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परिपक्वता के दौर में है लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था

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Jagdish आज हमारी संसद 60 वर्ष की हो गई है। साठ साल किसी व्यक्ति की आयु का दो-तिहाई या तीन-चौथाई हिस्सा होता है लेकिन संसद जैसी संस्था के जीवनकाल के लिए यह लंबा समय नहीं है। इसलिए यह कहना अधिक युक्तिसंगत होगा कि हमारी संसद 60 वर्ष की युवा हो गई है। युवा होने के नाते अभी भी यह परिपक्व होने के दौर में है।


‘जो अभी परिपक्व होने के दौर में है वह अपरिपक्व है।’ इसके कई कारण हैं। इस संबंध में सबसे ताजा टिप्पणी खुद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने की है। उनसे 29 अप्रैल को एक इंटरव्यू में पूछा गया कि जो संसद में चल रहा है उसको देख कर आप क्या सोचती हैं? जवाब था कि ‘जो चल रहा है उसे देखकर कभी-कभी चिंता होती है…’। जब राष्ट्र के मुखिया को चिंता होती है तो एक आम आदमी से क्या अपेक्षा की जा सकती है?


राष्ट्रपति समेत किसी को भी इस स्थिति के लिए चिंता क्यों होनी चाहिए? इसका संकेत दरअसल राष्ट्रपति केआर नारायणन ने 17 जनवरी, 2001 को मुख्य निर्वाचन आयोग की स्वर्ण जयंती के अवसर पर अपने भाषण में दिया था। उन्होंने कहा था, ‘हमारी निर्वाचन प्रणाली में कुछ गंभीर त्रुटियां आ गई हैं। सजायाफ्ता अपराधी चुनाव लड़ रहे हैं और निर्वाचित हो रहे हैं।’ उन्होंने महात्मा गांधी के 1920 के दशक में लिखे गए एक लेख का हवाला दिया था जिसमें गांधी जी ने कहा था, ‘गलत लोग इसलिए चुने जाते हैं क्योंकि हम आगे नहीं आते? ऐसे गलत लोग जब चुनकर सदन में पहुंचते हैं तो सरकार सही ढंग से काम करने में समर्थ नहीं रह जाती और हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न होती है।’ नारायणन के मुताबिक, ‘अब हास्यास्पद स्थिति से भी बदतर हालात हैं… अगर राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों को टिकट देना बंद कर दें तो दलों के भीतर अपराधियों की समस्या से प्रभावशाली तरीके से निपटा जा सकता है। क्या राजनीतिक दल ऐसा करने में समर्थ नहीं है?’


यह संसद का दुर्भाग्य ही है कि लोकसभा के अनेक सदस्यों ने हलफनामे में स्वीकार किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। ऐसे सदस्यों की संख्या 2004 में 128 थी जो 2009 में बढ़कर 162 हो गई। 13 मई, 1952 को जब लोकसभा की पहली बैठक हुई थी तो उस समय इस तरह के दृश्य की कल्पना भी नहीं की गई होगी।


संविधान की तरह संसद भी अपने आप काम नहीं करती। संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में ठीक ही कहा था, ‘मैं महसूस करता हूं कि भले ही संविधान अच्छा हो लेकिन यह खराब भी साबित हो सकता है क्योंकि जिनको काम करना है, वे बुरे भी हो सकते हैं… संविधान के काम करने का तरीका पूर्ण रूप से उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं करता। संविधान केवल राज्य को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका रूपी अंग दे सकता है। वे कारक जिन पर राज्य के अंगों की कार्यप्रणाली निर्भर करती है वे हैं- लोग एवं राजनीतिक दल। ये दल जनता की भावनाओं और उनकी राजनीति का जरिया होते हैं।’ ठीक इसी प्रकार संसद लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था होती है लेकिन उसकी अच्छी या खराब कार्यप्रणाली वस्तुत: उसके अच्छे या खराब सदस्यों पर निर्भर करती है, जो वास्तव में ‘संसद’ के लिए कार्य करते हैं।


इस आलेख के लेखक प्रो जगदीप छोकर हैं

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चाल, चेहरा, चरित्र में बदलाव

-देविका मलिक और रोहित कुमार (विश्लेषक, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च)

