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दर्द: रोजमर्रा की जिंदगी में घरकर चुके भ्रष्टाचार से शायद ही किसी का साबका न पड़ा हो। इस रोग की बानगी देखनी हो तो किसी सरकारी दफ्तर चले जाइए। अपना काम करवाने आने वाले लोगों के पास शिकायतों का अंबार है। मगर अफसोस! गुहार वहां किससे लगाएं। अगर कोई इसकी सुनवाई के लिए बैठा भी है तो वह शिकायतकर्ता को नियम-कानून की बारीकियां समझाकर चलताकर देता है। ऐसा इसलिए कि अभी उसकी जवाबदेही तय नहीं है।
दवा: अब ऐसा नहीं होगा। भला हो अन्ना हजारे साहब का। जिन्होंने भ्रष्टाचार के नाश का बिगुल फूंका। लिहाजा इस असाध्य मर्ज के खिलाफ इतनी जन जागरूकता देश के लिखित इतिहास में पहली बार दिखी। अन्ना के दबाव में ही सही सरकार को इस लाइलाज रोग की दवा खोजने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। इसी कदम के तहत सरकार ने आरटीआइ की तर्ज पर जन शिकायत निवारण अधिकार बिल लाने का फैसला किया है।
दावा: इस कानून को आरटीआइ से भी ज्यादा सक्षम बताया जा रहा है। देखना यह होगा कि इसे कानून बनाने में कितनी तत्परता बरती जाती है? क्या इसका स्वरूप जन अपेक्षाओं पर खरा उतरने लायक बन सकेगा? इस पर अमल के लिए उपयुक्त तंत्र का विकास हो पाता है या नहीं? इन आशंकाओं के बीच बड़ा मुद्दा यह भी है कि क्या भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए एक के बाद एक सख्त कानूनों को बनाने के अलावा हमें अपने अंदर भी नहीं झांकना चाहिए?
सरकार ने जन शिकायत निवारण कानून को शीतकालीन सत्र में पारित करने की मंशा जताई है। यह एक ऐतिहासिक कदम हो सकता है, लेकिन वेबसाइट पर डाले गए मसौदे को देखें तो इसमें कुछ मूलभूत कमियों की वजह से ऐसा लग रहा है कि यह एक अधूरा, कम व्यावहारिक और कमजोर कानून ही बन के रह जाएगा।
मसौदे के अनुसार मजबूत जन शिकायत निवारण कानून एवं मजबूत लोकपाल कानून एक-दूसरे के पूरक बनेंगे। यह कानून गांव और शहरों में अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए भटकते हुए लोगों को एक सुनवाई का मौका प्रदान करेगा। यदि किसी मामले में भ्रष्टाचार पाया जाता है तो उसे लोकपाल के पास जांच एवं कानूनी कार्यवाही हेतु भेजा जा सकता है। यह लोकपाल को लाखों करोड़ों शिकायतों के भार से बचाएगा, एवं जनता को अपना हक प्राप्त करने का रास्ता मिलेगा।
प्रस्तावित कानून की सबसे महत्वपूर्ण खूबी यह है कि वह पूरे देश में लागू होगा तथा हर सरकारी विभाग से जनता को अपने हकों को प्राप्त करने का कानूनी दर्जा मिलेगा। यह समझना आवश्यक है कि शिकायत निवारण अब कोई आज्ञा या सद्इच्छा नहीं बल्कि कानूनी हक होगा, यह लोकपाल विमर्श के दौरान मांगे जा रहे नागरिक अधिकार पत्र से आगे का कदम है, क्योंकि सिटिजन चार्टर अब तक यह स्थापित करता है कि विभाग जितना चाहे, जैसे चाहे नागरिकों की सुने मगर इस कानून में प्रावधान है कि हर दफ्तर और विभाग की यह जिम्मेदारी होगी कि वह हर जायज शिकायत का समाधान 15 दिन के अन्दर करे।
