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संसद के कार्यो में विविधता के साथ ही इसकी अधिकता भी रहती है। चूंकि उसके पास समय बहुत सीमित होता है, इसलिए उसके समक्ष प्रस्तुत सभी विधायी या अन्य मामलों पर गहन विचार नहीं हो सकता है। अत: इसका बहुत-सा कार्य समितियों द्वारा किया जाता है। संसद के दोनों सदनों की समितियों की संरचना कुछ अपवादों को छोड़कर एक जैसी होती है। यह संविधान के अनुच्छेद 118 के अंतर्गत दोनों सदनों द्वारा निर्मित नियमों के तहत अधिनियमित होती है। सामान्यत: ये दो प्रकार की होती हैं-
स्थायी समितियां: स्थायी समितियां प्रतिवर्ष या समय-समय पर निर्वाचित या नियुक्त की जाती हैं। इनका कार्य कमोबेश निरंतर चलता रहता है।
तदर्थ समितियां: इन समितियों की नियुक्ति जरूरत पड़ने पर की जाती है तथा अपना काम पूरा कर लेने और अपनी रिपोर्ट पेश कर देने के बाद ये समाप्त हो जाती हैं।
विभागों से संबद्ध स्थायी समितियों की स्थापना संसद ने 1993 में की थी। वर्तमान में विभागों एवं मंत्रालयों से जुड़ी हुई इस प्रकार की 24 समितियां हैं।
सदस्यता: प्रत्येक कमेटी में 31 सदस्य होते हैं। इनमें से 21 लोकसभा एवं 10 राज्यसभा से होते हैं। संसद में दलों की ताकत के हिसाब से उनको इस कमेटी में सदस्यता दी जाती है।
भूमिका: बिल पर स्थायी समिति विचार करती है। इसके लिए आम जनता से भी सुझाव आमंत्रित किए जाते हैं। समिति मसले से जुड़े विशेषज्ञों की राय जानने के लिए उनको आमंत्रित भी कर सकती है। इस प्रकार समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है इसे सदन के पटल पर रखा जाता है।
रिपोर्ट तैयार करते समय समिति सभी सदस्यों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश करती है। हालांकि कुछ सदस्य यदि इसके पक्ष में नहीं हैं तो वह अपने विरोध नोट को दर्ज कर सकते हैं। सिविल लिबर्टी फॉर न्यूक्लियर डैमेजज बिल में वाम दलों के सदस्यों ने विरोध नोट लिखे थे।
सुझाव की बाध्यता: इस तरह की कोई बाध्यता सदन की नहीं होती। कमेटी का गठन तो इसलिए किया जाता है कि सदन के पास इतना समय नहीं होता कि वह सभी बिलों पर विस्तार से चर्चा करे और सभी बिलों के लिए जनता की राय भी ले।
सभी बिल समिति के पास भेजे जाते हैं ?
नहीं, लेकिन अधिकांश बिल इसके पास भेजे जाते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जब कोई बिल बगैर समिति के पास गए ही पारित हुए ऐसे में अगले 10 दिनों के भीतर समिति इस मसले पर अपनी रिपोर्ट सदन में रख दे और सदन में यह बिल पारित भी हो जाए, यह असंभव लगता है ।
स्थायी समिति संसदीय लोकतंत्र के लिए गर्व की बात है। कई बार कुछ मुद्दों को लेकर हमारे बीच मतभेद होते हैं। स्थायी समिति छोटी संसद की तरह है, जो दलगत राजनीति से ऊपर मुद्दों को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखती है। इसमें विभिन्न विचारों पर चर्चा की जाती है और फिर यह लोगों के हित में सिफारिशें देती है। संसद में मुद्दे ज्यादा होते हैं। समय कम। हर पहलू पर व्यापक चर्चा नहीं हो सकती। वह काम संसदीय समिति करती है। इसमें छोटी सी छोटी बातों पर चर्चा होती है और उस हिसाब से मसविदा तैयार किया जाता है। हर किसी को इसे बनाए रखना, इसकी प्रशंसा करनी चाहिए और इस व्यवस्था को कम करके नहीं आंकना चाहिए। स्थायी समिति विचारों के आदान-प्रदान और संतुलित तरीके से विचार-विमर्श के लिए सर्वश्रेष्ठ मंच है। लिहाजा, इसकी आलोचना करने के बदले इसकी गरिमा का ख्याल रखना चाहिए। –अभिषेक मनु सिंघवी (प्रवक्ता, कांग्रेस)
