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संसदीय गरिमा का सवाल!

मुद्दा
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Mudda_sansadसाख

एक अगस्त से संसद का मानसून सत्र आहूत है। लोकतंत्र अगर एक शरीर है तो संसद उसकी आत्मा। देश और आम लोगों के हित के लिए संसद कानून बनाती है, और वहां सभी नीतियों पर चर्चा करके उसे लागू कराया जाता है। संसद सर्वोच्च है इसमें कोई शक नहीं। जब भी लोकपाल बिल जैसा कोई मसला सामने आता है तो हमारे राजनेता कहते हैं कि संसद सर्वोच्च है वही फैसला करेगी। लेकिन इतिहास गवाह है कि संसद की इस सर्वोच्चता एवं मर्यादा को हमारे इन्हीं माननीयों ने कई बार तार-तार किया है।


सवाल

क्या संसद की सर्वोच्चता इसी में है कि वहां तय समय में से चंद घड़ी ही सार्थक बहस हो पाती है? क्या सालों साल से लंबित तमाम विधेयकों का पारित न होना ही इसकी सर्वोच्चता एवं मर्यादा है? क्या सत्र के दौरान चलने वाले हो हंगामे से उसकी गरिमा को आघात नहीं पहुंचता? महत्वपूर्ण सवाल यह है कि संसद का सम्मान कैसे कायम रखा जाए? क्या केवल कहने मात्र से इसकी गरिमा और श्रेष्ठता बरकरार रह सकेगी या फिर संसद को अपने कृतित्व से भी खुद को साबित करना होगा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के नाते हमारी गरिमामयी संसदीय कार्य-प्रणाली और संसद के सम्मान की सुरक्षा बड़ा मुद्दा हैं।


Subhash Kashyapपर्याप्त हैं कानून, उपयोग सही नहीं

एक के बाद एक घोटालों के उजागर होने और दागी राजनेताओं के सामने आने से संसद की गरिमा पर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या ये दागी चेहरे संसदीय गरिमा को नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं? क्या ऐसी जरूरत आ गई है कि उदार संसदीय नियमों पर नए सिरे से विचार किया जाए?


यद्यपि नियमों में परिमार्जन की गुंजायश हमेशा बनी रहती है लेकिन हमारी राय में जो संसदीय नियम वर्तमान में मौजूद हैं वह संतोषजनक हैं। उनमें किसी खास बड़े बदलाव की जरूरत नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 105 में संसदीय विशेषाधिकार का प्रावधान किया गया है। इसमें सदस्यों, सदन की शक्तियों, विशेषाधिकारों एवं कमेटियों के गठन को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। आज दिक्कत इस बात की है कि उनका सही ढंग से इस्तेमाल नहीं किया जाता है। जबकि इसके इस्तेमाल से संसदीय गरिमा की रक्षा प्रभावशाली तरीके से की जा सकती है।


इतिहास में इस तरह के कई उदाहरण मौजूद हैं जब संसद ने अपनी गरिमा की रक्षा के लिए कदम उठाया है। इस तरह का पहला मामला 1951 में एचजी मुद्गल केस के रूप में देखने को मिलता है। मुंबई से कांग्रेस संसद सदस्य एचजी मुद्गल पर आरोप लगा कि बुलियन मर्चेट्स एसोसिएशन के एक मामले में उन्होंने पैसे लिए थे। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा अध्यक्ष से मामले की जांच करने के लिए आग्रह किया। गठित कमेटी ने अपनी जांच में पाया कि मुद्गल ने एसोसिएशन से दो बार एक-एक हजार रुपये लिए थे। आरोप सिद्ध होने पर उनको संसद से निष्कासित कर दिया गया। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘उनका यह कृत्य संसदीय गरिमा को आघात पहुंचाने वाला है। इससे संसद के उन मानदंडों का भी क्षरण होता है जिनकी वह अपने सदस्यों से अपेक्षा करती है।’ उसके बाद से लेकर अब-तक कई बार संसद ने अपनी गरिमा की रक्षा की है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि ऐसे संसद सदस्यों का चुनाव किया जाए जो योग्य एवं चरित्रवान हो तथा जिनमें त्याग एवं सेवा की भावना हो तो संसदीय आचरण की गरिमा में गिरावट अपने आप ही दूर हो जाएगी।


इसके लिए निर्वाचन व्यवस्था में अविलंब सुधार की जरूरत है। इससे राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण रोका जा सकेगा। अभी प्रत्याशियों को चुनने में जनता की कोई भागीदारी नहीं होती। अक्सर देखने में आता है कि ऊपर से उम्मीदवार थोप दिया जाता है। कहने का आशय यह है कि उम्मीदवारों के चयन में जनता की भागीदारी होनी चाहिए।


