- 442 Posts
- 263 Comments
मसीहा: अन्ना हजारे, एक नाम जिसमें लोग मसीहा की छवि देख रहे हैं। अपनी अवस्था के चौथेपन में पहुंच चुका यह शख्स युवाओं का भी आदर्श बन चुका है। सास-बहू धारावाहिक देखने वाली महिलाएं आज अन्ना और उनके अनशन से जुड़ी जानकारियों पर नजर रख रही हैं। ऐसे भी लोग हैं जो लोकपाल बिल और उसकी ताकतों से वाकिफ नहीं हैं, लेकिन वे इतना तो जानते ही है कि आज का यह गांधी उनकी बेहतरी के लिए कुछ अच्छा किए जाने की मांग कर रहा है।
मुहिम: क्या बच्चे, छात्र, नौकरीपेशा, युवा, अधेड़, सेवानिवृत्त और क्या बुजुर्ग, समाज का हर तबका और वर्ग अन्ना रूपी उम्मीद की इस आंधी में उड़ चला है। वहीं आजादी की दूसरी लड़ाई बताए जा रहे इस आंदोलन ने सरकार और प्रशासन की नींद उड़ा रखी है। शायद यही है सार्थक और सकारात्मक अनशन की ताकत।
मर्म: हर कोई अन्ना की इस सम्मोहनी ताकत से बरबस ही खिंचा हुआ महसूस कर रहा है। जनमानस को खींचने वाली अनशन की यह अदृश्य ताकत आज के परिवेश में बड़ा मुद्दा है।
सवाल सही मसला और ईमानदार मंशा का है
1974 में जेपी आंदोलन के समय बिहार के कुछ इलाकों में चेचक का प्रकोप हो गया था। जयप्रकाश नारायण ने सार्वजनिक रूप से इस पर चिंता प्रकट की। फिर क्या था, पटना मेडिकल कालेज के छात्रों ने कुछ ही समय में राज्य के दस हजार लोगों को चेचक के टीके देने का काम पूरा कर दिया।
यह जेपी के प्रति सम्मान और उनके नेतृत्व में शुरू आंदोलन की गंभीरता का ही परिणाम था। अधिकतर लोगों को मालूम था कि जेपी का मुद्दा सही और मंशा ईमानदार है। अन्ना के आंदोलन को देखकर जेपी आंदोलन की याद स्वाभाविक है। इतना ही नहीं, जेपी के आह्वान पर जब-जब पटना में सभा या आंदोलन का कोई कार्यक्रम बनता था तो राज्य भर से लोग आते थे। उनके खाने का प्रबंध किसी होटल या भंडारे से नहीं बल्कि आम लोगों के घरों से होता था। अनेक आम लोगों सहित इन पंक्तियों के लेखक के घर से भी अक्सर पूड़ी-भुजिया-आचार के पैकेट उन आंदोलनकारियों के लिए बन कर जाते थे।
बिहार आंदोलन के दौरान समय-समय पर घरों में थालियां बजाने और थोड़ी देर के लिए नियत समय पर बत्तियां गुल कर देने का भी जेपी आह्वान करते रहते थे। उस समय उन कई घरों से भी थालियों की आवाज आती थी, जिन्हें सक्रिय राजनीति से कोई मतलब नहीं था। उनमें से अधिकतर लोगों की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। पर वे एक नेता की ओर विश्वास भरी नजरों से देखते थे जो उनकी समस्याओं को लेकर 73 साल की आयु में भी आम जन की बेहतरी के लिए सड़कों पर निकल पड़ा था।
यह कहना गलत है कि आम लोगों की राजनीति में कोई रुचि नहीं है। दरअसल लोगबाग विश्वसनीयता खो चुके नेताओं और दलों में कोई खास रुचि नहीं रखते भले वे औपचारिकता के लिए हर बार किसी न किसी को वोट दे देते हैं। सामने बेहतर विकल्प के अभाव में कई बार और अधिकतर स्थानों में विवादास्पद उम्मीदवारों के पक्ष में ही उन्हें मुहर लगानी पड़ती है।
जेपी आंदोलन की घटनाएं बताती हैं और अन्ना आंदोलन की घटनाएं भी इस बात की पुनरावृति कर रही है कि यदि नेता प्रामाणिक हो तो बेहतर राजनीति की प्यासी जनता उस नेता की तरफ खिची चली आती है। भ्रष्टाचार और उससे उत्पन्न महंगाई की मार सबसे अधिक गरीब और निम्न मध्यवर्गीय जनता ही भुगतती हैं, इसलिए केले वाले केले और चने वाले कम कीमत पर या मुफ्त में चने आंदोलनकारियों को दे देते हैं।
21 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “भूखे भजन भी होय गोपाला!” पढ़ने के लिए क्लिक करें।
21 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “अनशन का अस्त्र” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
21 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “भूख हड़ताल वाले जननायक” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
साभार : दैनिक जागरण 21 अगस्त 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
Read Comments