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ताबूत में अंतिम कील!

मुद्दा
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दुनिया में पहली बार केरल में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार सत्ता में आई जब 1957 में दिग्गज नेता ईएमएस नम्बूदरीपाद को राज्य में जनादेश मिला। दस बरस बाद (1967) में पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चा की सरकार अस्तित्व में आई। इसके घटक दल के रूप में वाममोर्चा भी सरकार में शामिल था। उसके ठीक एक दशक बाद आपातकाल से उपजी परिस्थितियों ने कांग्रेस को जमींदोज कर दिया और बंगाल के दुर्ग पर वाम मोर्चा ने लाल रंग की ऐसी रंगत दी, जिसकी चमक लगातार 34 बरस तक बरकरार रही।

1957 में दुनिया के आधे भू-भाग पर कम्युनिस्ट लाल रंग का नशा लोगों के जेहन पर हावी था। वाम विचारधारा सबसे पहले सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही के अधीन पनपी और इसने बाद में पूर्वी यूरोप को अपने गिरफ्त में लिया। उस दौर में सबसे तेजी से पुष्पित-पल्लवित होने वाली वह माक्र्सवादी विचारधारा जो धर्म को जनता के लिए अफीम मानती थी, आज दक्षिण अमेरिका के कुछ देशों और कुछ छोटे प्रायद्वीपीय इलाकों तक सिमट कर रह गई है।

बर्लिन दीवार के ढहने (1989) और सोवियत संघ के पतन (1991) के बाद शीत युद्ध के खात्मे के दौर में फ्रांसिस फुकुयोमा ने ‘इतिहास के अंत’ की बात कही। लेकिन, अपवाद के रूप में किताब का अंतिम अध्याय भारत में वाम मोर्च की सफलता के रूप में बच गया था।

भले ही केरल की वाम मोर्चा सरकार सत्ता विरोधी लहर के कारण चली गई हो, लेकिन, बंगाल में वाम मोर्च की हार को इस रूप में नहीं लिया जा सकता क्योंकि बंगाल की वाम मोर्चा सरकार वामपंथ विचारधारा का वह अंतिम सुरक्षित किला था जो भारत में भूमंडलीकरण की हवा और वैश्वीकरण के प्रभाव से अछूता रहता चला आ रहा था।
लेकिन 13 मई को बंगाल की जनता ने 34 साल पुराने उस अभेद्य दुर्ग की दीवारों के लाल रंग की रंगत को उखाड़ कर इस विचारधारा की ताबूत में अंतिम कील ठोंक दी है।

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साभार : दैनिक जागरण 15 मई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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