यह कानून विभिन्न राज्यों द्वारा लाए गए लोक सेवा गारंटी बिल को भी मजबूत करेगा क्योंकि वो सेवा की गांरटी स्थापित करता है और सरकारी कामकाज की जवाबदेही जनता के प्रति सुनिश्चित करता है। अगर इसे सुनिश्चित करने में कोई भी विभाग विफल रहता है तो उस पर जुर्माना लगाया जायेगा, जैसे सूचना के अधिकार कानून में लगता है। यह भी सरकार का सकारात्मक पहलू है कि शिकायत निवारण हेतु जो पांच आयुक्त नियुक्त किए जाएंगे, उसमें संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक आरक्षण व्यवस्था को मान्य किया गया है, मगर चिंता की बात यह है कि लोक शिकायत निवारण हेतु केंद्र और राज्य स्तर तक ही स्वतंत्र व्यवस्था प्रस्तावित है। सूचना के जन अधिकार के राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) द्वारा प्रस्तावित ब्लॉक स्तरीय जनता सहायता केंद्र तथा जिला स्तरीय लोक शिकायत निवारण प्राधिकरण की स्वतंत्र व्यवस्था सरकार के मसौदे से बाहर कर दी गई है। अगर ऐसा ही कायम रहता है तो इस कानून की मूल भावना ही खत्म हो जायेगी। जितना संभव हो सके शिकायतों का निचले स्तर पर ही निपटारा किया जाना जरूरी है।
एक आम जन के बूते की यह बात नहीं होती है कि वह अपनी शिकायत लेकर राज्य या देश की राजधानी के चक्कर काटता फिरे। वैसे भी यह कानून दफ्तरों में चक्कर से मुक्ति के लिए बनाया जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि हर ब्लॉक में एक जनता सहायता केंद्र बनाया जाए जिसमें एक कोई गैर सरकारी व्यक्ति जनता को सरकारी विभागों द्वारा उसके हक प्राप्ति में रोड़ा अटकाने की शिकायत को लिखने, एवं उस पर हो रही कार्रवाई पर निगरानी करने में मदद करे। साथ ही जिला स्तर पर एक स्वतंत्र शिकायत निवारण प्राधिकरण हो, जहां पर लोग अपनी अपील कर सकें ताकि जिला स्तर पर उसकी शिकायतों का निवारण हो जाए। इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि अगर निर्धारित समय सीमा में कोई विभाग लोक शिकायतों का निपटारा नहीं कर पाए तो जुर्माने के साथ साथ शिकायतकर्ता को क्षतिपूर्ति मिले।
प्रस्तावित कानून का मसौदा जनता के व्यापक विचार विमर्श हेतु सार्वजनिक हो चुका है, हमें इस अवसर का सदुपयोग करते हुए सरकार को स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि ब्लॉक स्तर पर स्वतंत्र जनता सहायता केंद्र बने तथा जिला स्तर पर स्वंतत्र आयुक्त बने और पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति का प्रावधान जोडें। तभी आम जनता की सुनवाई होगी, कार्रवाई होगी और हमारे सरकारी ढांचे की जवाबदेही सुनिश्चित होगी।- [अरुणा रॉय/भंवर मेघवंशी: लेखक द्वय मजदूर किसान शक्ति संगठन के कार्यकर्ता हैं]
जनमत
क्या सरकारी दफ्तरों में बिना रिश्वत दिए आपका काम हो जाता है?
हां: 9%
नहीं: 91%
क्या सरकारी दफ्तरों में आपका काम समय से हो जाता है?
हां: 4%
नहीं: 96%
आपकी आवाज
बिना पैसा दिए वक्त पर काम कभी नहीं होता और अगर पैसा न दें तो वक्त के बाद भी नहीं होता। -खान सोहेल40 @ याहू.को.इन
नो ब्राइब नो वर्क, गिव ब्राइव डन वर्क। -डी.गौर04 @ जीमेल.कॉम
आजकल सरकारी दफ्तरों में काम करवाने के लिए बाबुओं की जेब गर्म किए बिना काम नहीं चलता। -सिंह क्षितिज27 @ याहू.कॉम
अगर रिश्वत का चढ़ावा मिल जाता है तो सरकारी दफ्तरों में कई महीने में होने वाला काम कुछ ही दिनों में हो जाता है। -राजू09023693142 @ जीमेल.कॉम
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साभार : दैनिक जागरण 06 नवंबर 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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