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मुद्दा : व्‍यवस्‍था परिवर्तन

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व्यवस्था: हाल ही में हमारी स्वधीनता के 65 साल पूरे हुए। इस मौके पर पूरा देश जश्न में डूब गया था। डूबे भी क्यों न, आजादी का नशा होता ही कुछ ऐसा है। आजादी के बाद पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक हमने अपनी एक स्वतंत्र व्यवस्था बनाई। इस व्यवस्था ने हमें विश्व पटल पर एक मुकाम दिलाया। हमें उदीयमान आर्थिक महाशक्ति माना जाने लगा। लोगों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत में सुधार भी दिखा।


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बदलाव: जन कल्याण की सुस्त रफ्तार के चलते मौजूदा व्यवस्था में बदलाव की मांग होती रही। तर्क है कि अगर समय से ये बदलाव किए गए होते तो आज हमारी उपलब्धियां कहीं ज्यादा होती। हाल ही में व्यवस्था परिवर्तन की मांग वाले आंदोलनों ने जोर पकड़ लिया। उनकी दलील है कि भले ही हमें सूचना का अधिकार कानून, शिक्षा का अधिकार कानून और रोजगार गारंटी जैसे दर्जनों बेहतरीन कानून इसी व्यवस्था ने दिए हों, लेकिन अगर पंचायत से पार्लियामेंट तक की ये सब व्यवस्थाएं बहुत पहले बन गई होतीं तो हमारा जीवन स्तर किसी विकसित देश के नागरिक जैसा होता।


बहस: व्यवस्था परिवर्तन की बहस जोर पकड़ चुकी है। बदलाव की सुस्त रफ्तार के प्रति लोगों में आक्रोश है। हालांकि उन्हें पता है कि भारतीय दर्शन में सुस्त रफ्तार को भरोसे का परिचायक माना गया है। तभी तो हम बचपन से ‘देर आए दुरुस्त आए’ कहावत और खरगोश और कछुए की कहानी पढ़ते आए हैं। बहरहाल अब लोग अपना धैर्य खोते जा रहे हैं। ऐसे में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर कई सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। मौजूदा व्यवस्था में बदलाव कैसे किया जाए? क्या वह वर्तमान व्यवस्था से बेहतर साबित होगी? क्या सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर किए बिना कोई भी व्यवस्था शत प्रतिशत नतीजे देने में सक्षम होगी? क्या बिना सामाजिक योगदान और लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाए ऐसा बदलाव सार्थक होगा। व्यवस्था परिवर्तन की बढ़ती मांग के दौरान इस सवालों की पड़ताल करना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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डॉ मानिंद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू
डॉ मानिंद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू

जनप्रतिनिधित्व को मिले मजबूती


कई विसंगतियों के बावजूद ऐसा लगता है कि वर्तमान व्यवस्था का कोई विकल्प हमारे सामने नहीं है। इसलिए हमें इसमें सुधार की तरफ ध्यान देना चाहिए।


भारतीय प्रजातंत्र के महत्वपूर्ण अंग संसद की विश्वसनीयता पर पिछले वर्षों से बहुत से सवाल खड़े किए जाने लगे हैं। बहुत से लोग यह मानने लगे हैं कि भारतीय संसद सही मायनों में जनप्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं है। हाल में हुए आंदोलनों ने प्रतिनिधित्व की इस व्यवस्था की कमजोरियों को बहुत हद तक उजागर कर दिया है।


अन्ना हजारे या बाबा रामदेव का आंदोलन सफल हो या असफल हो, लेकिन किसी भी राजनीतिक विश्लेषक को यह मानने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि उन्हें मिले व्यापक समर्थन के पीछे आम लोगों में संसद के प्रति बढ़ता अविश्वास है। भारत के राजनीतिक वर्ग के चरित्र के बारे में लगभग आम सहमति सी हो गयी है कि उनके लिए राष्ट्रहित या जनहित से ज्यादा सत्ता में काबिज होने के लिए अपनाये जाने वाले हथकंडे महत्वपूर्ण हो गए हैं। घोटालों के अंबार ने लोगों के इस विचार को पुख्ता कर दिया है कि संसद भ्रष्टाचार को प्रश्रय दे रही है।  घोटाले दर घोटाले बताते हैं कि राजनीतिक वर्ग का पूंजीपतियों के साथ सांठ-गांठ द्वारा सरकारी खजाने को लूटा जा रहा है।


राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन करने वाले कुछ विद्वानों का यह मानना सही हो सकता है कि संसद देश के सांस्कृतिक बहुलता का प्रतिनिधित्व करती है, लेकिन सवाल यह है कि क्या देश के वर्गीय चरित्र को भी संसद में सही प्रतिनिधित्व प्राप्त है। संसद तक पहुंचने के रास्ते किस हद तक खुले हैं? जनप्रतिनिधित्व का मामला अब धन, परिवार या फिर बाहुबल से जुड़ चुका है। कोई भी आम आदमी जन प्रतिनिधित्व करने का सपना केवल पंचायत स्तर तक ही सोच सकता है। राजनीतिक पार्टियां परिवारवाद की शिकार हैं। हर राज्य में कुछ क्षत्रप हैं जिनका जनाधार जातिहित, धर्महित के नारों से निर्धारित होता है। पिता के बाद पुत्र या पुत्री का पार्टी अध्यक्ष होना कई पार्टियों की नियति है। आधुनिक राजकुमार भी देशाटन कर भारत को समझने का प्रयास करते हैं। समझने की ईमानदारी क्या गांधी के भारत यात्रा की तरह है, इस पर सहमति हो पाना मुश्किल है।


भारतीय व्यवस्था के इस बदहाली का कारण क्या हो सकता है? एक कारण तो शायद यह है कि संसदीय व्यवस्था शायद एक औपनिवेशिक पृष्ठभूमि से जुड़ी है। एक तरह से इस संस्था को भारत में कृत्रिम तरीके से आरोपित किया गया है।


गांधी और जयप्रकाश जैसे जनता की नब्ज को समझने वाले चिंतकों का यह मानना था कि जनप्रतिनिधित्व के लिए राजनीतिक दलीय व्यवस्था की जगह कोई ऐसी व्यवस्था सही होगी जिसमें जमीनी स्तर से केंद्रीय स्तर तक की प्रतिनिधित्व व्यवस्था आपस में जुडी हों। ऐसी ही व्यवस्था सही मायने में भारतीय सांस्कृतिक और वर्गीय बहुलता को प्रतिनिधित्व दे पाने में सक्षम होगी। प्रतिनिधित्व की समस्या के समाधान के लिए पंचायत व्यवस्था लाने का प्रयास किया गया, लेकिन इसका आधुनिक अवतार केवल सरकारी तंत्र का हिस्सा बन कर रह गया है। ऐसा लगता है कि प्रतिनिधित्व का सवाल पंचायत हो या संसद दोनों में एक तरह का ही रहता है। इस बात से सहमत होने के बावजूद ऐसा लगता है कि वर्तमान व्यवस्था का कोई विकल्प हमारे सामने नहीं है। इसलिए हम शायद इतनी बात कर सकते हैं कि इस व्यवस्था में क्या सुधार हो सकता है।


जनप्रतिनिधित्व की संस्थाएं चाहे जैसी भी हों, उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि देश की आर्थिक व्यवस्था कैसी है? प्रजातंत्र और पूंजीवाद का रिश्ता हमेशा ही असहज होता है। प्रजातंत्र जनहित की बात करता है जबकि पूंजीवाद के मूल में है व्यक्तिगत लाभ। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इस बात को बखूबी समझा था। यही कारण है कि पूंजी की निरंकुशता के खतरे से बचने के लिए संविधान में व्यवस्था की गयी है, लेकिन भूमंडलीकरण और उदारवादी पूंजीवाद के नए आर्थिक मंत्र ने बिना संविधान संशोधन किये ही उन तमाम संवैधानिक व्यवस्था को ताख पर रख दिया है। इसलिए यह मानना अनुचित नहीं होगा कि भारतीय संसद के वर्तमान स्वरूप का जिम्मेदार यहां अपनी जड़ जमाता निरंकुश पूंजीवाद है। नव उदारवादी पूंजीवाद ने पूरे विश्व में प्रजातांत्रिक प्रतिनिधित्व को संकट में डाल  दिया है। ब्रिटेन और अमेरिका में हो रहे जन आंदोलन भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रतिनिधित्व और जनहित का तालमेल बिगड़ रहा है। ब्रिटेन में हुए हाल के दंगों ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि हाशिए पर रहने वाले लोग वहां की राजनीतिकव्यवस्था से असंतुष्ट हैं। दुनिया भर में प्रतिनिधित्व के संकट ने समाज में हिंसा को जन्म दिया है।


प्रजातंत्र की रक्षा करनी है तो जनप्रतिनिधित्व की संस्थाओं को मजबूत करना होगा। संसद को सही मायनों में जनहित में काम करना होगा और आर्थिक व्यवस्थाओं को संविधान के दायरे में रखना होगा। जनांदोलनों को कुचलने के बदले यदि जनता की आवाज को समझने का प्रयास किया जा सके तो भारतीय संसदीय प्रजातंत्र की बेहतरी संभव है।

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