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योजना आयोग ने गरीबी की जो परिभाषा गढ़ी है, महंगाई के इस दौर में उसकी चौतरफा आलोचना हो रही है। परिभाषा तैयार करने का दायित्व सरकार ने सौंपा तो कई समितियों को, लेकिन उनमें उसी समिति की सिफारिशें मानी गई, जिसने गरीबों की संख्या सबसे कम बताई। यानी जितनी सरकार की मर्जी होती है, उतने ही गरीब होते हैं।
वर्ष 2005 में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी निर्धारित की गई थी, जिस पर लगातार विवाद रहा, लेकिन सरकार अपने फैसले से टस से मस नहीं हुई। अब योजना आयोग ने सुरेश तेंदुलकर समिति की उसी रिपोर्ट को अपना लिया है, जिसमें गरीबी की अनूठी परिभाषा दी गई है। यानी 32 रुपये वाले शहरी और 26 रुपये रोजाना खर्च करने वाले ग्रामीण को गरीब नहीं माना जा सकता है। इससे तो गरीबों की संख्या कम होनी ही थी।
योजना आयोग ने एनसी सक्सेना कमेटी की 50 फीसदी ग्रामीण आबादी के गरीब होने की रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया। केंद्र के 1975 में बनाए मानक में 2400 कैलोरी से कम खाने वाले ग्रामीण को गरीब माना गया है।
गरीबी की परिभाषा, गरीबों की गणना और गरीबी उन्मूलन के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं की निगरानी के लिए चुनाव आयोग की तर्ज पर अलग आयोग के गठन का सुझाव भी आया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस सुझाव पर भी विचार होना चाहिए। दरअसल गरीबों की संख्या को लेकर केंद्र व राज्यों के बीच गहरा विवाद रहा है। योजना आयोग और राज्यों के आंकड़ों में गरीबों की संख्या कभी मेल नहीं खाती है। राशन प्रणाली में रियायती मूल्य के अनाज के लिए मारामारी होती रही है। यही वजह है कि असल गरीबों को केंद्रीय योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिल पाता है।
वित्त मंत्रालय गरीबों का अलग दुश्मन बना बैठा है। उसे हमेशा अपने खजाने की पड़ी रहती है और वह सारी कटौती गरीबों के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं में करने की जुगत में रहता है। इन दिनों गरीबों की गणना चल रही है। गणना करने वालों को निश्चित मानक दिए गए हैं, लेकिन उसके दायरे में आने वाले सभी गरीब नहीं माने जाएंगे। ऐसा इसलिए कि उनकी संख्या पहले से ही तय है। राशन प्रणाली इसी विवाद में ध्वस्त हो चुकी है।- [सुरेंद्र प्रसाद सिंह]
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