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न्यायिक मानदंड पर बहस गरम है। इंसाफ करने वालों के लिए कानून बनाने की कवायद हो रही है। कार्यपालिका और विधायिका के चंगुल से मुक्त न्यायपालिका की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव के जरिए 18 साल बाद वापस कार्यपालिका के दायरे में लाने की कोशिश की जा रही है। दलील है कि न्यायपालिका में पनप रहे भ्रष्टाचार को खत्म करने और उसकी गिरती साख बचाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। हालांकि इसके लिए काफी हद तक न्यायपालिका भी जिम्मेदार है जो संवैधानिक प्रावधानों की कानूनी व्याख्या के जरिए अपने हाथ में ली गई न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलीजियम व्यवस्था को पारदर्शी और विवाद रहित नहीं रख पाई। न्यायाधीशों के खिलाफ जांच की इन हाउस प्रक्रिया पर भी सवाल उठे और इन्हें बल मिला सौमित्र सेन व दिनकरन प्रकरण से। इसी बीच उजागर हुआ गाजियाबाद का नजारत घोटाला और पहली बार छह पूर्व जजों के खिलाफ अदालत में आरोपपत्र दाखिल हुआ इनमें तीन जज हाई कोर्ट के हैं। आग में घी का काम किया केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले ने, जिसने सब कुछ ढांके मूंदे बैठी न्यायपालिका को बताया कि मुख्य न्यायाधीश का दफ्तर सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है। फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट अपने ही यहां अपील में है। लेकिन तब तक कानून की व्याख्या करने वालों को कानून में कसने की बहस जोर पकड़ चुकी थी और इसी का परिणाम है न्यायिक मानदंड और जवाबदेही विधेयक।
सारे विश्लेषण के बाद मुख्यत: तीन प्रश्न उभरते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी बनाना, उनकी जवाबदेही तय करना और इसके निराकरण का तंत्र विकसित करना। अगर देखा जाए तो न्यायपालिका को न्यायिक मानदंड व जवाबदेही के कानूनी दायरे में लाने का प्रस्तावित कानून इस पर पूरी तरह खरा नहीं उतरता। वास्तव में यह प्रस्तावित कानून न्यायपालिका द्वारा स्वत: तय और स्वीकार किए गए न्यायिक मानदंडों को कानूनी जामा पहनाना और न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों के निपटारे का एक तंत्र विकसित करना भर है। इसीलिए जब स्थायी समिति ने विधेयक पर विचार किया तो यह फेल हो गया। समिति ने जजों की नियुक्ति का मुद्दा शामिल न होने से विधेयक को आधा-अधूरा करार दिया है।
कार्मिक, जन शिकायत, विधि एवं न्याय मामलों की स्थायी समिति ने विधेयक के प्रावधानों का विश्लेषण कर सरकार से कुछ और सिफारिशें भी की हैं जिनमें न्यायाधीशों की मौखिक टिप्पणियों पर रोक लगाने के सुझाव शामिल हैं। इसके अलावा न्यायाधीशों के खिलाफ आई शिकायतों की जांच के तंत्र में भी कुछ बदलाव के सुझाव दिए हैं। अगर प्रस्तावित कानून के प्रावधानों पर किए गए स्थायी समिति के विश्लेषण पर गौर किया जाए तो साफ होता है कि आजादी के 64 वषरें बाद लाए जा रहे कानून में गहराई से काम नहीं हुआ और इसमें अभी बहुत कुछ जोड़ना घटाना बाकी है।
विधेयक और व्यवस्था
जजों की नियुक्ति
विधेयक- बदलाव के प्रावधान नहीं हैं। स्थायी समिति ने इन्हें विधेयक में शामिल करने व नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने का सुझाव दिया है।
लागू व्यवस्था- नियुक्ति में कॉलीजियम व्यवस्था लागू है।
आचरण पर अंकुश के नैतिक मूल्य
विधेयक– 7 मई 1997 को सुप्रीमकोर्ट द्वारा फुल मीटिंग में प्रस्ताव पारित कर स्वत: स्वीकार किए गए न्यायाधीशों के आचरण के नैतिक मूल्यों को वैसे का वैसा ही कानून में शामिल कर लिया गया है। इसमें न्यायाधीशों की संपत्ति घोषणा भी शामिल है। इस विधेयक के कानून बनने के बाद आचरण संबंधी नैतिक मूल्य कानूनी बाध्यता होंगे।
लागू व्यवस्था- फिलहाल सुप्रीमकोर्ट द्वारा स्वीकार किए गए नैतिक मूल्यों के पीछे कानूनी बाध्यता नहीं है। न्यायाधीश अपनी इच्छा से संपत्ति घोषित करते हैं। हालांकि न्यायपालिका परंपरा का पालन करती है और नैतिक मूल्यों का अनुपालन होता है।
शिकायत का तंत्र
विधेयक- आम आदमी को न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत का अधिकार दिया गया है। न्यायाधीश के खिलाफ शिकायतों की जांच और निपटारे का पूरा तंत्र विकसित करने का प्रावधान है। इतना ही नहीं प्रथमद्रष्टया दोषी पाए जाने पर आरोपी न्यायाधीश से कामकाज भी वापस लिया जा सकता है। गंभीर आरोप साबित होने पर न्यायाधीश को पद से हटाया जाएगा और अगर आरोप कम गंभीर होते हैं लेकिन साबित हो जाते हैं तो भविष्य में अच्छे आचरण की चेतावनी देकर छोड़ा जा सकता है।
लागू व्यवस्था- फिलहाल भ्रष्टाचार के आरोपी न्यायाधीश को सिर्फ संसद में महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है। यह प्रक्रिया काफी जटिल है और इसी कारण आज तक किसी भी न्यायाधीश को महाभियोग से नहीं हटाया जा सका।
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साभार : दैनिक जागरण 04 सितंबर 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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