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यह अंडरवर्ल्ड की वापसी का संकेत है

मुद्दा
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attack on media मिड डे अखबार के क्राइम और इन्वेस्टीगेशन एडीटर ज्योतिर्मय डे की मुंबई में 11 जून को की गई हत्या मीडिया पर हमले की कोई पहली घटना नहीं है। वास्तव में यह हमला उन घटनाओं का चरम है जो पिछले दो दशकों से जारी हैं और जिनके प्रति सरकारें मूकदर्शक बनी हुई हैैं। मीडिया पर दिनोंदिन बढ़ते आपराधिक हमलों में कानून प्रशासन के ढुलमुल रवैये से न केवल अंडरवल्र्ड–अपराधी–पुलिस गठजोड़ की बू आती है बल्कि इनको प्राप्त राजनीतिक संरक्षण के सच को भी खारिज नहीं किया जा सकता है। समाज में हो रहे अपराधों का सच सामने लाने वाले पत्रकार ज्योतिर्मय डे की हत्या एक पत्रकार की जान लेने का मामला भर नहीं है। व्यापक रूप में यह समूचे मीडिया की आजादी और सुरक्षा पर खुला और निंदनीय आघात है। क्या सचमुच मीडिया तभी सुरक्षित रह सकता है जब वह तमाम लोगों के निहित स्वार्थों के आगे झुक जाए? क्या यह प्रवृत्ति एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत होगी। मीडिया पर बढ़ते हमले और उन पर सरकार की लचर कार्रवाई बड़ा मुद्दा है।


पत्रकार जे डे की हत्या के बाद मैं कह चुका हूं कि मुंबई में अंडरवल्र्ड की वापसी हो गई है। इस हत्याकांड को अंजाम देने की कार्यशैली अंडरवल्र्ड से बहुत मिलती जुलती है। इस घटना की तर्ज पर ही अंडरवल्र्ड अपने शिकार की पहले से निगरानी शुरू कर देता है। दिनदहाड़े मोटरसाइकिलों से आकर और दुस्साहसपूर्ण तरीके से मारकर इतनी सफाई से भाग निकलना कि अभी तक कोई सुराग न मिले, यह शैली किसी आम अपराधी की हो ही नहीं सकती।


M.N Singh यह एक तरह से शहर में दहशत पैदा करता है। हालांकि अंडरवल्र्ड द्वारा इस आपराधिक वारदात को करने के पीछे कई कारण हो सकते हैं। इस संगठित गैंग द्वारा किसी के जान लेने का एक कारण यह हो सकता है कि उस व्यक्ति ने उनका रास्ता काटा हो। अगर कोई उनके धंधे में व्यवधान बन रहा हो जिसके कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ा हो। चूंकि यह एक पत्रकार की मौत का मामला है, इसलिए हो सकता है कि पेशेवर जरूरतों के चलते अपनी रिपोर्टिंग के दौरान कुछ ज्यादा खोजबीन करने के साथ–साथ उसकी सूचना पुलिस को भी देने लग गए हों, अथवा इस प्रकार की सूचनाएं उनके विरोधी गैंग को देने लग गए हों, जिसके कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ा हो। इन्हीं परिस्थितियों में अंडरवल्र्ड इस प्रकार के कदम उठाता है। साधारणतया, अंडरवल्र्ड किसी पत्रकार को मारता नहीं है। उसे पता है कि पत्रकार अपना काम कर रहा है, जो सिर्फ खबर छापने तक ही सीमित होगा। लेकिन अंडरवल्र्ड, या किसी भी तरह का संगठित अपराध (चाहे वह तेल माफिया हो, देह व्यापार हो, शराब माफिया हो, मिलावट हो, किसी भी तरह की कालाबाजारी हो) के धंधों में लगे हुए लोग बड़े खतरनाक होते हैं। वह सिर्फ पैसों के लिए ये सब करते हैं, और अपने रास्ते में आनेवाली किसी भी बाधा को किनारे लगाने के लिए कोई भी रास्ता अपनाने से चूकते नहीं हैं। इस मामले में वह बड़े निर्मम हो जाते हैं।