चुनाव प्रक्रिया महंगी नहीं होनी चाहिए। चुनाव में खर्च कम होना चाहिए। इससे योग्य एवं ईमानदार उम्मीदवार चुनाव लड़ सकेंगे। अभी इतनी महंगी चुनाव प्रणाली है कि आम आदमी चुनाव लड़ने के बारे में सोच नहीं सकता है। इसी महंगी चुनाव प्रणाली के कारण ही भ्रष्टाचार पनपता है। इससे काले धन की अर्थव्यवस्था जन्म लेती है। ऐसे में संसदीय गरिमा की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि निर्वाचन व्यवस्था को सुधारा जाए।


[संविधान विशेषज्ञ एवं पूर्व लोकसभा महासचिव सुभाष कश्यप की अतुल चतुर्वेदी से बातचीत पर आधारित]


Mohan singhसियायत में बढ़ रही है तिजारत

संसद सदस्यों के मुख्यत: चार काम होते हैं। देश की उन्नति के लिए वार्षिक बजट बनाने के अलावा कानून बनाना, सीमा की हिफाजत के लिए सरकार पर दबाव बनाते रहना और देश हित में राष्ट्रीय व्यय पर कड़ी निगरानी रखना भी उनके मुख्य कार्यो में शामिल है। वर्तमान में संसद इन चारों कामों में पिछड़ रही है। पहले संसद सदस्य सार्वजनिक सवालों पर काफी जागरूक रहते थे, मगर अब उनमें इसका अभाव झलकता है। दूसरी, तीसरी, और चौथी संसद राष्ट्रीय आंदोलन की पीढ़ी से भरी थी, जिसने देश के विकास का सपना लेकर अंग्रेजों से बगावत की थी। उस सपने की आंतरिक इच्छा संसद में परिलक्षित होती थी। अब वह पीढ़ी खत्म हो गई है। बीच में आजादी के बाद भ्रष्टाचार, बेरोजगारी के खिलाफ जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन शुरू हुआ, इमरजेंसी लगी, उस संग्राम का मुकाबला किया। अब वह पीढ़ी भी समाप्त हो गई। इसके बाद से संसद के परिदृश्य में काफी बदलाव आ गया।


इधर राजनीति का व्यवसायीकरण बढ़ा है। सदस्यों को देश और समाज के बजाए औद्योगिक घरानों का हित अधिक दिखाई देने लगा है। उनकी आवाज बुलंद करने में उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती। उनके हित में वह सदा संसद में सवाल उठाते रहते हैं। एक समय मुंबई में सराफा बाजार के हित का सवाल उठाने पर सांसदों की जांच हुई थी। उसके लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कमेटी गठित की। जांच में बात सही निकली, जिस पर नेहरू ने उस कृत्य को अंजाम देने वाले सांसद की सदस्यता समाप्त करने का प्रस्ताव रखा, जिसे संसद ने पारित भी कर दिया।


संसद सदस्यों के अंदर आत्मचेतना होनी चाहिए, लेकिन वह है नहीं। यह लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है। आज सांसद सुविधा के लिए, वेतन के लिए दबाव बनाते हैं, जनहित के सवालों की अनदेखी करते हैं। वर्तमान में संसद में 151 विधेयक लंबित हैं, किन्तु सदस्य बहस में शामिल ही नहीं होते। केवल हस्ताक्षर करके चले जाते हैं।


नई आर्थिक नीति ने समाज के अंदर विलासिता का जीवन भर दिया है। संसद सदस्य भी समाज के ही अंग हैं। इसलिए उसका प्रभाव उन पर भी स्वाभाविक रूप से पड़ा। अब नेता और कार्यकर्ता के बीच एसपीजी की दीवार खड़ी है। नेता अब रात्रि विश्राम क्षेत्र में नहीं करते। वह विमान, हेलीकॉप्टर से आते-जाते हैं। पहले संसद सदस्य ट्रेनों से आते थे। क्षेत्र में रुककर कार्यकर्ताओं की बात सुनते थे। अब वह बात कहां? अब नैतिकता खत्म हो गई है। 1957 में एक रेल रेल दुर्घटना से दुखी होकर तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दे दिया था। विमान दुर्घटना होने पर माधवराव सिंधिया ने पद छोड़ दिया था। अब तो मंत्री घटना स्थल पर जाते तक नहीं, इस्तीफा देना तो दूर की बात है।


प्रतीत होता है कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य अब अंधकारमय होने को है। जनाकांक्षाओं का नेतृत्व करने वाले मर गए। अब पर्दे के पीछे से जो हुक्म मिलता है, वही चलता है। चुनावी खर्च ने भी भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा दिया है। लोक जीवन का आधार पवित्रता और शुचिता है। इसके बिना लोकतंत्र जिंदा नहीं रह सकेगा।


31 जुलाई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “क्या बढ़ रही है संसद और समाज के बीच दूरी!” पढ़ने के लिए क्लिक करें.

31 जुलाई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “गिरती साख!” पढ़ने के लिए क्लिक करें.

31 जुलाई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “खास है यह मानसून सत्र” पढ़ने के लिए क्लिक करें.

31 जुलाई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “संसद भवन का इतिहास” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 31 जुलाई 2011 (रविवार)

नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.


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