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गरीबी: सभ्य समाज के इस सबसे बड़े अभिशाप को राष्ट्रपिता गांधी जी ने हिंसा का सबसे खराब रूप कहा। करेला उस पर नीम चढ़ा कि स्थिति यह कि गरीबों को ‘गरीब’ न मानना। हमारे हुक्मरानों ने गरीबों की नई परिभाषा गढ़ी है। अगर आप शहर में रहकर 32 रुपये और गांव में रहकर 26 रुपये प्रतिदिन से अधिक खर्च कर रहे हैं तो आप गरीब नहीं है। खुद को गरीब मानते रहिए। कोई सुनने वाला नहीं है। गरीबों के कल्याण के लिए चलाई जाने वाली सरकारी योजनाओं के लाभ के दायरे से बाहर हो चुके हैं आप।
गुजारा: इस मसले पर चौतरफा दबाव झेल रही अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की सरकार भले ही गरीबी निर्धारण की सीमारेखा में अब सुधार की बात कह रही हो, लेकिन गरीबों के प्रति उसकी संवेदनहीनता उजागर हो चुकी है। ‘सरकार का हाथ गरीबों के साथ’ की कलई खुल चुकी है। कुछ विश्लेषक सरकार के इस कदम को गरीबों की संख्या कम दिखाकर उनके कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर खर्च में कटौती करना बता रहे हैं। सरकार की मंशा कुछ भी हो, लेकिन आसमान छूती महंगाई के इस दौर में 965 रुपये और 781 रुपये मासिक खर्च में अपना गुजर-बसर शायद ही कोई गरीब कर पाए। सरकार द्वारा ‘गरीब’ को गरीब न मानना बड़ा मुद्दा है।
योजना आयोग द्वारा दी गई गरीबी की नई परिभाषा न केवल गैरजिम्मेदाराना सोच का उदाहरण है बल्कि योजना भवन में जनकल्याण के लिए बैठे लोगों की अफसरशाही और टेक्नोक्रेटिक दिमाग का भी यह परिचायक है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली यह संस्था गरीबी और भुखमरी से पीड़ित लोगों की बढ़ती संख्या के बावजूद आंकड़ों में उनकी संख्या कम दिखाने पर आमादा है। दरअसल योजना आयोग जनता से कटा हुआ एक ऐसा कार्यालय बन चुका है जहां रिटायर नौकरशाह और विशेषज्ञों का जमावड़ा है।
महलनवीस की समाजवादी वैश्विक दृष्टि के बजाय योजना आयोग वैश्विक मध्यवर्ग संस्कृति को प्रतिबिंबित कर रहा है। योजना और विकास की इस कारपोरेट विश्व दृष्टि में गरीब वास्तव में जीवन की बुनियादी चीजों से ‘असहाय’ और ‘वंचित’ हो गया है। योजना आयोग ने अपने हलफनामे में शर्मनाक तरीके से यह तर्क भी पेश किया कि यदि सही तरीके से गरीबों की पहचान कर विशेष कल्याणकारी योजनाएं उन तक पहुंचाई जा सके तो वह गुजारा कर सकते हैं। योजना आयोग के रणनीतिकार यह समझने में नाकामयाब रहे हैं कि गरीबी का आशय कम आय नहीं हैं, बल्कि ‘कई चीजों को न कर पाने की बाध्यता’ है।
सतही तौर पर भी यदि देखा जाए तो करोड़ों गरीब लोगों की पहचान करना कोई मुश्किल काम नहीं है। इन गरीबों के बारे में महात्मा गांधी का कहना था कि ‘उनकी आंखों में कोई रोशनी नहीं हैं। इनका एकमात्र देवता रोटी है।’ इसके उलट योजना आयोग के अधिकारी और विशेषज्ञ गरीबों की पहचान के लिए नई किस्म की परिभाषा गढ़ रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि योजना आयोग ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती भुखमरी, घटती कृषि आय, कृषि क्षेत्र में घटता निवेश और गांवों से शहरों की ओर पलायन से शायद चिंतित न होता हो। इससे भी बदतर यह कि जो आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक इसके विरोध में आवाज उठाते हैं, उनको ‘विद्रोही’ और ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गरीब भौतिक वंचना का शिकार होने के साथ-साथ शासन के ‘सैद्धांतिक पूर्वाग्रह’ का भी शिकार हैं। तभी तो गरीबों की संख्या का आकलन करने के लिए बनाई गई कमेटियों के अलग-अलग नतीजे हैं। मसलन योजना आयोग के अनुसार 27 प्रतिशत, एनसी सक्सेना कमेटी के अनुसार 50 प्रतिशत, तेंदुलकर कमेटी के अनुसार 37 प्रतिशत और अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी के अनुसार 77 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं।
