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पाकिस्तान का असली संकट

मुद्दा
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पाकिस्तान का असली संकट संवैधानिक नहीं-संप्रभुता का- अस्तित्व का है।


यह शोर फिर सुनाई देने लगा है कि पाकिस्तान में फिर एक बार संवैधानिक संकट पैदा हो गया है। हमारी समझ में यह अति नाटकीय मुद्रा है। जब महीनों पहले चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी की पीठ ने गिलानी को अदालत की अवमानना का अपराधी ठहरा दिया था तभी  यह साफ हो चुका था कि उनके दिन पूरे हुए। । गिलानी तथा उनकी पार्टी इस बात को भली भांति जानते भी थे।


सच तो यह है कि मुठभेड़ न्यायपालिका और जनता द्वारा चुनी सरकार/संसद के बीच नहीं, जरदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और वर्तमान पीठ तथा मुख्य न्यायाधीश के बीच है। इस नतीजे तक पहुंचने में उतावली की जरूरत नहीं कि यह न्यायिक तख्तापलट है या कि जजों के कंधे पर रख फौज ने यह तोप दागी है।


तात्कालिक रूप से इस फैसले से फौज को फायदा पहुंचता नजर आता है पर दूसरे उदाहरण हैं जहां अदालत ने एक कोर कमांडर समेत फौज के आला अफसरों को कठघरे में खड़ा  किया है। पाकिस्तान की न्यायपालिका राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को अपदस्थ कराने के बाद अपनी ताकत को कुछ ज्यादा ही आंकती रही है। दूसरी तरफ यह भी मानना होगा कि संविधान की व्याख्या का एकाधिकार सर्वोच्च न्यायालय का ही है। अत: जरदारी या गिलानी या उनका कोई उत्तराधिकारी भी अपने बचाव में मौजूदा पाकिस्तानी संविधान की धाराओं का कवच की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता।


पाकिस्तान का असली संकट संवैधानिक नहीं-संप्रभुता का- अस्तित्व का है। उसकी संप्रभुता की धज्जियां अमेरिका हाल के महीनों में उड़ाता रहा है। ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद पाकिस्तानी फौज के लिए यह दावा करना असंभव हो चुका है कि देश की एकता, अखंडता या राष्ट्रहित की रक्षा करने में वह सक्षम हैं। पहले सेना भ्रष्ट ही समझी जाती थी आज वह पस्त हिम्मत और पंगु भी दिखलाई देती है-कम से कम पाकिस्तानियों को। इसका यह अर्थ कतई नहीं कि जरदारी सरकार लोकप्रिय है। जो उथल पुथल चालू है उसके लिये राष्ट्रपति ही जिम्मेदार हैं।


उन्हें निरापद रखने के प्रयास में ही गिलानी निकाले गये। यह सोच पाना मुश्किल है कि नए प्रधानमंत्री कैसे अदालत की अवमानना से बच सकते हैं यदि वह भी स्विस बैंको को खत लिखने से इंकार कर दें? यह सुझाना भोलापन ही कहा जायेगा कि चुनाव कुछ तय कर सकते हैं। पाकिस्तान के राजनैतिक दलों का ‘जनाधार’ क्षेत्रीय है तथा कोई भी नेता बेनजीर या उनके पिता की तरह करिश्माई नहीं। इमरान खान का आकर्षण सेलिब्रिटी वाला है वजनदार राजनीतिक नेता वाला नहीं। अखाड़े में उतरने के पहले ही उनकी छवि सेना समर्थित उम्मीदवार के रूप में धुंधला गई है। विभिन्न सूबों के हितों में सामंजस्य बिठाना आसान नहीं और ना ही कबाइली इलाकों को खूनखराबे से विमुख कर ‘जनतांत्रिक’ बनाना। पाकिस्तान की टूट के कगार तक पहुंचने का असली कारण सिर्फ कट्टरपंथी इस्लाम का अफगानिस्तान से बह कर आया लावा भी नही। विभाजन के 60-65 साल बाद भी पाकिस्तान समाज का दकियानूस उत्पीड़क सामंती स्वरूप ही है। हर बार की तरह आज भी ‘संवैधानिक’ संकट को असलीयत छिपाने के लिये ही इस्तेमाल किया जा रहा है।


लेखक प्रो. पुष्पेश पंत हैं

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भारत-पाक संबंधों पर असर

गिलानी के भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ अच्छे संबंध थे। उनकी सरकार ने भारत के साथ संबंधों को सुधारने की कोशिश की। पिछले साल दिसंबर में भारत को सबसे तरजीही देश (मोस्ट फेवर्ड नेशन) के दर्जे को इस कड़ी में देखा जा सकता है। 26/11 मुंबई आतंकी हमलों के बाद जरदारी और गिलानी ने भारत के साथ संबंधों को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ द्विपक्षीय आर्थिक संबधों को मजबूत करने पर जोर दिया। पिछले दिनों 11-12 जून को इस्लामाबाद में दोनों देशों के रक्षा सचिवों की बातचीत हुई। अंत में साझी वक्तव्य में वास्तविकता को स्वीकारते हुए कहा गया कि सियाचिन मुद्दे पर बातचीत चल रही है लेकिन तात्कालिक रूप से इसके हल की कोई उम्मीद नहीं है। हालांकि भारतीय रक्षा मंत्री एके एंटनी ने पहले ही आगाह कर दिया था कि इस बैठक से कोई बड़ी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए।


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