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देश की इकसठ वर्षीय संसदीय प्रणाली ने अब तक करीब सवा सात सौ छोटे बड़े केंद्रीय कानून बनाये हैं जिनमें ज्यादातर कानून मिनी पार्लियामेंट यानी संसद की स्थायी समिति का मुंह देखे बगैर अपना काम कर रहे हैं। लोकपाल बनाम जन लोकपाल कानून की बहस में संसद की स्थायी समिति के महत्व को बढ़ चढ़ कर अहमियत दे रही सरकार और विपक्ष दोनों को बखूबी मालूम है कि इस स्थायी समिति की उम्र मात्र 22 वर्ष है और इसके तय कामकाज में सबसे पहला नंबर प्रस्तावित कानून की पड़ताल करना नहीं है, बल्कि बजट की अनुदान मांगों पर विचार करना है। इसके जन्म के बाद बने लगभग दो सौ कानूनों में ज्यादातर ने स्थायी समिति का मुंह नहीं देखा है, जिनमें एसईजेड, एनआइए और गैरकानूनी गतिविधि जैसे महत्वपूर्ण कानून भी शामिल हैं। हालांकि इससे संसद की स्थायी समिति का महत्व कम नहीं होता। सरकार और सरकारी संस्थानों की नाक में दम करने वाले सूचना के अधिकार कानून को कैसे भूला जा सकता जिसे संसद की स्थायी समिति में ही धार मिली।
स्थायी समिति का आगाज तो 1989 में ही हो गया था जब सबसे पहले तीन स्थायी समितियां बनी। एग्रीकल्चर, साइंस एण्ड टेक्नालॉजी और पर्यावरण, लेकिन वास्तविक शुरुआत 1993 में हुई जब 17 विभागीय स्थायी समितियां अस्तित्व में आईं। इस समय इनकी संख्या 24 है। विभागीय स्थायी समितियां संबंधित मंत्रालयों के तहत आती हैं। समिति का पहला काम संबंधित मंत्रालय की बजट अनुदान मांगों पर विचार करना है। इसके बाद लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा सभापति द्वारा भेजे गये विधेयकों पर विचार करना है। तीसरी जिम्मेदारी मंत्रालयों की वार्षिक रिपोर्ट पर विचार करना और अंतिम जिम्मेदारी लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा सभापति द्वारा सदन में पेश हुए नीति निर्धारक दस्तावेजों पर विचार कर रिपोर्ट देना है। कई बार विवादित या विस्तृत असर डालने वाले विधेयक विचार के लिए इस समिति को भेजे जाते हैं। स्थायी समिति आमजनता और संसद के बीच की कड़ी भी बनती है। जब विधेयक यहां विचार के लिए आता है उस पर आम जनता का कोई भी व्यक्ति अपने सुझाव व राय भेज सकता है।
लोकसभा के पूर्व महासचिव और संसदीय प्रणाली का लंबा अनुभव रखने वाले सुभाष कश्यप कहते हैं कि स्थायी समिति में किसी भी विधेयक पर ज्यादा खुलकर चर्चा होती है। संसद और स्थायी समिति की चर्चा में अंतर है। संसद में मीडिया होता है इसलिए चर्चा के समय सांसदों के विचार पार्टी की विचारधारा से प्रेरित हो सकते हैं जबकि स्थायी समिति में मीडिया नहीं होता इसलिए सदस्य ज्यादा स्वतंत्र होकर अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। वहां मेरिट पर चर्चा होती है और विधेयक के प्रावधानों पर समझौता और आमराय बनाना भी आसान होता है।
लेकिन सवाल उठता है कि जब स्थायी समिति इतनी महत्वपूर्ण है तो फिर सभी विधेयक विचार के लिए इसके पास क्यों नहीं भेजे जाते। कारण साफ है कि या तो वे विधेयक इतने महत्वपूर्ण नहीं होते कि किसी मामले में नीति निर्धारित करते हों या फिर सरकार उन्हें विवादों के झमेले में फंसाए बगैर आनन फानन में पारित कराना चाहती है। अब गैरकानूनी गतिविधि (रोक) संशोधन कानून को ही लो। दिसंबर 2008 में इस कानून में संशोधन कर आतंकवादी गतिविधियों से निपटने वाले पोटा जैसे सख्त कानून को खत्म किया गया है, लेकिन यह विधेयक संसद की स्थायी समिति को नहीं भेजा गया। पेश होने के दो दिन के भीतर विधेयक दोनों सदनों से पारित हो गया। कुछ ऐसा ही राष्ट्रीय स्तर पर असर डालने वाली आतंकवादी घटनाओं की जांच के लिए बनाई गई केंद्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) के विधेयक के साथ हुआ था। पूरे देश में हाहाकार बचाने वाले एसईजेड कानून ने भी संसदीय समिति का मुंह नहीं देखा था। प्रवासी भारतीयों को मताधिकार का हक देने वाला विधेयक भी इस समिति को नहीं गया था। पूर्व संसदीय कार्यमंत्री और सुप्रीमकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ कहते हैं कि वास्तव में सदन कार्यपालिका यानी सरकार ही चलाती है और वही तय करती है कि कौन सा विधेयक स्थायी समिति को भेजा जाएगा और कौन सा नहीं। ज्यादातर विधेयक स्थायी समिति को नहीं भेजे जाते। धनकड़ कहते हैं कि वैसे तो समिति की सिफारिश सरकार पर बाध्यकारी नहीं होती लेकिन अगर सर्वसम्मति से यह कोई सुझाव देती है तो सरकार उसे मानती है ऐसी परंपरा है। कई बार इसके नतीजे बहुत अच्छे आते हैं जैसे सूचना का अधिकार कानून। स्थायी समिति के सुझावों के बाद इस कानून में आमूलचूल परिर्वतन हुए और अंतत: देश को एक अच्छा कानून मिला। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि कभी-कभी सरकार मुद्दे को टालने के लिए भी विधेयक स्थायी समिति को भेज देती है।
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साभार : दैनिक जागरण 28 अगस्त 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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