1990 के दशक से शुरू उदार अर्थनीति के सकारात्मक नतीजे और नेशनल सैंपल सर्वे की नई पद्धति को आधार बनाकर योजना आयोग देश में गरीबी घटने की बात कहता है। इसलिए गरीबों की स्थिति सुधरने के संबंध में इसका सुप्रीम कोर्ट में पेश हलफनामा जानबूझकर किया गया प्रयास लगता है।
योजना आयोग की जनता के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं हैं और न ही संसद में इसकी कार्यप्रणाली की समीक्षा की जाती है। 1952 में इसकी स्थापना के बाद से ही यह ऐसा संविधानेत्तर निकाय बना हुआ है, जिसके विशेषज्ञों ने लोकतांत्रिक राजनीति के बुनियादी सिद्धांतों से जानबूझकर खुद को अलग कर रखा है। यह दरअसल औपनिवेशिक युग के बाद विकास योजनाओं के नेहरू-महलनवीस मॉडल की असफलता का परिणाम है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बढ़ती विश्वसनीयता और वैधता ने योजना आयोग के अस्तित्व पर सवाल खड़े किए हैं। आरटीआइ, मनरेगा की सफलता और एनएसी द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि योजना आयोग ने न सिर्फ ‘भारत के विचार’ को धोखा दिया है बल्कि यह तेजी से अप्रासंगिक भी होता जा रहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो योजना आयोग के अंत का वास्तविक समय आ गया है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि गरीब इसकी विदाई की शिकायत नहीं करेगा। -अश्विनी कुमार [एसोसिएट प्रोफेसर, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस]
महंगाई की मार
खाद्य वस्तु | औसत मूल्य (जून 2010) | औसत मूल्य (सितंबर 2011) | वृद्धि % |
चना दाल/ | 34 | 37 | 9 |
दूध/लीटर | 23 | 29 | 26 |
सरसों तेल | 66 | 81 | 23 |
चाय/किग्रा | 149 | 152 | 2 |
प्याज/किग्रा | 11 | 22 | 100 |
योजना आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे के अनुसार शहरी क्षेत्र में प्रतिदिन 32 रुपये से अधिक और ग्रामीण इलाके में रोजाना 26 रुपये से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। वह न केवल स्वस्थ है बल्कि खुशहाल भी है। आइए, जानते हैं कि रोजाना की इस तय खर्च राशि में से क्या-क्या खरीदा जा सकता है:
32 रुपये रोजाना खर्च
49.10 रुपये- मकान किराया* [व्यावहारिक नहीं]
29.60 रुपये- शिक्षा* [2 कापी और 2 पेन]
112 रुपये- कुकिंग गैस व अन्य ईधन* [1.6 किग्रा एलपीजी]
5.50 रुपये- अनाज [200 ग्राम चावल या 300 ग्राम आटा]
1.02 रुपये- दाल [10 ग्राम]
2.33 रुपये- दूध [80 ग्राम]
1.55 रुपये- खाद्य तेल [20 ग्राम]
0.44 रुपये- फल [सबे 5.5 ग्राम]
1.95 रुपये- सब्जियां [90 ग्राम]
0.70 रुपये- चीनी [20 ग्राम]
8.88 रुपये- अन्य [कपड़े, बेल्ट, महिला सौंदर्य समान, पर्स आदि]
* मासिक
सरकार ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति द्वारा अपने जीवनयापन पर 26 रुपये से अधिक खर्च करने वाले को गरीब मानती है। कानपुर के रामा डेंटल कॉलेज के प्रधानाचार्य डा एनपी श्रोत्रिय के अनुसार अगर उक्त पैसे को केवल एक दिन के भोजन के मद में खर्च किया जाए, तो भी आदमी संतुलित खुराक नहीं ग्रहण कर सकता-
एक दिन की संतुलित खुराक कुल लागत 27.47 रुपये
2.80 रुपये- तेल व वसा [40 ग्राम]
1.40 रुपये- चीनी [50 ग्राम]
3.99 रुपये- गेहूं [285 ग्राम]
7.13 रुपये- चावल [285 ग्राम]
1.25 रुपये- दाल [50 ग्राम]
1.00 रुपये- पत्तेदार सब्जियां [50 ग्राम]
2.00 रुपये- अन्य सब्जियां [100 ग्राम]
0.90 रुपये- कंद एवं मूल [60 ग्राम]
7.00 रुपये- दूध [200 ग्राम]
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