्चात उन कानूनों पर अमल द्वारा व्यवस्था को सुचारु और अबाध रूप से चलाया जाता है। चूंकि हमारे कई कानून आज की जरूरतों को पूरा नहीं करते लिहाजा आज के समय में उनका कोई औचित्य नहीं है। अफसोस कि कानून बनाने की हमारी शीर्ष संस्थाएं संसद और राज्य विधानसभाएं भी इस व्यवस्था को बदलने की जहमत नहीं उठाती दिखती।


आधुनिकता का अभाव

देश के सभी प्रमुख कानून (क्रिमिनल और सिविल) ब्रिटिश न्यायिक प्रणाली से लिए गए हैं। इनमें से अधिकांश 19वीं सदी में तैयार किए गए थे। ये सभी 100 से 150 साल पुराने हैं। दुनिया के सभी देश अपने कानून को समय की जरूरत के मुताबिक आधुनिक करते रहे हैं, लेकिन हमने इसकी जहमत नहीं उठाई। समलैंगिकता को अपराध बताने वाले कानून को ब्रिटेन ने 1967 में समाप्त कर दिया था, हमारे यहां इसी कानून के खिलाफ अदालत ने 2009 में फैसला सुनाया था। आइपीसी की धारा 377 के अनुसार देश में समलैंगिकता अपराध है। इस कानून को 1860 में तैयार किया गया था।


अप्रासंगिक कानून

हमारे देश में करीब 3500 कानून संसद द्वारा तैयार किए गए हैं जबकि राज्य विधानसभाओं द्वारा तैयार कानूनों की संख्या 25000 है। इनमें से दो तिहाई कानून ऐसे हैं जिनका पिछले 65 साल के दौरान एक बार भी इस्तेमाल नहीं किया गया।

हास्यास्पद कानून: आइपीसी के तहत व्यभिचार के लिए केवल पुरुष दोषी, आत्महत्या के प्रयास का दोषी पाए जाने वाले पुरुष या महिला को एक साल की कैद और हत्या की दोषी महिला को जमानत मिलने का प्रावधान जबकि पुरुष के लिए प्रावधान नहीं।

पुराने कानून: किसी कानून की वैधानिकता और प्रासंगिकता को लेकर सरकार को सलाह देने वाली संस्था लॉ कमीशन ने इस संदर्भ में कई रिपोर्ट पेश की हैं। उसने कई कानूनों को अप्रासंगिक ठहराते हुए उन्हें समाप्त या बदले जाने की कानून मंत्रालय से सिफारिश की है। जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर की अध्यक्षता में गठित एक आयोग ने पाया ऐसे 300 कानून केवल केरल में लागू हैं जो आज के समय के लिए अव्यावहारिक हो चुके हैं। कम से कम 199 कानून ऐसे हैं जो 100 साल से ज्यादा पुराने हैं। इंडियन ट्रस्ट एक्ट 1882, द निगोसिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट (फॉर बैंक्स)1881, इंडियन पेनल कोड 1860, एविडेंस एक्ट 1872, द कांट्रैक्ट एक्ट 1872, लैंड एक्वीजिशन एक्ट 1894, द ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट 1923, द बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 प्रमुख हैं।


पुरातन कानूनों को हटाने का प्रयास

बाबा आदम के जमाने के कानूनों की समीक्षा करने का काम 1998 में किया गया। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने ऐसे कानूनों की पहचान के लिए पीसी जैन की अध्यक्षता में एक विशेष आयोग का गठन किया। आयोग ने 1382 कानूनों की पहचान कर उन्हें खत्म करने की सिफारिश दी। इनमें से अभी तक केवल 415 कानून खत्म किए जा सके हैं। 17 कानून समाप्त किए जाने की प्रक्रिया में है जबकि नौ कानूनों की जांच की जा रही है।


कानून किसिम किसिम के

एक वाक्य का कानून: देश में लागू सबसे पुराना कानून 1836 में बना था। ये महज एक वाक्य का कानून है। इस कानून से पश्चिम बंगाल को यह अधिकार प्राप्त है कि वह जितने चाहे उतने जिले बना सकती है।

द इंडियन टेलीग्र्राफ एक्ट, 1885: जब यह कानून अस्तित्व में आया था तब टेलीविजन की अवधारणा और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उद्विकास की बात सोची भी नहीं जा सकती थी।

द प्रीवेंशन ऑफ क्रूएल्टी टू एनीमल एक्ट: 1960 में नेहरू द्वारा पेश किया गया था। इसमें जानवरों का शिकार करने वाले और उन्हें मारने वाले लोगों के लिए प्रावधान किया गया है कि पचास रुपये का मामूली अर्थदंड चुकाकर वे आसानी से छूट सकते हैं।

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जनमत

Chart-1क्या समाजिक-आर्थिक विसंगतियों को दूर किए बिना व्यवस्था परिवर्तन बेमानी है?

84% हां

16% नहीं


Chart-2क्या समाजिक योगदान के बिना सरकार या प्रशासनिक स्तर पर व्यवस्था परिवर्तन संभव है ?

15% हां

85% नहीं


आपकी  आवाज

आज देश  में इतनी समाजिक आर्थिक समस्याए हैं जिनके कारण लोग व्यवस्था परिवर्तन की मुहिम चाहकर भी नहीं जुड़ पाते हैं. बिना इन विसंगतियों को दूर किए किसी बदलाव की सोच बेमानी होगी.



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