जे डे के मामले में यह कहां तक सत्य है, यह तो केस का खुलासा होने पर ही पता चलेगा। लेकिन किन्हीं निजी कारणों से इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया होता, तो उसके और भी कई तरीके हो सकते थे। कहीं घात लगाकर मारा जा सकता था, कहीं चुपके से मारा जा सकता था। लेकिन दिनदहाड़े किए गए इस हत्याकांड का तौर–तरीका तो अंडरवल्र्ड वाला ही लगता है। इसके अलावा कुछ दिनों पहले दाऊद के भाई इकबाल कासकर पर हमला होना, उसके कुछ माह पहले छोटा राजन के एक साथी फरीद तानशा की उसके घर में हत्या होना, फिर तानशा की हत्या करवाने वाले भरत नेपाली की कहीं हांगकांग में हत्या होने की खबर आना, ये सारी कड़ियां स्पष्ट संकेत करती हैैं कि मुंबई में अंडरवल्र्ड की वापसी बाकायदा हो गई है। यह और बात है कि अभी 90 के दशक वाली स्थिति नहीं आई है, जब तीन–चार विधायक, कुछ उद्योगपति एवं फिल्म जगत से जुड़ी कई हस्तियां अंडरवल्र्ड की गोली का शिकार बन गई थीं। लेकिन आज किसी वरिष्ठ पत्रकार पर हुए इस हमले को भी छोटा नहीं माना जाना चाहिए। इसलिए इस तरह की घटना इस बात का संकेत है कि अंडरवल्र्ड अपना सिलसिला पुन: शुरू कर चुका है।


एक और मुद्दा अंडरवल्र्ड–पुलिस गठजोड़ का खड़ा होता है। जे डे हत्याकांड में भी एक एसीपी अनिल महाबोले से पूछताछ की जा रही है। लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि कोई पुलिसवाला इस तरह का काम कर सकता है। वह अपराधियों को मार सकता है, लेकिन किसी की हत्या करने या करवाने जैसा निम्नस्तरीय कदम नहीं उठा सकता। लेकिन कुछ पुलिस अधिकारियों के अपने दायरे से बाहर जाकर अंडरवल्र्ड के लोगों से संबंध हो जाते हैं, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है। मुंबई पुलिस में भी ऐसे अधिकारी निगाह में आते रहे हैं। उन्हें स्थानांतरित कर दिया जाता है। कोई गंभीर आरोप लगने पर उन पर सख्त विभागीय एवं कानूनी कार्रवाई भी की जाती है। इसी के चलते कुछ पुलिस अधिकारी निलंबित हैं, कुछ बर्खास्त हो चुके हैं, एक–दो तो जेल में भी हैं। लेकिन पूरे पुलिस विभाग को इस नजरिए से देखना गलत होगा। अंडरवल्र्ड की खबरें निकालने के लिए तो इस काम में लगे पुलिस अधिकारियों को उनके लोगों से संपर्क में रहना ही पड़ता है। मिलना–जुलना भी पड़ता है। लेकिन वह मेलजोल एक सीमा तक ही होता है। उसे पुलिस–अंडरवल्र्ड गठजोड़ का नाम नहीं दिया जा सकता।



26 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “पुलिस-नेता-माफिया गठजोड़ से मुश्किल हुई क्राइम रिपोर्टिंग” पढ़ने के लिए क्लिक करें.



26 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख खरी खरी” पढ़ने के लिए क्लिक करें.



26 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “जे डे हत्याकांड : हत्यारों का सुराग नहीं” पढ़ने के लिए क्लिक करें.




साभार : दैनिक जागरण 26  जून 2011 (रविवार)


नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.


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