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हम सभी के लिए ऐसा कोई भी दिन नहीं होता जब मोबाइल पर अपने सपनों का आशियाना खरीदने के लिए करीब आधे दर्जन संदेश न आते हों। ग्र्राहकों को लुभाने के लिए इन संदेशों में ऐसे विला उपलब्ध कराने का भी आग्रह किया जाता है जिसके साथ स्वीमिंग पूल और मिनी गोल्फ कोर्स की सुविधाएं है। ये खूबसूरत आशियाने जिस जमीन की धरातल पर खड़े किए गए होते है, मूलरूप से वे उन गरीब किसानों की जमीन है जिनकी बस एक ही गुस्ताखी है कि वे गरीब हैं।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि पूरे देश के गरीब किसान अपनी जमीन की सुरक्षा के लिए डर के साये में जी रहे हैं। वे सरकार और उद्योगों द्वारा भूमि अधिग्रहण किए जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। कर्नाटक के मंगलूर से लेकर गोवा तक, उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ से लेकर ग्रेटर नोएडा तक, पश्चिम बंगाल में सिंगुर से लेकर पंजाब में मानसा और हरियाणा में अंबाला तक ग्रामीण क्षेत्र विद्रोह की आग में सुलग रहे हैं। बड़ी संख्या में कृषि उपयोगी भूमि को गैर कृषि कार्यों में तब्दील किया जा रहा है।
खाद्यान्न उत्पादन में अग्रणी पंजाब और हरियाणा राज्यों में पहले से ही कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का कार्य शुरू हो चुका है। आंध्र प्रदेश में करीब 20 लाख एकड़ भूमि को गैर कृषि कार्यों में बदल दिया गया। हरियाणा में वर्ष 2005-2010 के बीच करीब 60 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है। मध्य प्रदेश में करीब 4.40 लाख हेक्टेयर जमीन को पिछले पांच वर्षों की अवधि के भीतर औद्योगिक कार्यों के लिए अधिग्रहीत किया गया। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और पंजाब ने उद्योगों के लिए ‘लैंड बैंक’ बनाए हैं। जबकि राजस्थान ने उद्योगों को किसानों से प्रत्यक्ष तौर पर जमीन खरीदने की अनुमति प्रदान की हुई है।
इसी कड़ी में ग्रेटर नोएडा में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के संघर्ष (जिसने हाल ही में हिंसक रुख अख्तियार कर लिया और सियासी पारे को भी गर्मा दिया) को इस तरह प्रचारित किया जा रहा है मानो कि वह अधिक दाम वसूलने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि अधिकांश किसान अपनी पुश्तैनी जमीन को देना ही नहीं चाहते। उनको ऐसा करने के लिए बाध्य किया गया। असल मसला यह है कि सरकार खुद बिल्डर की भांति किसानों से व्यवहार करती है। वह बेहद काम दामों पर कृषि योग्य भूमि को किसानों से खरीदकर गैर कृषि कार्यों मसलन बिल्डरों को आवासीय इकाइयां बनाने के लिए महंगे दामों में बेच देती है। बाद में बिल्डर उस क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं के विकास द्वारा जमीन की कीमतों को कई गुना बढ़ा देते हैं। इन्हीं कीमतों पर वे अपने प्रोजेक्ट ग्राहकों में बेचते हैं। अब इस नई कीमतों को देखकर किसान खुद को ठगा सा महसूस करता है।
समाज में विकास के दो मानदंड कैसे हो सकते हैं? अमीरों के लिए अलग और गरीबों के लिए अलग? क्या यह सच्चाई नहीं है कि हर व्यक्ति चाहता है कि उसके पास भी जमीन का एक टुकड़ा हो? इसको हासिल करने के लिए वह जी-तोड़ मेहनत करता है। इसके उलट तस्वीर का एक स्याह पहलू यह है कि गांव में जिनके पास जमीन और मकान है, उनको विकास के नाम पर जबर्दस्ती बे-दखल किया जा रहा है। निश्चित रूप से यह विकास नहीं है बल्कि जबरन भूमि अधिग्रहण है।
विवाद की वजह
-देश में गैर कृषि योग्य भूमि काफी है, लेकिन सामान्यतया वहां उद्योग स्थापित करना फायदे का सौदा नहीं साबित होता। इसीलिए कंपनियां विकसित क्षेत्र यानी शहरों के करीब ही अपने संयंत्र स्थापित करने को प्रमुखता देते है। आधारभूत संरचनाओं के लिए परियोजना तैयार करते समय हर तरह की जमीन बीच में आती है। इससे वहां की जमीन के अधिग्रहण से हमेशा किसी न किसी आबादी को उजड़ना पड़ता है.
-ग्रमीण और दूरदराज के क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण सालों साल से चली आ रही जीवनशैली और रोजगारों के उजड़ने का सवाल बनता है जबकि विकसित क्षेत्रों और शहरी इलाकों के आसपास और खेती योग्य जमीन के मामले में मुआवजे को लेकर मिलने वाली रकम पर पेंच फंसता है.