हाल के दिनों में संसद के कामकाज के तौर-तरीकों और सांसदों की कार्य प्रणाली को लेकर जन निगरानी का बढ़ता दायरा लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत माना जा सकता है। आइए, संसद के साठ साल पूरे होने पर सांसदों की प्रोफाइल और दोनों सदनों की कार्यशैली में आए बदलाव पर एक नजर डालते हैं।


table- 1बढ़ गए पोस्ट ग्रेजुवेट

सेकंडरी स्तर तक शिक्षा प्राप्त सांसदों की संख्या 1952 में 23 प्रतिशत से घटकर 2009 में 3 फीसद रह गई। वहीं संसद पहुंचने वाले ग्र्रेजुएट राजनेताओं की संख्या पहली लोकसभा में 58 से बढ़कर 2009 में 79 फीसद पहुंच गई। इस आंकड़े में पोस्ट ग्र्रेजुएट और डॉक्टरेट डिग्र्री वाले सांसद भी शामिल हैं। इसी समयावधि में पोस्ट ग्र्रेजुएट सांसदों की संख्या 18 से बढ़कर 29 फीसद हो गई।


tableप्रौढ़ होती गई संसद

पहली से 15वीं लोकसभा के दौरान सांसदों की आयु में आया बदलाव ध्यान खींचने वाला है। महत्वपूर्ण रूप से अधिक आयु वाले सांसदों की मौजूदगी में इजाफा हुआ है। 1952 में 56 साल या अधिक आयु के महज 20 फीसद सांसद थे, 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 43 फीसद हो गई। पहली लोकसभा में साल साल से ऊपर का कोई सांसद नहीं था। मौजूदा लोकसभा में इस आयुवर्ग वाले सांसदों की संख्या सात फीसद हो गई है। 40 की आयु से नीचे वाले सांसदों की संख्या 26 से घटकर 14 प्रतिशत रह गई है।


tableबढ़ी है महिलाओं की भागीदारी

15वीं लोकसभा में 11 फीसद महिलाएं हैं। पहली लोकसभा में इनकी मौजूदगी केवल पांच फीसद ही थी। बड़े राज्यों में से मध्य प्रदेश से महिला सांसदों की सर्वाधिक (21 प्रतिशत) भागीदारी है। उत्तर प्रदेश और गुजरात से संसद पहुंचने वाली महिलाओं की हिस्सेदारी 15 फीसद है। लोकसभा दर लोकसभा महिला सांसदों की संख्या में इजाफा भले ही हुआ है, लेकिन आज भी हम स्वीडन (45 प्रतिशत), अर्जेंटीना (37 प्रतिशत), ब्रिटेन (22 प्रतिशत) और अमेरिका (17 प्रतिशत) की संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी से बहुत पीछे हैं।


tableघटती बैठकें

50 के दशक में लोकसभा हर साल औसतन 127 दिन और राज्यसभा 93 दिन बैठक करती थी। 2011 में दोनों सदनों के बैठकों का यह आंकड़ा घटकर 73 रह गया।


पारित होने वाले बिलों की संख्या में गिरावट

पहली लोकसभा में औसतन हर साल 72 बिल पारित किए गए। वर्तमान लोकसभा आते-आते यह आंकड़ा घटकर 40 रह गया। 1976 में संसद ने 118 बिलों को पारित किया। अब तक किसी एक साल में पारित होने वाले बिलों की यह सर्वाधिक संख्या है। सबसे कम बिल (18) 2004 में पारित किए गए।


निजी सदस्यों के बिलों की स्थिति

हर वह सांसद जो मंत्री नहीं है, निजी सदस्य कहलाता है। इनके द्वारा पेश बिलों को निजी सदस्यों का बिल कहते हैं। आमतौर पर शुक्रवार के दिन लोकसभा के आखिरी ढ़ाई घंटे निजी सदस्यों के कामकाज के लिए आबंटित होते हैं। आज तक संसद में केवल 14 निजी सदस्यों के बिल ही पारित हो सके हैं। इनमें से छह तो अकेले 1956 में पारित हुए थे। 1970 के बाद ऐसे सदस्यों का कोई बिल नहीं पारित हो सका है।


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