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हम दुनिया में आतंकवाद से सबसे ज्यादा पीड़ित देशों में शुमार किए जाते हैं। लेकिन आलम यह है कि आतंकवादी आते हैं और धमाका करके हमें कई बहसों में उलझाकर चले जाते हैं। सरकार भी कई अप्रभावी कदमों की तुरत फुरत घोषणा करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री करती दिखती है। अपनी कमजोर कड़ी को दूर करने की बजाय सरकार आतंकी हमले की काट का एक और उपाय ढूढ़ने में कतई गुरेज नहीं करती। मुंबई धमाकों की गुत्थी सुलझाने की जगह हमारी जांच एजेंसियों में आपस की तकरार इन उपायों की कलई खोलने के लिए काफी है। आतंकवादी घटनाओं की जांच के लिए विशेष रूप से गठित राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) और मुंबई पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) के बीच जांच की दशा और दिशा पर मनमुटाव इनके बीच तालमेल और समन्वय की बानगी पेश करता है।
आतंकी घटनाओं की जांच के लिए एनआइए का गठन ही काफी नहीं है। जब तक थाना स्तर से इंटेलीजेंस नहीं मजबूत किया जाएगा। तब तक शायद ही स्थिति सुधरे। एक तो लोकल इंटेलीजेंस मजबूत करके ऐसी आतंकी घटनाओं को टाला जा सकता है। अगर कहीं इस तरह की घटना हो भी जाती है तो इन्ही खुफिया जानकारियों की लीड पर राष्ट्रीय जांच एजेंसियां निर्णायक नतीजे पा सकती हैं। शर्त यह है कि निचले स्तर से लेकर शीर्ष स्तर की सभी जांच एजेंसियों के बीच पूर्ण तालमेल और समन्वय की व्यवस्था हो। शायद अभी ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसलिए आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार द्वारा गठित महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों के बीच तालमेल एवं समन्वय का अभाव बड़ा मुद्दा है।
केवल नाम ही न बने पहचान
यह आम धारणा है कि आतंकी हमलों की जांच के लिए गठित अनेक जांच एवं खुफिया एजेंसियों के बीच समन्वय के अभाव के कारण प्रमुख आतंकी मामलों को सुलझाने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। साधारण तौर पर इस धारणा की वजह मामलों की छानबीन एवं हमलों की रोकथाम में असफलता अथवा अन्य कारणों मसलन जांच की गलत दिशा के चलते बनी है। इसके अलावा हाई-प्रोफाइल मामलों में प्रमुख जांच एजेंसियां जिस तरह क्रेडिट लेने के लिए दावे करती हैं, उससे भी उनके अस्पष्ट अधिकार क्षेत्र और भूमिका का पता चलता है। व्यापक फलक में देखा जाए तो केंद्रीय एवं राज्यों की जांच एजेंसियों के आपसी सहयोग के कारण कई महत्वपूर्ण आतंकी मामलों को सुलझाया गया है।
वर्तमान 13/7 मुंबई आतंकी हमले की जांच में सीधे तौर पर अनेक एजेंसियों की उपस्थिति और उनकी स्पष्ट भूमिका सुनिश्चित नहीं होने के कारण जांच की सही दिशा पकड़ने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। इससे भी बदतर यह कि इन तमाम एजेंसियों की अभी तक कोई विशेष योग्यता भी सामने नहीं आई है। इस मामले में ये तमाम जांच एजेंसियां अभी तक अपेक्षित मानदंडों के अनुकूल नहीं उतर पाई है। एनआइए के अधिकारी राज्य की जांच एजेंसियों पर अपनी वरीयता चाहते हैं लेकिन अपनी क्षमता, काबिलियत के दम पर अपना प्रदर्शन करने में वे अभी सफल नहीं रहे हैं। अगर किसी मामले की जांच में लीड एजेंसी दूसरी एजेंसी की क्षमताओं से आश्वस्त हो जाती है तो उसे उनकी सहायता लेने में शायद ही संकोच हो।
एनआइए के पास केवल 71 अधिकारी हैं। ये अधिकारी भी सीबीआइ समेत अन्य पुलिस संस्थानों से लिए गए हैं। हालांकि इनमें से कई अधिकारियों के पास जांच कार्य का व्यापक अनुभव है लेकिन आतंकवाद से जुड़े मामलों की जांच का तजुर्बा शायद ही किसी के पास हो। तकनीकी दक्षता के स्तर पर भी यह जांच एजेंसी कमजोर है। इसके पास ऐसा कोई डाटाबेस नहीं है जिसके दम से ही कम से कम यह किसी राज्य स्तरीय सक्षम जांच एजेंसी से खुद को बेहतर साबित कर सके। यह बस इस मामले में ही अपवाद है कि यह एक राष्ट्रीय एजेंसी के तौर पर जानी जाती है और इसकी जांच का दायरा राज्यों की सीमाओं में परे है। लेकिन कई राज्य एजेंसियों ने आपसी तालमेल के द्वारा भी बढि़या नतीजा दिया है। ऐसे मामलों में इन एजेंसियों ने खुफिया ब्यूरो जैसी राष्ट्रीय एजेंसियों से समन्वय बनाने में भी गुरेज नहीं किया है।