-सही कीमत पर लोग जमीन देने को तो तैयार हो जाते है लेकिन यह सही कीमत तय करने की कोई प्रामाणिक विधि नहीं अपनायी जाती है.
-अंधाधुंध शहरीकरण से जमीन के भाव आसमान छूने लगते है। उस पर भी जैसे ही किसी क्षेत्र में नयी परियोजना के आने की सुगबुगाहट सुनायी देती है वैसे ही वहां के दाम सातवें आसमान पर पहुंच जाते है.
-कुछ समय पहले सरकारी परियोजनाओं में सरकार मुनाफा नहीं कमा पाती थी, लेकिन हाल के वर्षों में शहरीकरण और आधारभूत परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ने के बाद सरकार जमीन लेकर कंपनियों को सौंप देती है.
-किसानों का मानना है कि सरकार उनकी जमीन को कौड़ियों के भाव लेती है और बाद में उसी जमीन की कई गुना अधिक कीमत वसूली जाती है। यह अन्याय है। ऐसा नहीं होना चाहिए.
-बिल्डर्स का मानना है कि उस क्षेत्र में उनके आने और उनके द्वारा विकास कार्य किए जाने के बाद ही जमीन की कीमतों में वृद्धि होती है। जब जमीन अधिग्रहीत की गई थी तब यहां का बाजार भाव काफी नीचे था। इसलिए यह आरोप निराधार हैं.
संभावित समाधान
-किसी भी नयी बसावट के लिए बाकायदा टाउन प्लानिंग होनी चाहिए।
-इस नई बसावट वाले इलाकों में रिहायशी और उद्योगों के लिए अलग अलग प्लॉट चिह्नित किए जाने चाहिए। इलाके में पार्क एवं सड़क जैसी आधारभूत संरचनाओं का विकास सरकार द्वारा तय किया जाए। शेष जमीन का मालिकत्व किसानों के पास रहे.
-अब इस इलाके में आने वाले बिल्डर्स सीधे किसानों से उनकी जमीनों का सौदा करें। इस स्थिति में किसान अपनी जमीन की मुंहमागी कीमत वसूलने की हालत में होंगे। इस तरीके के अधिग्रहण से ये विवाद कम किए जा सकते हैं.
-1894 के भूमि अधिग्रहण कानून, संशोधन और प्रस्तावित पुर्नवास पॉलिसी तीनों को हटाकर उसकी जगह एक नई पॉलिसी बनाई जाए। इसकी जगह कंप्रीहेंसिव एंड लाइवलीहुड डेवलपमेंट एक्ट लाया जाना चाहिए। भूमि अधिग्रहण से एक तरह के कब्जे की गंध आती है। इस नए अधिनियम में इसकी गुंजायश नहीं शेष रहती .
-जमीन सिर्फ सार्वजनिक उद्देश्य के लिए ही ली जानी चाहिए और सार्वजनिक उद्देश्य को परिभाषित किया जाना चाहिए। अधिग्रहीत भूमि पर मॉल, वाटर पार्क और गोल्फ कोर्स का निर्माण सार्वजनिक उद्देश्य के तहत नहीं गिना जा सकता.
-कृषि योग्य भूमि का उपयोग गैर कृषि कार्यों में नहीं किया जाना चाहिए.
-170 लाख हेक्टेयर जमीन बंजर है। जो भी निर्माण किया जाना चाहिए इसी बंजर भूमि पर किया जाना चाहिए। चीन में जो ओलंपिक खेल हुए थे उसके लिए उसने बंजर जमीन पर पूरा एक शहर बना दिया था.
-अधिग्रहण की जा रही जमीन के मालिकों को मुआवजे के अलावा नौकरी, स्टॉक में हिस्सेदारी भी मिले.
-भूमि अधिग्रहण करके 73वें और 74वें संविधान संशोधन के तहत ग्राम सभाओं और नगर निकायों को दिए गए अधिकारों का हनन किया जा रहा है। सबसे पहले ग्राम सभा से जमीन अधिग्रहण के संबंध में सहमति लेनी चाहिए। केरल में इस संबंध में सख्त कानून बने हैं। इसलिए ही कोका कोला जैसी कंपनी को वहां से हटना पड़ा.
-नई नीति के लिए देश के सभी हिस्सों से लोगों के विचारों को सुना जाना चाहिए। जिससे एक आमराय बनायी जा सके.
-जवाबदेही स्पष्ट रूप से सुनिश्चित होनी चाहिए और जिम्मेदार लोगों को कड़ी सजा होनी चाहिए। भांखड़ा बांध, पोंग बांध, व्यास बांध, हीराकुड बांध और नर्मदा बांध निर्माण द्वारा विस्थापित किए गए लोगों का आज तक पुनर्वास नहीं किया जा सका है। इसके अलावा जिन लोगों पर इनके पुनर्वास की जिम्मेदारी थी क्या उनको आज तक कोई सजा दी गई ?
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साभार : दैनिक जागरण 22 मई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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