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आर्थिक नीतियों की दोहरी मार

मुद्दा
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पिछले तीन साल में उपजे आर्थिक हालात में सबसे ज्यादा मार जिस एक वर्ग पर पड़ी है वह है उपभोक्ता। कुछ तो वैश्विक माहौल ने ऐसी परिस्थितियां पैदा की और बाकी कसर सरकार की नीतियों ने पूरा की। नतीजतन जिस उपभोक्ता की तीन साल पहले सबसे ज्यादा पूछ थी वो अब सर्वाधिक परेशान और लाचार हो गया है। अर्थव्यवस्था का चक्र ऐसा घूमा कि उसकी आमदनी के संसाधन न केवल सीमित हो गए बल्कि अपने रोजगार को बचाए रखने की चुनौती सामने आ गई। जैसे-तैसे थमी महंगाई भी बहुत ज्यादा देर तक दबी नहीं रह सकी है। महंगे कर्ज ने भी उसकी परेशानी को बढ़ाया है।


इस दौरान अर्थव्यवस्था के सामने आई चुनौतियों से निपटने में सरकार भी कोई बड़ी राहत देश की आम जनता को नहीं दे पाई है। सरकार की खुद की नीतियों ने जनता की परेशानी बढ़ाई है। महंगाई का चक्र पिछले तीन साल में दो बार घूमा है। एक बार देश में मांग बढ़ाने के प्रयासों की वजह से इसमेंं वृद्धि हुई तो अब सरकार की लचर नीतियों और उन पर अमल में हुई देरी की दोहरी मार ने महंगाई का ग्राफ ऊपर ले जाना शुरू किया है। देश में अनाज, आलू जैसी फसलों की बंपर पैदावार के बावजूद लोगों को राहत नहीं है। बंपर फसल उपजाने के बावजूद किसानों को उसका उचित दाम नहीं मिला। इसी साल जनवरी-फरवरी में किसानों ने आलू की पैदावार को सड़कों पर फेंक कर जता दिया कि अगर उसकी फसल का उचित दाम न मिले तो वो कुछ भी कर सकता है।


ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। दो साल पहले भी देश के किसानों ने अनाज की रिकार्ड पैदावार की थी। लेकिन देश में भंडारण का इंतजाम नहीं होने के कारण लाखों टन अनाज सड़ गया। यही स्थिति इस बार भी है। गेहूं की बंपर पैदावार है लेकिन रखने की जगह नहीं है। फिर से सड़ने की नौबत है। सरकार चाहती तो दो साल पहले की घटना से सबक ले सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नतीजा न तो किसान को गेहूं का सही दाम मिलने की स्थिति है और न उपभोक्ता को। बाजार में गेहूं के दाम 14 रुपये किलो हैं तो आटा 20 से 22 रुपये किलो मिलता है। सरकार चाहती तो भंडारण का इंतजाम करने से लेकर मंडी कानून में बदलाव कर पूरे देश में गेहूं की सप्लाई चेन को व्यवस्थित कर सकती थी। मगर ऐसा नहीं हुआ।


महंगाई से परेशान उपभोक्ता को वित्त मंत्री ने बजट में भी नहीं बख्शा। उत्पाद शुल्क, सेवा कर और सीमा शुल्क में वृद्धि ने कपड़ा, जूता चप्पल से लेकर सोने चांदी और सफर, स्वास्थ्य सभी को समेट लिया। सेवा कर की दर को 10 प्रतिशत से 12 प्रतिशत करने का असर व्यापक तौर पर हुआ। उधर उत्पाद शुल्क को 2008 से पहले के स्तर पर लाने की वित्त मंत्री की जिद ने लोगों के पहनने, खाने और दवाई को भी नहीं छोड़ा। सोने के आयात को सीमित रखने की जुगत में आभूषणों को महंगा बना दिया।


महंगाई को काबू में रखने के लिए अप्रैल 2010 के बाद से ब्याज दरों में वृद्धि का सिलसिला जो शुरू हुआ वो महंगाई को तो नियंत्रित नहीं कर पाया। मगर कर्ज महंगा होने से उपभोक्ता वाहन और आवास जैसी जरूरी चीजों से दूर होता चला गया, तो उद्योग कर्ज के अभाव में विस्तार के लिए संसाधनों से वंचित हो गया। इसका असर न सिर्फ वाहन उद्योग पर पड़ा बल्कि 2008 के बाद से मुसीबत झेल रहा रीयल एस्टेट उद्योग भी अब तक बाहर नहीं निकल पाया है।


नीतियां जो पड़ी महंगी


नीतिअसर

खाद्यान्न प्रबंधन बंपर पैदावार का फायदा न किसानों को न उपभोक्ता को
रेपो रेट से महंगाई पर काबू महंगाई तो नहीं घटी, कर्ज महंगा, मांग घटने से औद्योगिक उत्पादन की रफ्तार हुई सुस्त

बजट में उत्पाद सीमा शुल्क, सेवा कर वृद्धि रोजमर्रा के इस्तेमाल के तकरीबन सभी उत्पाद महंगे, यात्रा स्वास्थ्य सेवाएं आम उपभोक्ता की पहुंच से बाहर



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