एनआइए के गठन के समय कहा जा रहा था कि यह अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआइ की तरह होगी। इस तरह के दावे खोखले साबित हुए। एनआइए किसी भी मायने में एफबीआइ की तरह सक्षम नहीं हो पाई है। यहां तक कि इसका बजट एफबीआइ की तुलना में बेहद मामूली है। वित्तीय वर्ष 2012 के लिए एफबीआइ का बजट 16 अरब डॉलर है। जबकि 2011-12 में एनआइए का बजट 55.68 करोड़ रुपये है। यह एफबीआइ के बजट का महज 0.07 प्रतिशत है।
एनआइए के गठन के पीछे कोई स्पष्ट रणनीतिक सोच नहीं थी। यह केवल 26/11 के संदर्भ में राजनैतिक तंत्र द्वारा दिखावे का एक प्रयास था कि वह आतंकी हमलों से निपटने के लिए सार्थक कोशिश कर रही है। इस बात की संभावना कम ही दिखती है कि इस तरह की कोशिशों से आतंक निरोधी क्षमताओं में कुछ खास इजाफा होना वाला है।
आम जनता में पैठ जरूरी
हमारे समय में खुफिया सूचनाएं जुटाने पर इतना ध्यान देने की जरूरत नहीं महसूस होती थी। उस दौर में तो पुलिस थानों से खबरियों के जरिए ही ज्यादातर सूचनाएं आती थीं। मुंबई में खुफिया सूचनाएं इकट्ठा करने का हमारा काम सिर्फ अंडरवर्ल्ड के बारे में या छोटे-मोटे अपराधों से संबंधित ही होता था। उस समय हमारे पुलिस थानों एवं क्राइम ब्रांच के लोगों का खबरियों के साथ-साथ मुंबई के आम आदमी से भी अच्छा रिश्ता रहता था। इसलिए आम आदमी को भी जब कुछ संदिग्ध दिखाई पड़ता था तो वह पुलिस के पास आकर बताता था। उसके आधार पर पुलिस सक्रिय होकर कार्रवाई करती थी। अब पुलिस और आम जनता दूर होती जा रही है। बिना आम जनता के सहयोग के पुलिस सफल नहीं हो सकती। और आम जनता का सहयोग पुलिस को तब मिलेगा, जब वह लोगों से सम्मान से बात करेगी। पुलिस लोगों से पैसा वसूल करने एवं भ्रष्टाचार में उलझी रहेगी तो जनता उससे दूर ही होती जाएगी।
आतंकवाद देश के सामने एक नई समस्या है। हमारे समय में तो आतंकवाद था ही नहीं। सबसे पहले आतंकवाद पंजाब में देखा गया। अब पंजाब से भी अलग तरह का जेहादी आतंकवाद सामने आ रहा है। ये बहुत खतरनाक है। जिन्हें हम जेहादी आतंकी कहते हैं, वो मुस्लिम समाज के बहुत थोड़े से लोग हैं। जैसे पंजाब में सारे सिख आतंकी नहीं थे, वैसे ही मुस्लिमों में भी सारे मुस्लिम जेहादी नहीं हो सकते। अब हमें उनके बारे में जानकारी चाहिए। यह जानकारी उसी समुदाय के लोगों से हमें मिल सकती है। क्योंकि जेहादी आतंकियों को रुकने-ठहरने की जगह तो उनके समुदाय के लोगों के बीच ही मिलती होगी। सारी मदद वहीं मिल सकती है। इसलिए वह समुदाय ही उनके बारे में जानकारी मुहैया करा सकता है। पंजाब में जाट सिख लोगों से ही हमें वहां के आतंकियों के बारे में सूचना मिलती थी। जब आतंकियों ने उनके घर जाकर उनकी पत्नियों की ही इज्जत पर हाथ डालना शुरू कर दिया, तो जाट सिखों ने ही उनकी जानकारियां पुलिस को देनी शुरू कर दीं। तभी पुलिस उन आतंकियों पर काबू पाने में सफल रही।
इसी प्रकार अब जेहादी आतंकियों की सूचनाएं पाने के लिए पुलिस को मुस्लिम समुदाय के बीच पैठ बनानी होगी। उनसे रिश्ते अच्छे बनाने होंगे। तभी वह पुलिस के साथ घुलमिल सकेंगे और अपने आसपास होने वाली किसी संदिग्ध गतिविधि की जानकारी पुलिस को देंगे। सभी मुस्लिमों को संदेह से नहीं देखना होगा। हम मुंबई में कई झोपड़पट्टिंयों में मोहल्ला कमेटियां चलाते हैं। इन मोहल्ला कमेटियों की शुरुआत मुंबई के वरिष्ठ नागरिक रहे एफटी खोराकीवाला की पहल पर हुई थी। इन कमेटियों में हम मुस्लिमों के साथ काम करते हैं। उनसे बात करके पता चलता है कि वो आतंकियों के साथ नहीं, बल्कि उनके खिलाफ हैं। ऐसे लोगों को भरोसे में लेकर ही हमें आतंकियों के बारे में समय रहते सूचनाएं मिल सकती हैं। अभी कुछ दिनों पहले मुंबई में हुए विस्फोट कोई फिदायीन हमला नहीं थे। उसे करने वाले लोग यहीं के रहे होंगे।
यहीं के लोगों से उन्हें मदद मिली होगी। पुलिस यदि इस समाज से अपने रिश्ते मजबूत और मधुर रखे तो उसे आतंकियों को मदद करने वालों या उन्हें पनाह देने वालों के बारे में जानकारियां हासिल हो सकती हैं ।
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साभार : दैनिक जागरण 24 जुलाई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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