संसदीय कामकाज में संसद की स्थायी समितियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। वह लघु संसद हैं। उसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व होता है। संसद सत्र आमतौर पर लगभग सौ दिन ही चलता है, जबकि ये समितियां हमेशा काम करती रहती हैं। इससे संसद में अन्य मुद्दों पर चर्चा करने का ज्यादा समय मिलता है। इसकी कितनी भी बैठक हो सकती हैं। समितियों में वक्ता को बोलने की पूरी आजादी होती है और समय की पाबंदी भी नहीं होती है। इसके अलावा देश में कानून बनाने वालों को भी समय चाहिए होता है। उनको संसद के बाहर के लोगों की भी सलाह लेनी होती है। ऐसे में संसदीय समिति को कोई भी व्यक्ति अपनी राय दे सकता है। पिछली संसदीय समितियों ने कई अच्छे कानून बनाए हैं। महिला आरक्षण विधेयक उसकी एक मिसाल है। –सैयद शाहनवाज हुसैन (प्रवक्ता, भाजपा)
स्थायी समिति एक संवैधानिक व्यवस्था है। इसका काम मंत्रालयों के कामकाज का पोस्टमार्टम करने के साथ ही ऐसा कानून बनाने में मदद करना भी है जो सुप्रीम कोर्ट से संवैधानिक प्रावधानों के तहत खारिज न किया जा सके। संसदीय व्यवस्था को बनाए रखने में स्थायी समितियों की महत्वूपर्ण भूमिका है। ऐसे समय में जब रोज नए घोटाले सामने आ रहे हों तब इनकी प्रासंगिकता पहले से भी ज्यादा हो गई है। ब्रिटेन और अमेरिका में भी इस तरह की समितियों की व्यवस्था है। सदन में किसी सदस्य को जो कर्त्तव्य, दायित्व और विशेषाधिकार मिला हुआ है वहीं स्थायी सदस्य के रूप में भी उसे प्राप्त है। स्थायी समिति के कार्यक्षेत्र में न्यायपालिका भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। स्थायी समितियों की व्यवस्था इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि यह सरकार की योजनाओं को देखने का काम करती है कि उन्हें जनता के हित में चलाना उपयोगी है या नहीं। सरकार कानून बनाने के लिए कोई विधेयक सदन में लाती है तो उन पर समाज के हर तबके को मौका देकर उनकी राय लेना और उसके आधार पर एक सुसंगत रिपोर्ट देना समिति का प्रमुख दायित्व है। भले ही सरकार उसकी रिपोर्ट को विधेयक के प्रारूप में शामिल करे या इसे खारिज कर दे। –मंगनी लाल मंडल (नेता, जनता दल यू)
संसद के कामकाज से जुड़ी सभी समितियों का महत्व है लेकिन स्थायी समिति उनमें भी खास है। दरअसल सांसदों की मुख्य जिम्मेदारी कानून बनाने से जुड़ी है। स्थायी समिति इस जिम्मेदारी के वहन में अहम भूमिका निभाती है। यह एक मिनी पार्लियामेंट होती है जहां हर दल का प्रतिनिधित्व होता है और वातावरण ऐसा होता है जहां अक्सर दलगत भावना से परे होकर विधेयकों पर चर्चा होती है। कुछ मामलों में यह विधेयकों को ठंडे बस्ते में डालने का माध्यम भले ही बनी हो लेकिन सामान्यता इसने विधेयकों को धार दी है। -डा रघुवंश प्रसाद सिंह (नेता, राजद)
जनमत
क्या सरकार संसद की स्थायी समिति का उपयोग हथियार के रूप में कर रही है?
हां: 89%
नहीं: 11%
क्या जन लोकपाल विधेयक पर सरकार की मंशा साफ नहीं है?
हां: 81%
नहीं: 19%
आपकी आवाज
जन लोकपाल पर सरकार गंभीर नहीं है। उसका उद्देश्य मामले को टालना लग रहा है।-मनोजगुप्तायूपीटीडी @ जीमेल.कॉम
सरकार जन लोकपाल के मसले पर कोई फैसला ही नहीं लेना चाहती। यह इस मसले से बचने के लिए तरह तरह के तर्क-वितर्क कर रही है -पैमेल प्रीत (कुरुक्षेत्र) इस विधेयक पर सरकार द्वारा बार-बार की जा रही नाटकबाजी बता रही है कि उसकी मंशा साफ नहीं है। -गौरीशंकर1054 @ रीडिफमेल.कॉम
किसी विधेयक को लटकाने के लिए सरकार स्थायी समिति का उपयोग हथियार के रूप में करती है। -जम्मू (आयुष)
28 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “परदेस में ओम्बुड्समैन” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
साभार : दैनिक जागरण 28 अगस्त 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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