- 442 Posts
- 263 Comments
देश में ऐसी कहानी वाले लोगों की भी कमी नहीं है जो तंत्र की बेरुखी से मायूस हो चले हैं। यह इनकी जिजीविषा ही है कि इन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी है, लेकिन इनकी मायूसी आजादी की कलई खोलने के लिए काफी है।
इस सुदामा का कोई श्रीकृष्ण नहीं
ये हैं बीएसएफ से रिटायर्ड चमोली जिले के नंदप्रयाग निवासी सुदामा मुनियाल। बीस साल से अपने अधिकार की ‘जंग’ लड़ रहे हैं। आजादी के मायने ढूंढ रहा यह शख्स तंत्र की बेरुखी से बेहद मायूस है।
दुश्वारियां: 1976 में बीएसएफ से सेवानिवृत्ति के बाद पुश्तैनी जमीन में घर बनाया। इसी बीच ऋषिकेश-बद्रीनाथ हाईवे पर नंदाकिनी नदी में सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने नया आरसीसी पुल स्वीकृत किया। 1990 में पुल का निर्माण लोक निर्माण विभाग निरीक्षण भवन के पास से होना था, पर भूमि विवाद के चलते इसे इनके घर से प्रस्तावित कर दिया गया। मुनियाल ने इसका विरोध करने के बजाय भवन के मुआवजे की मांग की। बीआरओ ने मुआवजे का भरोसा देते हुए भवन का एक हिस्सा तोड़कर कार्य शुरू किया लेकिन बाद में राजस्व रिकार्ड में भूमि बेनाप होने का पेंच फंसा दिया। इस नाइंसाफी के खिलाफ सुदामा ने प्रशासन-शासन के चक्कर काटे। लिहाजा 1992 में बीआरओ ने 8552 रुपये का मुआवजा भूमि में खड़े पेड़ों की एवज में दिया, लेकिन यूपी सरकार में भूमि निहित होने की दलील देते हुए जमीन का मुआवजा खारिज किया |
जंग का बिगुल: 26 जनवरी 1993 को तंत्र के खिलाफ मुनियाल का शुरू किया गया धरना आज भी जारी है। 1996 में पुल भी बन गया। 1997 में सरकार ने इस भूमि को पुस्तैनी कब्जा मानते हुए एक नाली आठ मुट्ठी का नियमितीकरण भी इनके नाम कर दिया। इस आंदोलन की ही आंच है कि आज तक पुल का उद्घाटन नहीं हो सका। 1992 में सुदामा ने न्यायालय की शरण भी ली, लेकिन आर्थिक तंगी के के चलते बाद में हाथ खींचने पड़ें। इन बीस वर्षो में कई जिलाधिकारियों ने समाधान के लिए कमेटी बनाई, लेकिन सबकुछ बेनतीजा रहा। सुदामा पुल के किनारे बनी झोपड़ी में दिनभर धरना देकर आने-जाने वालों को अपनी आपबीती इसी उम्मीद में सुनाते हैं कि आजाद देश में कभी तो उनकी सुनवाई होगी।
देवेंद्र रावत, गोपेश्वर
हम किस देश के वासी हैं…
आज हम स्वाधीनता दिवस का एक और जश्न मनाने की भले ही तैयारी कर रहे हैं, लेकिन कुछ लोगों के लिए इसका कोई मोल नहीं है। इन पर स्वतंत्रता किसी पाषाण की तरह गिरी, और ये पिचक गए। 64 बरस की आजादी भी उन्हें कुछ न दिला सकी। कहां तो लाशों के ढेर पार करते हुए आए थे पाकिस्तान से। यहां बस रिफ्यूजी होकर रह गए। न समाज से अपनापन मिला, न सरकारी तंत्र ने ही खैर पूछी। अलीगढ़ की रिफ्यूजी कालोनी के गुरुचरन सिंह (78) को ये आजादी चुभन देती है। क्यों? जानिए, उनकी ही जुबानी:
मैं 64 साल से आजादी के मायने तलाश रहा हूं। मेरे लिए इसका मतलब क्या है? पहली कीमत चुकाई, अपना मुल्क छोड़ा। शान-ओ-शौकत की जिंदगी छोड़ी। सरगोधा के चेयरमैन की बेटी कुलदीप कौर से शादी हुई। कपड़े का कारोबार था। बंटवारे में दंगा भड़का तो जान बचाने को हिंदुस्तान आ गए। मेरे पिता हरनाम सिंह के साथ कुल 30 परिवार थे। उस वक्त मैं 14 साल का था। पहले, अंबाला में रिश्तेदारों के पास रुके। पांच हजार रुपये उधार लेकर अलीगढ़ आ गए। यहां किराए पर मकान मिला। जिन्हें लोगों ने नाम दे दिया ‘रिफ्यूजी कालोनी’। रिफ्यूजी शब्द आज भी किसी गाली सा लगता है। जन सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं है यहां। जिंदगी बिखरी पड़ी है। किसी ने साथ नहीं दिया। नेताओं का तो कहना ही क्या? वे अखबार में नजर आते हैं या फिर चुनावों में। कई रिफ्यूजी बुजुर्ग वृद्धापेंशन के लिए आज भी समाज कल्याण विभाग के चक्कर काट रहे हैं। पैर जवाब दे गए हैं। चोरी हो जाती है तो पुलिस रिपोर्ट तक नहीं लिखती। सालभर पहले चचेरे भाई का सारा माल चोर ले गए , दर्जनों बार पुलिस अफसरों के पास गए, कुछ न हुआ। क्या हम यही दिन देखने को हिंदुस्तान आए थे?- गुणातीत ओझा, अलीगढ़
14 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “चूके तो चुक गए हम” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
14 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “हमारी इस आजादी का मतलब!” पढ़ने के लिए क्लिक करें।
साभार : दैनिक जागरण 14 अगस्त 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
Read Comments